प्रिय श्री एंटनी, मैं आमतौर पर आप जैसे प्रमुख राष्ट्रीय नेताओं को खुला पत्र नहीं लिखता हूं। इस अपवाद को अनुमति प्रदान करें। बहुत जल्द खुशी का मौका आने वाला है। 10 जुलाई, 2012 को सबसे लंबे समय तक रक्षामंत्री बने रहने का रिकॉर्ड आपके नाम हो जाएगा। आपसे पहले यह रिकॉर्ड करिश्माई और विवादास्पद कृष्णा मेनन के नाम था। यह संयोग है कि आप दोनों ही केरल से हैं। आपकी राजनीतिक सादगी, विनम्रता, व्यक्तिगत ईमानदारी और सहज मिलनसारिता सर्वविदित हैं और आपको स्नेहपूर्वक संत एंटनी के नाम से संबोधित करना गलत नहीं लगता। हालांकि बहुत से लोग कृष्णा मेनन को भी 1962 के अपमान और चीन के साथ सीमा युद्ध से जोड़कर देखते हैं। अक्टूबर 2006 में संप्रग के पहले कार्यकाल के दौरान आपने रक्षामंत्री का दायित्व संभाला और इन साढ़े छह सालों का आपका प्रदर्शन बेहद निराशाजनक है। मैं यह बेबाकी के साथ बोल रहा हूं और इस सिद्धांत का पालन कर रहा हूं कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर हमें हमेशा सच ही बोलना चाहिए, चाहे यह कितना भी कटु क्यों न हो। तभी हम 1962 के अनुभव की पुनरावृत्ति से बच सकते हैं।
हाल के महीनों में भारतीय सेना की छवि पर धब्बा लगा है। ऊपरी तौर पर सैन्य प्रमुख की जन्मतिथि और टाट्रा ट्रक विवाद ने लोगों का ध्यान खींचा है, किंतु इनके अलावा और भी बहुत से मुद्दे ऐसे हैं जिनसे पता चलता है कि भारतीय रक्षा व सैन्य प्रतिष्ठान की दशा सही नहीं है। यह ठीक है कि अग्नि-5 और देसी अरिहंत की सफलता तथा रूस से परमाणु पणडुब्बी मिलने से हमारा गौरव व संतुष्टि बढ़ी है किंतु इसका यह मतलब नहीं कि इससे आपको निर्णय लेने की विफलता के दोष से मुक्त किया जा सकता है। इस संक्षिप्त संबोधन में तीन मुद्दों पर आपका ध्यान खींचना चाहूंगा। संप्रग-2 ने 2009 में कार्यकाल संभाला।
मनमोहन सिंह लगातार दूसरी बार प्रधानमंत्री चुने गए और आप रक्षामंत्री। उस समय परमाणु करार के बाद अमेरिका के साथ मधुर संबंध थे। हालांकि 2012 के मध्य तक आते-आते यह स्पष्ट नहीं है कि शीर्ष नेतृत्व अमेरिका के साथ भारत के सामरिक और रक्षा संबंधों के विषय में किसी स्पष्ट निष्कर्ष पर पहुंचा भी है या नहीं। स्पष्ट सोच के अभाव में कुछ प्रमुख मुद्दों पर भारत का रुख साफ नहीं हो पा रहा है। इन मुद्दों में शामिल हैं- अगले दशक तक चीन के उदय के साथ ही एशियाई सामरिक संरचना के बदलते समीकरण में भारत की भूमिका, 2014 में अफ-पाक थियेटर से अमेरिकी परदा गिरने से उपजने वाले हालात से निबटने की रणनीति और पाकिस्तान के अंदरूनी हालात और अधिक बिगड़ने का भारत पर पड़ने वाला प्रभाव। चीन को लेकर भारत की सुरक्षा चिंता सर्वविदित है। चीन का आक्रामक रवैया देखकर 1962 की घटनाएं दिमाग में आ जाती हैं।
चीन के साथ सीमा विवाद, चीन-पाक सहयोग के तार आतंकवाद तक जुड़ना और भारत की छवि व प्रभाव में कमी आना ऐसी चिंताएं हैं, जिनसे आंखें नहीं मूंदी जा सकतीं। भारतीय कूटनीतिज्ञ जटिल बाहरी संबंधों को सुधारने की दिशा में सराहनीय प्रयास कर रहे हैं, लेकिन वे तभी सही काम कर पाएंगे जब भारत की रक्षा तैयारियां और सैन्य क्षमता को अधिक भरोसेमंद और सक्षम बनाएं। सर, भारत में आप अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जो भारतीय सेना के साजोसामान और सैनिकों के मनोबल की सच्चाई से परिचित हैं। मैं प्रधानमंत्री के नाम लिखे गए सैन्य प्रमुख के बयान का हवाला नहीं दूंगा, बल्कि कुछ मूलभूत सवालों को उठाऊंगा। आपके पास इस समस्या का क्या समाधान है कि भारत विश्व में परंपरागत हथियारों का सबसे बड़ा आयातक है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि उपयुक्त देसी क्षमताओं के विकास न होने का यही सबसे बड़ा कारण है। यह अकुशलता की देन है या फिर भ्रष्टाचार की। इस क्षेत्र में सुधार को लेकर केलकर और रामाराव कमेटी की रिपोर्ट ठंडे बस्ते में पड़ी है।
रक्षा क्षेत्र में सुधार एक महती कार्य है जिसे तभी पूरा किया जा सकता है जब शीर्ष नेतृत्व यह देख सके कि भारत के विश्व के प्रमुख आपूर्तिकर्ताओं के साथ कैसे संबंध रहेंगे। क्या मास्को हमारा सबसे महत्वपूर्ण सप्लायर रहेगा? क्या पेरिस नई पसंद है? क्या भारत इजराइल से दूर हो रहा है? इन समीकरणों में अमेरिका कहां ठहरता है? भारत के नाजुक सुरक्षा हालात को देखते हुए चीन की चुनौती पर राजनीतिक प्रतिष्ठान ने शायद ही कभी साफगोई दिखाई हो। अमेरिका के साथ संबंध भी धुंधले हैं। यह बहस का विषय है कि क्या इस प्रकार के नाजुक द्विपक्षीय संबंधों पर गोपनीयता के पर्दे से हालात सुधर सकते हैं। चिंता का दूसरा विषय है शीर्ष रक्षा प्रबंधन में गतिहीनता। कारगिल युद्ध के उपरांत यह उम्मीद की गई थी कि सैन्य-नागरिक संबंधों में व्यापक बदलाव लाए जाएंगे। इस दिशा में अब तक कोई प्रगति नहीं हुई है। मंत्री महोदय, अंत में यह भी कहना चाहूंगा कि तख्तापलट की हालिया मीडिया रिपोर्ट के बावजूद भारतीय सेना का मनोबल ऊंचा है, किंतु संस्थागत संतुलन की बहाली की तात्कालिक जरूरत है। पिछले तीन वर्षों में पूर्व सैनिकों की दशा आपके कार्यालय की शोभा के अनुरूप नहीं है। पूर्व सैनिकों द्वारा शीर्ष कमांडर को अपने मेडल वापस लौटाने और कमांडर द्वारा उन्हें स्वीकार न करने का दृश्य प्रतीकात्मक भर है। मैं आपका बड़ा सम्मान करता हूं और मुझे विश्वास है कि अपनी बुद्धिमत्ता से आप इन समस्याओं का समाधान निकाल पाएंगे।
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