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आज प्रत्येक राजनीतिक दल इससे भली-भांति परिचित है कि चुनावों में महिला वोटरों की कितनी अधिक अहमियत है। लोकसभा चुनावों को नजदीक जानकर हर बड़ा नेता महिला मुद्दों की बात उठाकर उन्हें लुभाने का प्रयास भी कर रहा है। इस कारण महिलाओं का सशक्तीकरण देश में केंद्रीय बहस का मुद्दा बन गया है। लेकिन क्या हमारे राजनीतिक दलों को वास्तव में महिलाओं के हितों की कोई चिंता है। खास तौर से मोदी बनाम राहुल के हाल के भाषणों के संदर्भ में यह बात उठाई जा रही है और पूछा जा रहा है कि राजनेता वास्तव में महिलाओं की स्थिति सुधारना चाहते हैं या फिर इस बारे में वे सिर्फ जुबानी-जमा-खर्च से काम चलाना चाहते हैं। हाल में, नरेंद्र मोदी ने उद्योग चैंबर-फिक्की के महिला संगठन (एफएलओ) में महिला सशक्तीकरण की जरूरत पर बल दिया और गुजरात में महिलाओं की स्थिति सुधारने से संबंधित उदाहरण सामने रखे। इससे यह तो स्पष्ट हुआ है कि देश में महिला उत्थान के रास्ते में यदि कोई बाधा है, तो वह है राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी। उल्लेखनीय है कि निजी क्षेत्र और कुछ गैर सरकारी संस्थाएं तो महिलाओं को आगे बढ़ाने में सहयोग कर रही हैं, लेकिन महिलाओं को राष्ट्रीय राजनीति से जोड़कर उन्हें मुख्यधारा में लाने के काम में भारी कोताही हो रही है। यही वजह है कि राष्ट्रीय राजनीति में महिलाओं की उपस्थिति काफी कम है।
मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में कांग्रेस और भाजपा जैसे बड़े राष्ट्रीय दलों के अलावा क्षेत्रीय दलों में कुछ महिलाएं अवश्य हैं, लेकिन उनकी संख्या गिनती की है। ज्यादातर दल एक-दो महिलाओं को सामने रखकर महिला सशक्तीकरण के अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। इसके अलावा हमारी राजनीति का ऐसा चरित्र बन गया है कि उसमें ऐसी महिलाओं के ही कुछ आगे बढ़ने की गुंजाइश बनती है जो दबंगई, हिंसा और भ्रष्टाचार तक में पुरुष नेताओं की बराबरी कर सकती हैं। तो कहां जाएं वे महिलाएं जो राजनीति में आकर वास्तव में महिला हितों के लिए साफ-सुथरे ढंग से काम करना चाहती हैं। इससे ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि आखिर किस तरह महिलाएं राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश कर सकती हैं।
इसका एक रास्ता देश में तब बना था, जब 1993 में पंचायती राज संशोधन कानून लागू हुआ था। इसके जरिए महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण मिला था, जिसे बाद में कुछ राज्यों ने बढ़ाकर 50 फीसदी तक कर दिया। ग्राम पंचायतों और स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए 50 फीसदी सीटें आरक्षित करने का फैसला एक अच्छा कदम था। इसका फायदा यह हुआ कि आज 10 लाख से अधिक महिलाएं पंचायत सदस्य हैं और उनमें से करीब 10 फीसद महिला सरपंच हैं। कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय राजनीति में उनके आने का यही प्रशिक्षण केंद्र है। यह भी कहा गया कि पंचायतों के जरिये महिलाएं केंद्रीय राजनीति में आसानी से आ सकती हैं। इस बीच रबर स्टैंप, सरपंच पति और सरपंच पुत्र जैसे जुमले महिला सरपंचों के मामले में कई बार उछाले गए, पर बीते दो दशकों में इस व्यवस्था का वह नतीजा निकलता नहीं दिखाई पड़ा, जिसकी अपेक्षा थी। यानी केंद्रीय अथवा राष्ट्रीय राजनीति में महिला प्रतिनिधित्व में अपेक्षित इजाफा नहीं हो सका, जिस कारण महिला सशक्तीकरण का काम अभी भी आधा-अधूरा ही दिखाई देता है। शायद इसकी एक बड़ी वजह यह है कि पंचायती राज व्यवस्था लागू होने के बावजूद आज भी गांव के विकास से जुड़ी जरूरतों का आकलन करने और उसके लिए फंड जारी करने का निर्देश देने का काम अफसरशाही और केंद्र में बैठे नेताओं के हाथ में है। लगता है कि ये हालात तभी बदलेंगे, जब केंद्रीय राजनीति में महिलाएं पर्याप्त संख्या में मौजूद होंगी। दुर्भाग्य से हमारे देश की राजनीतिक पार्टियों में आम महिलाओं के लिए जगह नहीं है। अब देश की केंद्रीय राजनीति की तस्वीर तभी बदलेगी, जब महिलाओं की तकदीर बदलने वाला महिला आरक्षण बिल कानून की शक्ल लेगा।
इस आलेख की लेखिका मनीषा सिंह हैं
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