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कठिन होगी आडवाणी की राह

जागरण मेहमान कोना
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Amalenduसियासत भी बहुत बेरहम चीज है। यहां जो दिखता है, वह होता नहीं है और जो होता है, वह दिखता नहीं है। यहां बाहर वालों से लड़ना आसान होता है, जबकि अंदर वालों से पार पाना मुश्किल। अर्श और फर्श में सिर्फ एक बालिश्त का अंतर होता है। अपने रथयात्री बुजुर्गवार लालकृष्ण आडवाणी जी भी सियासत की कुछ इन कहावतों से आजकल दो-चार हो रहे हैं। जिस संगठन और दल को आडवाणी ने अपनी जवानी से लेकर पूरी जिंदगी दे दी, आज उसी संगठन में अपना वजूद साबित करने के लिए आडवाणी को 84 साल की उम्र में रथयात्रा पर निकलना पड़ रहा है। किसी भी आदमी की जीवन की अंतिम इच्छा होती है कि वह बुढ़ापे में आराम से बैठकर जिंदगी का आनंद ले और जिन बच्चों को उसने पाला पोसा है, वह बच्चे बुढ़ापे में उसकी सेवा करें। लेकिन आडवाणी इस मामले में थोड़े बदनसीब निकले। जिन्हें उन्होंने पाल-पोसकर सियासत में जवान किया, अब वही उन्हें सियासत से बेदखल करने के लिए उतावले हो रहे हैं। वरना, जिस दिन आडवाणी का संसद में घोर अपमान हुआ और उन्हें लोकसभा में बोलने नहीं दिया गया, उसी दिन भाजपा चाहती तो अपने नेता के अपमान के विरोध में संसद ठप कर सकती थी। लेकिन आश्चर्य है कि आडवाणी का इस पड़ाव पर अपमान होता रहा और भाजपा खामोश रही।


अपने अपमान से विचलित आडवाणी को अंतत: रथयात्रा की घोषणा करनी पड़ी, लेकिन आडवाणी जी को संन्यास दिलाने पर उतारू उनके शिष्यों को इतने भर से संतोष नहीं हुआ और उन्हें लगा कि उनका गुरु तो बड़ा उस्ताद है और अभी से 2014 के लिए फील्डिंग कर रहा है। सो, शिष्यों ने गुरु को गुरु दक्षिणा देने के स्थान पर दांव देना शुरू कर दिया और नरेंद्र मोदी जो कभी आडवाणी की एक झलक पाने के लिए धूप, बारिश और ठंड में घंटों खड़े हुए इंतजार करते रहते होंगे, उन्होंने उपवास की घोषणा कर दी और जो थोड़ा-सा माहौल आडवाणी ने बनाया था, उस पर पानी फेर दिया। अब यह आडवाणी की मजबूरी नहीं तो और क्या है कि जिन मोदी के लिए कभी अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि उन्होंने (मोदी ने) राजधर्म का पालन नहीं किया, उन्हीं मोदी की चिरौरी करते हुए आडवाणी को कहना पड़ा कि मोदी ने अच्छा प्रशासन दिया है। लगता है आडवाणी जी अंदरूनी लड़ाई में नरेंद्र मोदी के सामने कमजोर पड़ने लगे हैं।


वैसे भी हिंदू कट्टरवाद के लिए मोदी की रेटिंग आडवाणी से ऊपर चल रही है। ऐसे में अगर मोदी के मन में लड्डू फूटने लगे हैं तो आडवाणी का नाम खुद-ब-खुद वेटिंग लिस्ट में और पीछे चला गया है। वैसे भी इस बार तो संघ ने भी आडवाणी का नाम वेटिंग लिस्ट से काटा हुआ है और भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी तो साफ कह चुके हैं कि आडवाणी जी अब भाजपा के पीएम इन वेटिंग नहीं हैं। अब तो 2014 के लिए संघी भाई राहुल बनाम मोदी चिल्लाने लगे हैं। ऐसे में आडवाणी की धड़कनें बढ़ना लाजिमी हैं। वैसे इस समूचे दौर में आडवाणी के साथ संवेदनशील लोगों की हमदर्दी होनी चाहिए। अंदरूनी तौर पर भाजपा में आज सबसे ज्यादा संकटग्रस्त व्यक्ति आडवाणी ही हैं। लोगों को याद होगा, जब 1984 के लोकसभा चुनाव में भाजपा दो के आंकड़े पर सिमट गई थी, तब आरएसएस के चहेते और निष्ठावान संघ कार्यकर्ता लालकृष्ण आडवाणी को भाजपा की कमान बहुत ही हताशा और निराशा के माहौल में सौंपी गई थी। यह वह दौर था, जब अपनी स्थापना के शुरुआती दौर में ही उसका गणित गड़बड़ाने लगा था।


अटल बिहारी वाजपेयी निश्चित रूप से उस समय भी भाजपा के बड़े नेता और स्टार प्रचारक थे, लेकिन जब कमान आडवाणी के हाथ आई तो उन्होंने कट्टर हिंदुत्व की राह पकड़ी और राम मंदिर विवाद को हवा दी। संक्षेप में इतना ही कि भाजपा को दो के स्कोर से सत्ता तक पहुंचाने में जिस एक व्यक्ति का सर्वाधिक योगदान है, वह शख्स लाल कृष्ण आडवाणी ही हैं। लेकिन किस्मत का खेल देखिए कि जब आडवाणी की मेहनत का फल मिलने का अवसर आया तो उन्हें पीछे धकेल दिया गया और लड्डू खाए वाजपेयी ने। बार-बार आडवाणी की यही पीड़ा उनकी हरकतों में झलक पड़ती है। यही नहीं, अब तो उनके शिष्य उन्हें बुढ़ापे में सम्मान भी देने को राजी नहीं हैं। आडवाणी को 2014 से पहले ही विदा करने के लिए मोदी तो मोदी, उनके शिष्यों ने रमन सिंह और शिवराज सिंह के नाम भी वेटिंग लिस्ट में उछाल दिए हैं।


लेखक उमलेंदु उपाध्याय स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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