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देश की आजादी के बाद से ही कई उपाय ऐसे होते चले आ रहे हैं, जिससे देश के प्रत्येक नागरिक को राष्ट्रीय नागरिकता की पहचान दिलाई जा सके। मूल निवासी प्रमाण पत्र, राशनकार्ड, मतदाता पहचान पत्र और अब आधार योजना के अंतर्गत एक विशिष्ट पहचान पत्र हरेक नागरिक को देने की देशव्यापी कवायद चल रही है। इस पहचान पत्र के जरिये देश के नागरिक की पहचान सरल और सहज तरीके से किए जाने के बजाए ऐसी कंप्यूटरीकृत तकनीक से होगी, जिसमें कई जटिलताएं पेश आने के साथ परीक्षण के लिए तकनीकी विशेषज्ञ की भी जरूरत होगी। मसलन, व्यक्ति को राष्ट्रीय स्तर पर पंजीकृत करके जो संख्या मिलेगी, उसे व्यक्ति की सुविधा और सशक्तीकरण का बड़ा उपाय माना जा रहा है। दावा तो यह भी किया जा रहा है कि इससे नागरिक को एक ऐसी पहचान मिलेगी, जो भेद-रहित होने के साथ उसे विराट आबादी के बीच अपने वजूद का भी अहसास कराती रहेगी। लेकिन नागरिकता की इस विशिष्ट पहचान की चूलें पहल चरण में ही हिलने लगी हैं, क्योंकि इस पहचान पत्र योजना के क्रियान्वयन में विकेंद्रीकृत व्यवस्था के उपायों को तो नकारा ही गया था, संसद की सर्वोच्चता को भी दरकिनार कर इसे औद्योगिक पेशेवरों के हाथ सौंप दिया गया था। नतीजतन यह योजना भ्रष्टाचार के पर्याय के रूप में तो सामने आ ही रही थी, पहचानधारकों के लिए संकट का सबब भी साबित हो रही थी। इन्हीं सब कठिनाइयों के चलते यशवंत सिन्हा की अध्यक्षता वाली संसदीय स्थाई समिति ने भी इस योजना को खारिज किए जाने की सिफारिश संसद से की है। इसके पहले वित्त और गृह मंत्रालय तथा योजना आयोग भी इस परियोजना पर सवाल खड़े कर चुके हैं। मालूम हो कि इस योजना को अभी तक 1660 करोड़ रुपये आवंटित किए जा चुके हैं। इसमें से 556 करोड़ रुपये खर्च कर 6 करोड़ लोगों को पहचान पत्र वितरित भी किए जा चुके हैं। वाबजूद इसके इस महत्वाकांक्षी एवं बेहद खर्चीली योजना की मंजूरी अभी तक संसद से नहीं ली गई है।
यह हकीकत अब भी आम-फहम नहीं है कि बहुउद्देशीय विशिष्ट पहचान-पत्र योजना को देश की सर्वोच्च संवैधानिक संस्था संसद की अनुमति नहीं मिली है। इस योजना को इजाजत अटल बिहारी वाजपेयी की कैबिनेट ने दी थी और भारतीय राष्ट्रीय पहचान प्राधिकरण बनाकर इस योजना के क्रियान्वयन की शुरुआत मनमोहन सिंह सरकार ने की। अमेरिका की सही-गलत नीतियों के अंध-अनुकरण के आदी हो चुके मनमोहन सिंह ने इस योजना को जल्दबाजी में इसलिए शुरू किया, क्योंकि इसमें देश की बड़ी पूंजी का निवेश कर औद्योगिक-प्रौद्योगिक हित साधने की असीम संभावनाएं अंतर्निहित हैं। इस प्राधिकरण का अध्यक्ष एक औद्योगिक घराने के सीईओ नंदन नीलकेणी को बनाकर तत्काल उन्हें 6,600 करोड़ रुपये की धन राशि सुपुर्द कर दी गई। बाद में इस राशि को बढ़ाकर 17,900 करोड़ रुपये कर दिया गया।
अर्थशास्ति्रयों के अनुमान के मुताबिक, जब यह योजना अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंचेगी, तब इस पर कुल डेढ़ लाख करोड़ रुपये खर्च होंगे। इस प्रसंग में हैरानी की बात यह भी है कि बात-बात पर संसद की सर्वोच्चता और गरिमा की दुहाई देने वाले मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने महाराष्ट्र के पिछड़े गांव की एक महिला को पहचान-पत्र देकर एक साल पहले इसका शुभारंभ भी कर दिया। क्या सरकार से पूछा जा सकता है कि गरीब की भूख से जुड़े खाद्य सुरक्षा विधेयक, भूमि अधिग्रहण एवं पुनर्वास विधेयक और ज्यादातर गरीबों को मनरेगा से जोड़ने वाली गरीबी रेखा को तय किए बिना या संसद की मंजूरी लिए बिना इन योजनाओं पर अमल क्यों नहीं शुरू किया जाता? लोकपाल विधेयक को संसद पहुंचाने से पहले ही क्यों नहीं भ्रष्टाचारियों पर लगाम कसी जाती है? दरअसल, संप्रग सरकार की पहली प्राथमिकता में भूख और कुपोषण जैसी समस्याएं हैं ही नहीं। वह जटिल तकनीकी पहचान पर केंद्रित इस आधार योजना को जल्द से जल्द इसलिए लागू करने में लगी है, जिससे गरीबों की पहचान को नकारा जा सके। क्योंकि राशनकार्ड और मतदाता पहचान-पत्र में पहचान का प्रमुख आधार व्यक्ति की फोटो होती है, जिसे देखकर आंखों में कम रोशनी वाला व्यक्ति भी कह सकता है कि यह फलां व्यक्ति की फोटो है। उसकी तस्दीक के लिए भी कई लोग आगे आ जाते हैं।
