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सहयोग से समाधान

जागरण मेहमान कोना
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Harsh Pantअफगानिस्तान में शांति व स्थिरता के लिए क्षेत्रीय शक्तियों में परस्पर सहयोग की आवश्यकता बता रहे हैं हर्ष वी. पंत


तमाम प्रमुख क्षेत्रीय खिलाड़ी और वैश्विक शक्तियां 2014 तक पश्चिमी सैन्य बल की अफगानिस्तान से विदाई के बाद के हालात का जायजा ले रही है। हाल ही में इस्तानबुल में 12 क्षेत्रीय राष्ट्र और अफगानिस्तान अफगानिस्तान और पड़ोसी देशों में सुरक्षा और स्थिरता कायम रखने के उपायों पर मंथन करने के लिए जमा हुए। यह इस माह के अंत में बॉन में होने वाली बैठक में अफगानिस्तान पर व्यापक अंतरराष्ट्रीय जमावड़े का पूर्वाभ्यास है। इसके बाद अगले साल शिकागो में नाटो का शिखर सम्मेलन होने जा रहा है, जहां अफगानिस्तान की जमीनी सच्चाइयों और राजनीतिक प्रगति का जायजा लिया जाएगा।


इस्तानबुल सम्मेलन में घोषणा की गई कि जिन क्षेत्रीय तनावों से अफगानिस्तान दशकों से त्रस्त है, उन्हे खत्म करने का एकमात्र कारगर विकल्प क्षेत्रीय सहयोग है। सम्मेलन में मौजूद विभिन्न दक्षिणी और केंद्रीय एशियाई देशों ने सुझाव दिया है कि अफगानिस्तान को प्रभावित करने वाली प्रमुख समस्याओं-आतंकवाद, नशीले पदार्थो की तस्करी और भ्रष्टाचार से निपटने के लिए सहयोग की आवश्यकता है। उन्होंने इस्तानबुल प्रोटोकोल को अंगीकृत किया जिसके अनुसार चीन, भारत, ईरान, कजाकिस्तान, पाकिस्तान और रूस जैसे देशों को आतंकवाद, नशीले पदार्थो की तस्करी और बगावत से अफगानिस्तान और उससे लगे हुए देशों को बचाने के लिए परस्पर सहयोग के मार्ग पर चलना होगा। इस परिप्रेक्ष्य में, परंपरागत रूप से विरोधी देशों ने भी संकल्प लिया कि वे अफगानिस्तान में बागी समूहों से मेलमिलाप के लिए काम करेंगे और अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण और स्थिरता के लिए संयुक्त सुरक्षा व आर्थिक पहल की शुरुआत करेगे।


इस्तानबुल प्रोटोकोल को प्रमुख क्षेत्रीय मसले का हल निकालने के लिए एक क्षेत्रीय प्रयास के रूप में देखा जा सकता है। कुछ क्षेत्रीय देशों की यह एकजुटता सही दिशा में बढ़ाया गया कदम है। किंतु इस्तानबुल में जो लक्ष्य निर्धारित किया गया है, उसे क्रियान्वित करने के दौरान आने वाली व्यावहारिक कठिनाइयों का समाधान निकालना कोई आसान काम नहीं है। सम्मेलन में तो तमाम देश एक सुर में बोले किंतु इन देशों में आपसी मतभेद इतने गहरे है कि इसके उद्देश्यों को पटरी से उतार सकते है।


यद्यपि घोषणापत्र में अमेरिका का कोई जिक्र नहीं किया गया, फिर भी अफगानिस्तान के भविष्य में अमेरिका की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है। अमेरिका इस सम्मेलन में प्रमुख भागीदार के रूप में तो शामिल नहीं हुआ, किंतु वह सम्मेलन में उपस्थित जरूर रहा। अमेरिका की उपस्थिति जरूरी भी थी। आखिरकार, यही वह देश है जो अफगानिस्तान में प्रतिमाह 10 अरब डॉलर खर्च कर रहा है और इसके करीब एक लाख सैनिक वहां तैनात है। ओबामा प्रशासन पहले ही 2014 के बाद अफगानिस्तान में सैन्य उपस्थिति से इनकार कर चुका है। अमेरिका ने 2014 के अंत तक अफगानिस्तान से अमेरिकी और नाटो सेनाओं की विदाई के बाद के हालात का पूर्वानुमान लगाते हुए विदाई प्रक्रिया के अंग के तौर पर उच्च स्तरीय बैठकों का दौर शुरू कर दिया है। अफगानिस्तान में स्थिरता व शांति के लिए अमेरिका क्षेत्रीय शक्तियों काफी निर्भर कर रहा है। अफगानिस्तान और पाकिस्तान के लिए अमेरिका के विशेष प्रतिनिधि मार्क ग्रोसमैन ने हाल ही में भारत और चीन का दौरा किया। वह आकलन करना चाहते है कि अफगानिस्तान में दीर्घकालीन शांति कायम करने में ये दोनों देश क्या भूमिका निभा सकते है।


