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डॉक्टरों के आचरण की क्या हो कसौटी

जागरण मेहमान कोना
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Raj Kishoreराजकिशोर आधुनिक समय की एक बड़ी खासियत यह है कि किसी भी चीज की व्याख्या करना आसान हो गया है। व्याख्या अक्सर इस दृष्टि से की जाती है कि सब कुछ परिस्थितियों के हवाले कर दिया जाए और किसी व्यक्ति को दोषी ठहराने की जरूरत ही न पड़े। पहले व्यक्ति अपने पतन के लिए खुद को जिम्मेदार मानता था। समाज भी इसी दृष्टि से देखता था और किसी के अच्छा या बुरा होने का फैसला करता था। परंतु जब से मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्रीय विश्लेषण की नई परंपरा शुरू हुई है व्यक्ति का अपना पाप मानो कुछ रहा ही नहीं। उसे पूरी तरह से परिस्थितियों की उपज मान कर उसकी नैतिक जिम्मेदारी को बहुत हलके से लिया जाता है। बहुत ही आसानी से कहिए या बहुत ही बेशर्मी से कि आजकल व्यक्ति की जिम्मेदारी को यह कहकर कम से कम करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है कि वह भी क्या करे अथवा समय ही ऐसा है या समाज ही ऐसा है। यहां तक कि बलात्कार की सफाई तक यह कहकर दी जाने लगी है कि इसके लिए फैशनपरस्त औरतें ही जिम्मेदार हैं। वे ऐसे कपड़े पहनकर आखिर बाहर क्यों निकलती हैं कि किसी का मन काबू में न रह जाए। इस तरह अपना दोष दूसरों के सिर मढ़ने बात एक फैशन बनती जा रही है। इस संदर्भ में यदि हम फिल्म अभिनेता आमिर खान के टीवी कार्यक्रम सत्यमेव जयते की बात करें तो इसके चौथे एपिसोड में डॉक्टरों के लालच और निर्दयता की जमकर खिंचाई की गई। यह केवल भावनात्मक उबाल नहीं थी, बल्कि प्रत्येक आरोप के समर्थन में ठोस तर्क और प्रमाण उपलब्ध कराए गए थे।


चिकित्सक बिरादरी में यदि अनुताप या परिताप की थोड़ी भी गुंजाइश होती तो इस प्रकरण के बाद आत्मनिरीक्षण की लहर दौड़ जाती। कम से कम मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया तथा डॉक्टरों के अन्य संगठन बैठक करके विचार करते कि चिकित्सा के पेशे में जो नैतिक गिरावट आ रही है उसे किस तरह रोका जाए। कहने को तो चिकित्सक भगवान नहीं होता, पर वह भगवान का एक प्रतिनिधि जरूर होता है और रोग तथा तकलीफ से भुगत रहे बीमार आदमी को त्राण दिलाने में अपनी बड़ी भूमिका निभाता है। आज के डॉक्टर इस उपमा पर हंस सकते हैं, क्योंकि उनके लिए चिकित्सा और कुछ नहीं, बल्कि कमाने-खाने का जरिया मात्र है। परंतु यदि वे अपने रोगियों की भावनाओं को महसूस करने की कोशिश करेंगे तो उनकी समझ में आ जाएगा कि वे अपनी स्थिति का कितना गंभीर अवमूल्यन कर रहे हैं जो उन्हें कम से कम अपने और आने वाली पीढ़ी के लिए शायद नहीं करना चाहिए। बेशक कोई उनसे देवता की तरह आचरण करने का आग्रह नहीं करता पर यह अपेक्षा भी नहीं करता कि उनके व्यवहार में शैतान का तत्व दिखाई देने लगेगा।