इसे देखकर एक साथ बहुसंख्यक लोग व्यक्ति की पहचान कर सकते हैं, जबकि आधार में फोटो के अलावा उंगलियों और अंगूठे के निशान तथा आंखों की पुतलियों के डिजीटल कैमरों से लिए गए महीन से महीन पहचान वाले चित्र हैं, जिनकी पहचान तकनीकी विशेषज्ञ भी बड़ी मशक्कत और मुश्किल से कर पाते हैं। ऐसे में सरकारी एवं सहकारी उचित मूल्य की दुकानों पर राशन, गैस व केरोसिन बेचने वाला मामूली दुकानदार पहचान कैसे करेगा? पहचान के इस परीक्षण और पुष्टि के लिए तकनीकी ज्ञान की जरूरत तो है ही, कंप्यूटर उपकरणों के हर वक्त दुरुस्त रहने, इंटरनेट की कनेक्टिविटी व बिजली की उपलब्धता भी जरूरी है। गांव क्या, नगरों और राजधानियों में भी बिजली कटौती का संकट लगातार बढ़ता जा रहा है। हाल ही में एक शनिवार भारत के सबसे बड़े सरकारी बैंक का साइबर सिस्टम पूरे दिन ठप रहा। नतीजतन, लोग मामूली धनराशि का भी लेने-देन नहीं कर पाए। सुविधा बहाली के लिए विज्ञापन देकर बैंक रविवार को खोलना पड़ा। कमोबेश नगरीकृत व सीमित उपभोक्ता से जुड़े एक बड़े बैंक को इस परिस्थिति से गुजरना पड़ रहा है तो सार्वजनिक वितरण प्रणाली को किस हाल से गुजरना होगा? जाहिर है, ये हालात गांव-गांव में दंगा, मारपीट और लूट का आधार बन जाएंगे। इस तरह के हालात से भिड़ंत का सिलसिला शुरू भी हो गया है। 2 अगस्त 2011 को छपे मैसूर के एक दैनिक ने खबर दी है कि अशोक पुरम् में राशन की एक दुकान को गुस्साए लोगों ने आग लगा दी और दुकानदार की बेतरह पिटाई लगाई। दरअसल, दुकानदार कोई तकनीकी विशेषज्ञ नहीं था। इसलिए उसे ग्राहक की उंगलियों के निशान और आंखों की पुतलियों के मिलान में समय लग रहा था। चार-पांच घंटे तक लंबी लाइन में लगे रहने के बाद लोगों के धैर्य ने जवाब दे दिया और भीड़ हुड़दंग, मारपीट व लूटपाट का हिस्सा बन गई। बाद में पुलिसिया कार्रवाई में लाचार और वंचितों पर लूट व सरकारी काम में बाधा डालने के मामले पंजीकृत कर इस समस्या की इतिश्री कर दी गई। अब तो जानकारियां ये भी मिलने लगी हैं कि इस योजना के मैदानी अमल में जिन कंप्यूटराइज्ड इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की जरूरत पड़ती है, उनकी खरीद में भी बड़े पैमाने पर धांधली बरती जा रही है। बेंगलूर से प्रकाशित एक दैनिक अखबार में पिछले दिनों खबर छपी थी कि एक सरकारी अधिकारी ने उंगलियों के निशान लेने वाली 65 हजार घटिया मशीनें खरीद लीं। केंद्रीकृत आधार योजना में खरीदी गई इन मशीनों की लागत 450 करोड़ रुपये है। इस अधिकारी की शिकायत कर्नाटक के लोकायुक्त को की गई है। जाहिर है, यह योजना गरीब को इमदाद पहुंचाने से कहीं ज्यादा भ्रष्टाचार व संकट की वजह बन रही है। दरअसल, आधार के रूप में भारत में अमल में लाई गई इस योजना की शुरुआत अमेरिका में आंतकवादियों पर नकेल कसने के लिए हुई थी।
2001 में हुए आतंकी हमले के बाद खुफिया एजेंसियों को छूट दी गई थी कि वे इस योजना के माध्यम से संदिग्ध लोगों की निगरानी करें। वह भी केवल ऐसी 20 फीसदी आबादी पर, जो प्रवासी हैं और जिनकी गतिविधियां आशंकाओं के केंद्र में हैं। लेकिन दुर्भाग्य है कि हमारे देश में उन लाचार व गरीबों को संदिग्ध और खतरनाक माना जा रहा है, जिनके लिए रोटी के लाले पड़े हैं। ऐसे हालात में यह योजना गरीबों के लिए हितकारी साबित होगी या अहितकारी, इसकी असलियत सामने आने में थोड़ा और इंतजार करना होगा। हालांकि संसदीय समिति ने इसे खारिज करके राष्ट्र और गरीब का हित साधने का ही काम किया है। संसद को इस सिफारिश को मानते हुए इस पर स्थाई अंकुश लगा देना चाहिए।
लेखक प्रमोद भार्गव स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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