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अमेरिका की तीन भूलें

जागरण मेहमान कोना
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Swapanजब 28 जून, 1914 को छह सर्बियाई नागरिकों ने आर्कडयूक फ्रेंक फर्डिनेंड को गोलियों से छलनी किया था, तो किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था कि इस दुस्साहस से भयावह विश्व युद्ध की शुरुआत हो जाएगी और 51 महीनों तक चलने वाला यह विश्वयुद्ध यूरोप का चेहरा बदल कर रख देगा। तत्कालीन विश्लेषकों को दूर-दूर तक यह भान नहीं था कि ग्रेटर सर्बिया के पक्ष में माहौल बनाने के लिए की गई इस गोलीबारी के इतने भयावह दुष्परिणाम होंगे। जबकि 11 सितंबर, 2001 को मोहम्मद अत्ता और उसके अन्य साथियों द्वारा अमेरिका में किए गए आत्मघाती हमले के संबंध में उनके आका ओसामा बिन लादेन का स्पष्ट मानना था कि उनकी ‘शहादत’ से विद्यमान वैश्विक हालात बदल जाएंगे। असल में, यह निश्चित नहीं था कि किस तरह के बदलाव होंगे। लादेन ने उम्मीद की होगी कि अमेरिकी जीवनपद्धति पर यह हमला सभ्यताओं के बीच संघर्ष छेड़ देगा और ‘सबसे बड़े शैतान’ के खिलाफ मुस्लिम जगत का ध्रुवीकरण हो जाएगा। किंतु लादेन को भी नहीं पता था कि जीवन मुल्लाओं, भविष्यवक्ताओं और अर्थशास्त्रियों द्वारा निर्धारित ढर्रे पर नहीं चलता।


9/11 के दस साल बाद विचार करना जरूरी है कि अत्ता और कंपनी का आकलन और उम्मीदें कहां तक पूरी हुईं? क्या उन्होंने वह हासिल किया जिसकी 11 सितंबर की सुबह परिकल्पना की थी? या फिर उनके महान स्वप्न का भी वही हश्र हुआ जो अलकायदा के संस्थापक का 2 मई को एबताबाद में हुआ? अन्य बहुत से समकालीन कट्टरपंथियों की तरह ही अलकायदा का पर्ल हार्बर इस अनुमान पर आधारित था कि नैतिक रूप से पतित पूंजीवादी व्यवस्था आत्मरक्षा में असमर्थ है, खासतौर पर तब जब यह बेहद जुनूनी विरोधी का सामना कर रही हो। बिन लादेन को यह अंदेशा जरूर होगा कि न्यूयॉर्क में व‌र्ल्ड ट्रेड सेंटरों के विध्वंस, पेंटागन पर हमले और करीब तीन हजार लोगों की मौत के बाद अमेरिका की ओर से इतना भीषण हमला होगा। जो लोग राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश को युद्धोन्मादी बताते हैं, उन्हें पता होना चाहिए कि अमेरिका का कोई भी राष्ट्रपति बिन लादेन की सुरक्षित पनाहगाह पर बदले की कार्रवाई से पीछे नहीं हटता। बिन लादेन जैसे समझदार खिलाड़ी ने संभवत: यह अनुमान तो लगा लिया होगा कि इसके बाद अमेरिका अफगानिस्तान पर हमला कर सकता है, किंतु वह यह अनुमान नहीं लगा पाया होगा कि तालिबान इतनी जल्दी घुटने टेक देगा। स्वाभाविक है कि आने वाले वर्षो में लादेन के प्रशंसक गुणगान करें कि अपनी जान की परवाह न करते हुए भी उसने शत्रु के घर में घुसकर उस पर हमला करने की हिम्मत दिखाई और उसकी भेद्यता उघाड़ कर रख दी। अफसोस की बात है कि यह आकलन पूरी तरह गलत नहीं है। तालिबान के खिलाफ अमेरिकी कार्रवाई बेहद सख्त, त्वरित और प्रभावी रही। अमेरिका के लिए युद्ध लड़ना आसान था। किंतु वह अफगानिस्तान के गैरतालिबानीकरण की मुश्किल चुनौती से पार नहीं पा सका।


अमेरिका के तीन आकलन गलत साबित हुए। उसे उम्मीद थी कि वह अमेरिका में शिक्षित निर्वासित अफगानियों और हमदर्द अमेरिकियों के बल पर अफगानिस्तान में उदार लोकतंत्र या फिर आधुनिक इस्लामिक लोकतंत्र की स्थापना कर पाने में कामयाब रहेगा। किंतु समस्या यह थी कि दो दशक की मारकाट और अराजकता के कारण अफगानिस्तान में कार्यशील लोकतंत्र की स्थापना करने के लिए जरूरी संस्थान ही उपलब्ध नहीं थे। अमेरिका और नाटो ने हामिद करजई को एक उदार अधिसत्ता की स्थापना की छूट भी नहीं दी। नतीजे में वहां अफरातफरी फैल गई और नाटो सेनाओं के खिलाफ अफगान विद्रोह फूट पड़ा।


दूसरे, पड़ोसी पाकिस्तान से मिलने वाली सहायता के कारण तालिबान को पूरी तरह नेस्तनाबूद किया ही नहीं जा सका। पाकिस्तान ने शुरू में अमेरिका को अफगानिस्तान में खुलकर कार्रवाई करने की छूट दी किंतु साथ ही इस कार्रवाई के कारण खतरे में पड़े तालिबानी नेतृत्व व लड़ाकों को पाकिस्तान में सुरक्षित पनाह भी मुहैया कराई। हालांकि जल्द ही पाकिस्तान ने कोशिशें शुरू कर दीं कि पश्चिमी देश थक कर अफगानिस्तान से लौट जाएं। इससे भी अधिक चौंकाने वाली बात यह है कि पाकिस्तान की कुटिल चालों की अनदेखी करते हुए अमेरिका उसे अरबों डॉलर की आर्थिक और सैन्य सहायता प्रदान करता रहा। पाकिस्तान इस रकम को जेब में डालता रहा और करता वही रहा जो जिससे उसके राष्ट्रीय हितों की पूर्ति होती थी-अफगानिस्तान में टकराव जिंदा रखना।


अमेरिका की अंतिम भूल यह रही और इस बारे में लादेन का अनुमान बिल्कुल सही था कि न तो अमेरिका और न ही यूरोपीय देशों के पास वह जिगर है जिसके बल पर वे इस सुदूर, अनजान और लड़ाकू भाग को काबू कर सकते हैं। रही-सही कसर इराक पर हमले ने पूरी कर दी। अनुदार इस्लामी और कट्टर इस्लामी के बीच भेद के हालिया प्रयास इस सच्चाई की तार्किक परिणति है कि पश्चिमी देश पूरी तरह थक चुके हैं।


11 सितंबर, 2001 को ओसामा बिन लादेन ने युद्ध का बिगुल बजा दिया था और वह जानता था कि यह युद्ध लंबा चलेगा। एक दशक बाद जब पश्चिमी देश पूंजीवाद के बड़े संकट से घिरे हैं, युद्ध का पहला चरण पूरा हो गया है। अगला चरण, जिसमें अरब विद्रोह, इस्लामिक कट्टरता और इजराइल के प्रति नफरत भरी है, शुरू होने वाला है। केवल लापरवाह ही इसके नतीजे का अनुमान लगाने में चूक कर सकते हैं। फिलहाल ओसामा बिन लादेन के साथियों के पास मुस्कुराने की वजह हैं।


लेखक स्वप्न दासगुप्ता वरिष्ठ स्तंभकार हैं


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