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9/11 के बाद कितना बदला अमेरिका

जागरण मेहमान कोना
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Rajeev ranjan tiwariभले अलकायदा सरगना ओसामा बिन लादेन मारा जा चुका हो, लेकिन इस आतंकी संगठन की ताकत अब भी कम नहीं हुई है। अलकायदा से जुड़े लोग अब भी अमेरिका और दुनिया के विभिन देशों में 9/11 की पुनरावृत्ति की कोशिश में हैं। अलकायदा के संबंध में दुनिया के दबंग अमेरिका की चिंता यह स्पष्ट करती है कि अलकायदा अब भी खतरा बना हुआ है। हालांकि एक वर्ग यह भी मान रहा है कि लादेन की मौत के बाद अलकायदा से जुड़े लोग दबाव में हैं, लेकिन हालात यह बयां नहीं कर रहे हैं। मौजूदा स्थिति यह है कि खुफिया जानकारियों के आधार पर दुनिया भर में 9/11 की बरसी पर अलर्ट घोषित किया गया। निश्चित रूप से यह अलर्ट चिंता को ही दर्शाता है। अगर विशेषज्ञों की मानें तो दस साल पहले 9 सितंबर, 2001 को अमेरिका पर हुए भीषण चरमपंथी हमले ने दो लड़ाइयों को जन्म तो दिया, लेकिन वैश्विक तनाव को भी बढ़ाया। सितंबर 2001 के हमलों के दस साल बाद ओसामा बिन लादेन की मौत हो गई। हालांकि अलकायदा अब भी चरमपंथी हमले करने में सक्षम है, लेकिन ऐसा नहीं लगता कि अब वह 11 सितंबर जैसे बड़े आतंकी हमले को अंजाम दे सकता है। अलकायदा और उसके सहयोगी संगठन खत्म हो जाएंगे या खतरनाक और प्रासंगिक बने रहेंगे, यह कई बातों पर निर्भर करेगा। यहां तीन बातें अहम हैं। पहली, इस्लाम के भीतर जारी विमर्श की दिशा क्या है? दूसरी, मध्य-पूर्व और उत्तरी अफ्रीका में सत्ता परिवर्तन के लिए चलाए गए आंदोलन का क्या महत्व है? और तीसरी, वित्तीय संकट के बावजूद सुरक्षा के लिए हो रहे प्रयास और यह समझ लेना कि खतरा अभी टला नहीं है।


अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के आतंकवाद निरोधक शीर्ष सलाहकार जॉन ब्रेनन का कहना है कि लादेन और अलकायदा के कई शीर्ष आतंकियों का मारा जाना पाकिस्तान के आतंकवादी नेटवर्क के लिए बहुत बड़ा झटका है, लेकिन अलकायदा को परास्त करने के लिए अभी कई वर्षो तक अभियान चलाना होगा। उनका कहना है कि पाकिस्तान स्थित आतंकी तंत्र कमजोर हुआ है, लेकिन अलकायदा के अन्य सहयोगी संगठन अब भी बड़ा खतरा हैं। अमेरिकी विशेषज्ञ मानते हैं कि सरकारी खर्च कम करने और बजट घाटे को खत्म करने के दबाव की स्थिति में पश्चिमी ताकतों के लिए यह आसान विकल्प है कि लादेन की मौत को ही जीत मान लिया जाए और पीछे हट जाया जाए, जैसा कि शीत युद्ध के बाद किया गया था। पिछले दशक में आधुनिक विश्व में धर्म के अभिप्राय और व्यवहार को लेकर मुस्लिम जगत में लगातार चर्चा होती रही है। मुस्लिम जगत की ज्यादातर आबादी ने इस दौरान अलकायदा के हिंसक तरीकों को नकारा है। उन्होंने यह मसहूस किया है कि असल में अलकायदा की गतिविधियों के प्रारंभिक शिकार वे लोग ही रहे हैं। मुसलमानों ने यह जान लिया है कि अलकायदा ने केवल चार विमानों का ही अपहरण नहीं किया, बल्कि उनके धर्म को भी अगवा कर लिया और अब वह इसे सुधारने में जुट गए हैं।