इस बीच, तुर्की ने अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच मतभेदों को खत्म करने में मध्यस्थ की भूमिका निभाने की पेशकश की है। इसके बाद हामिद करजई और आसिफ अली जरदारी ने पिछले माह बुरहनुद्दीन रब्बानी की हत्या की संयुक्त जांच की घोषणा कर दी। रब्बानी अफगानिस्तान की हाई पीस काउंसिल के अध्यक्ष होने के नाते तालिबान के साथ वार्ता कर रहे थे। रब्बानी की मौत हालिया महीनों में पाकिस्तान आधारित अफगान बागियों द्वारा अफगान व अमेरिकी नागरिकों पर किए जाने वाले हमलों की श्रृंखला की एक कड़ी है। देखना यह है कि इस कदम से इस्लामाबाद और काबुल के बीच संबंध सामान्य हो पाते है या नहीं।


सम्मेलन में भारत का भाग लेना महत्वपूर्ण रहा। पिछले वर्ष पाकिस्तान के कहने पर भारत को इस्तानबुल सम्मेलन से बाहर रखा गया था। अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता कायम करने के प्रयासों में भारत की अहम भूमिका है। हालिया भारत-अफगान सामरिक साझेदारी समझौता दिल्ली-काबुल संबंधों में सकारात्मकता सुनिश्चित करने की वचनबद्धता को रेखांकित करता है। यह रिपोर्ट परेशान करने वाली है कि ओबामा प्रशासन उसी कुख्यात आइएसआइ पर भरोसा जता रहा है, जिस पर कुछ समय पहले ही उसने हक्कानी नेटवर्क को समर्थन देने का आरोप लगाया था। यह नेटवर्क अनेक पाश्चात्य और भारतीय ठिकानों पर आतंकी हमलों का जिम्मेदार है। अमेरिका आइएसआइ की सहायता अफगान युद्ध के अंत के लिए जरूरी शांति वार्ताओं के लिए ले रहा है। जबकि आइएसआइ की हक्कानी नेटवर्क को बातचीत की मेज तक लाने में कतई दिलचस्पी नहीं है। वह अमेरिका की विदाई के बाद अफगानिस्तान में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए इनका इस्तेमाल करना चाहता है। अन्य क्षेत्रीय खिलाड़ियों की भी अफगानिस्तान के भविष्य में दिलचस्पी है। ईरान अफगानिस्तान में अमेरिका की दीर्घकालीन उपस्थिति का विरोध करता है। रूस चाहता है कि अफगानिस्तान इस्लामिक अस्थिरता का श्चोत न बने जो मध्य एशियाई देशों से होती हुई उसकी सीमाओं में प्रवेश कर सकती है। चीन अफगानिस्तान में अपनी आर्थिक गतिविधियों को तो बढ़ाना चाहता है, किंतु फिलहाल महत्वपूर्ण राजनीतिक निवेश करना नहीं चाहता। वह अफ-पाक में अपने हितों को सुरक्षित रखने में अपने सदाबहार दोस्त पाकिस्तान पर भी भरोसा कर सकता है।


अफगानिस्तान की गुत्थी उलझी हुई है। यह अपने पड़ोसी देशों के साथ संबंध इसलिए संबंध सुधारना चाहता है ताकि उसे आर्थिक लाभ मिल सके और क्षेत्रीय सुरक्षा पर खतरा उत्पन्न न हो। लेकिन इस तरह की अंतरक्रियाओं से पड़ोसी देशों के लिए क्षेत्रीय शत्रुता का नया अखाड़ा भी खुल सकता है। जब तक अफगानिस्तान के पड़ोसी देश इसे क्षेत्रीय शत्रुता के चश्मे से देखते रहेगे और वहां प्रभाव बढ़ाने की जुगत में रहेगे, तब तक वहां शांति और स्थिरता कायम नहीं हो पाएगी। भारत को सुनिश्चित करना होगा कि अतीत की तरह वह मौका न चूक जाए। इस क्षेत्र में नई वास्तविकताएं उभर रही है।


लेखक हर्ष वी. पंत किंग्स कॉलेज, लंदन में प्राध्यापक हैं


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