चिकित्सक से आम आदमी की तुलना में बेहतर आचरण और व्यवहार की उम्मीद करना चिकित्सा के पेशे का एक अनिवार्य सामाजिक पहलू है। सत्यमेव जयते कार्यक्रम के जवाब में 21 मेडिकल संस्थानों के शिखर संगठन मेडस्केप ने यदि डॉक्टरों के बचाव में यह कहा होता कि दुर्भाग्य से बहुत से डॉक्टर पेशेगत नैतिकता और ईमानदारी का पालन नहीं कर रहे हैं जिसके लिए हम दुख व्यक्त करते हैं तब भी गनीमत थी। पर इस संगठन का आरोप है कि आमिर खान ने इस कार्यक्रम के द्वारा डॉक्टरी के पेशे को बदनाम किया है और इसके लिए उन्हें माफी मांगनी चाहिए। यह सच है कि सभी डॉक्टर मुद्राराक्षस या कसाई नहीं हो गए हैं और यह भी कि चिकित्सा के पेशे की अनेक बुराइयां वर्तमान औद्योगिक संस्कृति की विकृतियों की देन हैं। खासकर अस्पतालों में जहां डॉक्टर कोई स्वतंत्र व्यक्ति नहीं, बल्कि एक विराट तंत्र का पुरजा भर होता है, लेकिन मेडस्केप के इस तर्क को गले से नीचे उतारने के लिए बेहद संवेदनहीन होना पड़ेगा कि डॉक्टर भी इसी सामाजिक परिवेश में रहते हैं इसलिए उनके आचरण की कोई अलग कसौटी नहीं बनाई जा सकती। क्या कोई डॉक्टर भ्रष्ट और लुटेरा है तो ऐसा इसलिए कि यह समाज ही भ्रष्ट और लुटेरा है। यह गहरी चिंता का विषय है कि मेडस्केप के कर्ताधर्ता चिकित्सा के पेशे को उ”वल बनाने के बारे में सोचने की बजाय अपनी सामाजिक छवि से बेखबर चिकित्सकों के दलाल की तरह आचरण कर रहे हैं। इसमें तो किसी तरह का संदेह ही नहीं है कि सामाजिक पतन का कुछ न कुछ प्रभाव जीवन के हर पहलू पर पड़ता है। परंतु इसीलिए तो समाज के कुछ वर्गो को अन्यों से ऊंचा माना जाता है तथा उनका विशेष आदर किया जाता है कि वे सामान्य व्यक्तियों की तरह लालच में नहीं पड़ेंगे और अपने आचरण से दूसरों के सामने अलग प्रतिमान पेश करेंगे। उदाहरण के लिए हमारे शिक्षक भी इसी कोटि में आते हैं। उनसे आशा की जाती है कि वे नई पीढ़ी का चरित्र निर्माण करेंगे तथा दूसरों की तरह पतन के गड्ढे में गिरने के लिए बेताब नहीं रहेंगे। साधु-संन्यासियों का सम्मान इसीलिए किया जाता है कि वे भौतिक प्रलोभनों से बचेंगे तथा धार्मिक और आध्यात्मिक जीवन जिएंगे। इसी तरह लेखक और कलाकारों से भी उच्च कोटि की नैतिकता की आशा की जाती है।


पत्रकारिता भी एक ऐसा ही पेशा है जिसमें समाज के हित को व्यक्ति के हित से ऊंचा मानने का आग्रह होता है। कह सकते हैं यह वह वर्ग है जो समाज का नैतिक नेतृत्व करता है। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान राजनीति का स्वरूप भी ऐसा ही था। नेता वास्तव में समाज का अगुआ नेतृत्वकर्ता होता था। चिकित्सा के व्यवसाय को क्या इसी श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए। दुर्भाग्य से भारत में आधुनिक चिकित्सा की शुरुआत के समय से ही यह क्षेत्र पैसा कमाने की दृष्टि से बहुत उर्वर रहा है। पहले धनी-मानी घरों के बच्चे ही डॉक्टरी की पढ़ाई कर पाते थे। शायद यही कारण था कि अपने रहन-सहन के स्तर को ऊंचा रखने के लिए वे तगड़ी फीस लेते थे। दुर्भाग्य से आज उसी अर्थकेंद्रित संस्कृति का फैलाव हमें हर तरफ नजर आता है। इसमें जिसको भी जहां मौका मिल पा रहा है वहीं अपना फायदा और अधिक मुनाफा उठाता दिख जाएगा। मुनाफा कमाने की इस दौड़ में दवा कंपनियां अलग से तबाही मचा रही हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि उन पर किसी तरह का शासकीय नियंत्रण नहीं है। पहले अस्पताल धर्मार्थ खोले जाते थे अब समय बदल गया है इसलिए यह मुनाफा कमाने के लिए चलाए जाते हैं। पतन की यह रफ्तार फिलहाल तो रुकने वाली नहीं है, लेकिन क्या इसीलिए हमें पतन के तर्क को भी स्वीकार कर लेना चाहिए?् कम से कम विचार को तो बचाकर रखना चाहिए वरना गिरावट की कोई सीमा नहीं रह जाएगी और न ही कोई मापदंड बचेगा।


राजकिशोर वरिष्ठ स्तंभकार हैं

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