ट्यूनीशिया, मिस्त्र और लीबिया में सत्ता परिवर्तन के लिए जो आंदोलन चलाए गए, उनसे भी अलकायदा के अप्रासंगिक होने का संकेत मिलता है। सीरिया, यमन और बहरीन में जिस तरह राजनीतिक सुधारों को लेकर लोग सड़कों पर उतरे, उससे पता चलता है कि मुस्लिम समाज में बदलाव आ रहा है और अलकायदा की इसमें कोई भूमिका नहीं है। इन देशों में राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक अवसरों को बढ़ाने के लिए बाहर से समर्थन की जरूरत है। पिछले दस सालों में चरमपंथी खतरों को लेकर अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण बदला है। इसका मुकाबला करने के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग और समन्वय में भी बदलाव आया है। खुफिया तंत्र में सुधार हुआ है, चरमपंथी या तो मारे गए हैं या कैद कर लिए गए हैं। उनकी ज्यादातर सुरक्षित पनाहगाहों को ध्वस्त कर दिया गया है। सीमा पर सुरक्षा मजबूत हुई है और उन्हें मिलने वाली आर्थिक मदद काट दी गई है। मध्य-पूर्व में आर्थिक और राजनीतिक सुधारों को पश्चिम की आर्थिक बहाली से जोड़कर देखें तो ऐसा नहीं है कि मध्य-पूर्व में अगर सुधार होंगे तो पश्चिम की अर्थव्यवस्था पर इसका बुरा असर ही होगा। इन सुधार आंदोलनों का समर्थन करना कभी भी सैन्य कार्रवाई से किफायती विकल्प है।


इराक में अमेरिकी नेतृत्व वाले अभियान में 800 अरब डॉलर का खर्च आया था। अगर भविष्य में किसी देश में सैनिक हस्तक्षेप की जरूरत होती है तो हाल ही में लीबिया में नाटो के नेतृत्व वाली सेना की जो सीमित भूमिका रही, वैसा ही मॉडल भविष्य में भी अपनाया जाना चाहिए। आदर्श स्थिति तो यह होगी कि 2011 और 2012 में ट्यूनीशिया, मिस्त्र और लीबिया में चुनाव हों और प्रतिनिधि सरकारें चुनी जाएं, जो अर्थपूर्ण राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक सुधारों की शुरुआत करें। जिस तरह के सुधार आंदोलन इन देशों में चलाए गए, आने वाले दशक में वे दूसरे देशों में भी चलाए जाएं। राजनीतिक सत्ता हासिल की जाए, न कि वह विरासत में मिले और सत्ता का शांतिपूर्व हस्तांतरण हो। एक आयोग का कहना है कि अमेरिका पर दोबारा हमले हो सकते हैं। पिछले दशक में हमने कई शहरों में चरमपंथी हमले देखे हैं, जिनमें आत्मघाती हमलावरों और ट्रक बमों का इस्तेमाल किया गया। यहां तक कि कंप्यूटर वायरस के जरिए क्षति पहुंचाने की कोशिश की गई, लेकिन 9/11 के बाद तैयारी बेहतर है। अब हम चरमपंथी हमलों का डटकर मुकाबला करते हैं। सदमे से जल्दी उबर जाते हैं और राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप में नहीं उलझते। उधर, अमेरिका में सुरक्षा एजेंसियों को न्यूयॉर्क या वॉशिंगटन पर आतंकवादी हमले की खुफिया जानकारी मिली है।


अमेरिका के सुरक्षा अधिकारियों ने इस खुफिया जानकारी के हवाले से बताया है कि अलकायदा की वॉशिंगटन या न्यूयॉर्क शहर में बम से लदी गाड़ी को ब्लास्ट करने की संभावित योजना हो सकती है। खुफिया जानकारी के मुताबिक इस योजना को अंजाम देने के लिए अफगानिस्तान से सटे पाकिस्तान के कबाइली इलाकों से कुछ लोग अमेरिका में घुसे हैं। इसमें एक अमेरिकी नागरिक भी शामिल है। न्यूयॉर्क पुलिस खतरे की इस आशंका को खास और विश्वसनीय बता रही है। इस आशंका के मद्देनजर राष्ट्रपति बराक ओबामा ने आतंकवाद निरोधी उपायों को दोगुना करने का आदेश दे दिया है। बहरहाल, आतंकवाद की चपेट में आती जा रही दुनिया को इससे बचाने के लिए कोई वैसे ही खास कदम उठाने की जरूरत है, जिस तरह अमेरिकी अभियान में लादेन मारा गया था।


इस आलेख के लेखक राजीव रंजन तिवारी हैं


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