- 1877 Posts
- 341 Comments
एक बार फिर संसद सत्र में हंगामे का बोलबाला है। 22 नवंबर से शुरू हुए शीतकालीन सत्र में हर दिन नियम से हंगामा होता है और दोनों सदनों की कार्यवाही टल जाती है, फिर से वही प्रक्रिया दोहराए जाने के लिए। कभी बांग्लादेश इसके लिए मशहूर हुआ करता था, जहां विपक्षी दलों के बरसों लंबे बॉयकाट के कारण संसदीय साख में भारी गिरावट आई। संसदीय कार्यवाही में व्यवधान और स्थगन अब भारत में भी आश्चर्य का विषय नहीं रहा, बल्कि वह एक नजीर बनता जा रहा है। संसद सत्र पर हर घंटे खर्च होने वाली 25 लाख रुपये की रकम प्रासंगिक नहीं रह गई है। न ही जरूरी विधेयकों का पारित होना या न होना। ऐसा लगता है कि दोनों पक्ष जोर-जोर से अपनी बात सुनाने के लिए संसद का इस्तेमाल कर रहे हैं। धरने-प्रदर्शनों, बंद, हड़तालों, बहसों और चर्चाओं की तुलना में संसदीय हंगामा अपनी पसंद के मुद्दों की ओर ध्यान खींचने का आसान जरिया बन रहा है। नतीजे में संसदीय परंपराओं तथा गरिमाओं का क्षरण हो रहा है। संसदीय कार्यवाही के आंकड़े निराशाजनक हैं।
वर्ष 2009 में शुरू हुई पंद्रहवीं लोकसभा में 200 प्रस्तावित विधेयकों में से अब तक सिर्फ 57 विधेयक पारित हो सके हैं। इनमें भी 17 फीसदी विधेयक ऐसे थे, जिन पर पांच मिनट से भी कम समय के लिए चर्चा हुई। ऐसी चर्चाओं की सार्थकता का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है। इस बार के संसद के मौजूदा सत्र में 21 बैठकें होनी थीं, मगर एक तिहाई सत्र का घटनाक्रम देखते हुए आगे बचे दिनों से भी विशेष उम्मीद नहीं पालनी चाहिए। इस बीच 31 विधेयकों के पारित होने और लोकपाल विधेयक समेत 23 बिलों को पेश किए जाने की संसदीय प्रक्रिया हालात संभलने का इंतजार कर रही है। हंगामा जरूरी है या चर्चा संसद को सुचारू रूप से चलने दिया जाना चाहिए, क्योंकि राष्ट्रहित के मुद्दों को उठाने और उन पर सार्थक निर्णय करवाने का यही मंच है। विधानसभाओं के सत्र तो वैसे ही राज्य सरकारों की राजनैतिक सुविधा-असुविधा पर आश्रित होकर निरंतर छोटे से छोटे होते जा रहे हैं। ले-देकर केंद्र में प्राय: समय पर संसदीय सत्रों का आयोजन होता है तो वह हंगामे की भेंट चढ़ जाता है। इससे वास्तव में किसी का नुकसान होता है तो हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का।
सरकार तो अपने कार्यो को वैकल्पिक माध्यमों से भी पूरा कर लेती है। बेहतर यह है कि भ्रष्टाचार, महंगाई, लोकपाल, नए राज्यों की स्थापना और ऐसे ही दूसरे महत्वपूर्ण मुद्दों पर हंगामे की बजाए चर्चा हो। गतिरोध रास्ता रोकता है, उसे आगे नहीं बढ़ाता। किंतु पिछले तीन सत्रों के दौरान यदि संसद का सर्वाधिक समय किसी प्रक्रिया में व्यतीत हुआ तो वह था गतिरोध। इसके लिए किसी भी पक्ष को एकतरफा तौर पर दोषी नहीं ठहराया जा सकता। यह हमारे राजनैतिक तंत्र की समस्या बन चुकी है। आज राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के घटक और वामपंथी दलों ने जो रणनीति अपनाई है, वही राजग शासनकाल में कांग्रेस की रणनीति हुआ करती थी। पूर्व रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नाडीज के विरुद्ध लगे आरोपों को लेकर संसद में लंबे समय तक इसी तरह का गतिरोध पैदा किया गया। आज राजग ने पी चिदंबरम को संसद में न बोलने देने का निर्णय लिया है तो तब कांग्रेस जॉर्ज के साथ ऐसा ही करती थी। जब वे बोलने के लिए खड़े होते थे तो हंगामा होता था और कांग्रेसी सांसद सदन छोड़कर चले जाते थे। मुद्दे भी एक से हैं और परिस्थितियां भी एक-सी। बस किरदार बदल गए हैं। सरकार को राहत? कई बार लगता है कि विपक्ष जिस हंगामे को अपनी बात पर जोर डालने का जरिया मान रहा है, वह सत्तारूढ़ दल के लिए कहीं अधिक अनुकूल सिद्ध हो रहा है।
संप्रग सरकार 2जी घोटाले, महंगाई, भ्रष्टाचार, लोकपाल विधेयक, तेलंगाना की स्थापना और उत्तर प्रदेश के विभाजन की मांगें और मंदी की आशंका जैसे मुद्दों पर घिरी हुई है। अगर संसद चलती तो ऐसे मुद्दों पर विपक्ष के हमले अवश्यंभावी थे। अन्ना हजारे दोबारा दिल्ली में अनशन पर बैठने की घोषणा कर चुके हैं। अनशन की अवधि उतनी प्रासंगिक नहीं है, जितना कि उसका प्रभाव। सुब्रमण्यम स्वामी दूरसंचार घोटाले से जुड़े विवादों में गृहमंत्री पी चिदंबरम की भूमिका का पर्दाफाश करने का प्रण लेकर बैठे हैं। पूर्व दूरसंचार मंत्री ए राजा के बयानों और सरकारी दस्तावेजों तक उनकी पहुंच सुनिश्चित करने के अदालती आदेश ने उनका काम आसान कर दिया है। सरकार कई मुद्दों पर जवाब देने की स्थिति में नहीं है। संसद चलती तो उसकी स्थिति कोई बहुत सुविधाजनक नहीं होने वाली थी। एफडीआइ की टाइमिंग का सवाल भला हो खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश संबंधी फैसले का, जिसने यह सुनिश्चित कर दिया कि संसद चलेगी ही नहीं। यहां हम इस फैसले के गुण और दोष पर चर्चा नहीं कर रहे, क्योंकि उदारीकरण और वैश्वीकरण की प्रक्रिया शुरू होने के इतने साल बाद यह फैसला तो स्वाभाविक ही था, लेकिन मुद्दा इसकी टाइमिंग का है। इसकी घोषणा ऐन संसद सत्र के मौके पर किया जाना सिर्फ विपक्षी एकता को मजबूत करने वाला कदम मात्र नहीं है। यह एक चतुराई भरा राजनीतिक फैसला भी है। यह निर्णय अनायास नहीं हुआ होगा कि संसद सत्र के दौरान इसकी घोषणा सदन से बाहर की जाए।
सरकार को इस पर संभावित विपक्षी प्रतिक्रिया का भलीभांति अहसास रहा होगा। अब भले ही अन्ना हजारे कहते रहें कि शीतकालीन सत्र में लोकपाल विधेयक पारित न होने पर वे राष्ट्रव्यापी आंदोलन में जुट जाएंगे। खुदरा कारोबार के क्षेत्र में विदेशी निवेश पर हंगामे में लोकपाल का मुद्दा अखबारों की छोटी खबर बन गया है। सरकार को विधेयक पास न होने का एक अच्छा कारण मिल गया है। जब संसद सत्र ही नहीं हो पा रहा तो विधेयक पास कैसे कराया जाए? अब संसद में न महंगाई का मुद्दा है, न भ्रष्टाचार और न ही काला धन का मसला। कम से कम उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों के महत्वपूर्ण विधानसभा चुनावों तक उसे इन आक्रामक मुद्दों से कन्नी काटने का मौका मिल गया है।
लेखक बालेंदु दाधीच वरिष्ठ पत्रकार हैं
Read Comments