Menu
blogid : 5736 postid : 2746

किसानों की त्रासदी

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
  • 1877 Posts
  • 341 Comments

Devinder Sharmaकिसानों के संकट के समाधान के लिए कोई ठोस प्रयास न होने पर निराशा जता रहे हैं देविंदर शर्मा


टाइम बम बस फटने ही वाला है। पिछले 15 वर्षो के दौरान कृषि में लगे परिवार बर्बाद हो गए, अनगिनत महिलाएं विधवा हो गईं, गांव के गांव निराशा में डूब हो गए। इतना होने पर भी राजनीतिक सत्ता कारगर कदम उठाने को तैयार नहीं है। देश के गांवों में मौत का तांडव चल रहा है, किंतु नई दिल्ली में सरकार को जैसे इससे कोई मतलब ही नहीं है। खेती मौत की फसल में बदल चुकी है। 1995 से 2010 के बीच के 15 साल के अंतराल में ढाई लाख से अधिक किसान कर्ज की अदायगी में विफलता के बाद होने वाले अपमान से बचने के लिए मौत को गले लगा चुके है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार केवल 2010 में ही 15,964 किसान आत्महत्या कर चुके है। पिछले 30 दिनों के भीतर ही 90 किसान आंध्र प्रदेश में जान गंवा बैठे है। इसके अलावा, विदर्भ में तो सात दिनो में ही 17 किसान मौत के गाल में समा गए। नवंबर में केरल में चार किसानों ने कीटनाशक पी लिया और पंजाब में इसी माह दो किसानों ने खुदकुशी कर ली।


विडंबना यह है कि यह वह समय था जब नीति निर्माता और मीडिया कर्ज में दबी किंगफिशर एयरलाइंस को बेलआउट पैकेज देने पर बहस कर रहे थे। शराब उद्योगपति विजय माल्या की यह एयरलाइन गंभीर संकट में फंसी है और प्रधानमंत्री मालदीव में सार्क सम्मेलन से लौटते हुए इस संकटग्रस्त एयरलाइन को बचाने का वायदा करते है। 2010 में जिन 15,964 किसानों ने आत्महत्या की है वे भी दो कर्ज में दबे थे। साल दर साल हजारों किसान बढ़ते कर्ज का बोझ वहन नहीं कर पाते और खुद को मार डालते है। चाहे यह फसल की विफलता हो, लागत में वृद्धि, बिचौलियों के हाथों शोषण हो, सबकी कहानी समान है। किसानों की आत्महत्या के बढ़ते आंकड़ों के अलावा, बहुत बड़ी संख्या में किसान अपने शरीर के अंगों को बेच रहे है। छोटे और सीमांत किसान कृषि से पलायन कर भूमिहीन मजदूर के रूप में काम कर रहे है। भारतीय कृषि भयावह संकट से गुजर रही है, किंतु इस पर कोई भी जरा भी ध्यान नहीं दे रहा है।


कृषि की भयावह त्रासदी पर कभी गंभीर प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिली, सिवाय इसके कि एक और कमेटी की औपचारिकता पूरी कर दी जाती है। उदाहरण के लिए केरल में मुख्यमंत्री ओमेन चांडी ने बड़ी तत्परता से अतिरिक्त मुख्य सचिव सी जयकुमार के नेतृत्व में एक उच्च स्तरीय जांच कमेटी का गठन कर दिया। वास्तव में, पिछले 15 सालों में इतनी कमेटियां बन चुकी है कि मैं उनकी गिनती भूल गया हूं। विदर्भ में इस दौरान 20 कमेटियां अपनी रिपोर्ट पेश कर चुकी है और फिर भी मौत का आंकड़ा लगातार बढ़ता ही जा रहा है। बुंदेलखंड भी अकादमिक अध्ययनों और रिपोर्टो का विषय बना हुआ है। किसानों की खुदकुशी राजनीति का अखाड़ा भी बन चुकी हैं। कुछ माह पहले आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू हैदराबाद में बेमियादी भूख हड़ताल पर बैठे थे। यह देखकर कांग्रेस वाईएसआर के सांसद जगनमोहन रेड्डी ने भी 48 घंटे की भूख हड़ताल की। दोनों नेताओं ने ऐसे किसानों का क्षतिपूर्ति पैकेज बढ़ाने की मांग की जो प्राकृतिक आपदा के कारण अपनी फसल गंवा चुके है। बढ़ा हुआ क्षतिपूर्ति पैकेज मिलना तो दूर, पश्चिम और पूर्व गोदावरी जिलों में तो हालात इतने खराब हो चुके है कि इस साल किसान फसल अवकाश पर चले गए है। उन्होंने धान की फसल बोने से इंकार कर दिया है, क्योंकि पिछले सीजन की उपज सरकार ने अब तक नहीं खरीदी है। उत्तार प्रदेश, बिहार, झारखंड, उड़ीसा और मध्य प्रदेश में भी किसानों के धान के खरीददार ही नहीं है। पंजाब के किसानों ने भी धमकी दी है कि अगर न्यूनतम समर्थन मूल्य में पर्याप्त वृद्धि नहीं की गई तो वे अगले साल फसल अवकाश पर चले जाएंगे।


केवल राजनेताओं को ही दोष क्यों दें, हर विनाश बाजार के अवांछित रसायनों और प्रौद्योगिकी व्यापार की उर्वर भूमि होता है। कई सालों से जैव प्रौद्योगिकी बीज कंपनियां आनुवांशिक संवर्धित कपास बीज को प्रोत्साहित कर रही है। वे इन बीजों को घटती फसल उत्पादकता का जवाब बता रही है और दावा कर रही है कि इनसे किसानों की आय बढ़ जाएगी। सरकार के समर्थन से आक्रामक मार्केटिंग अभियान के कारण देश के कपास उत्पादन का 90 फीसदी बीटी कॉटन से हो रहा है। फिर भी कोई सवाल नहीं कर रहा है कि विदर्भ और आंध्र प्रदेश के जिन किसानों ने पिछले एक माह के दौरान खुदकुशी की है, वे कपास उत्पादक ही थे। कृषि के संकट का समाधान प्रौद्योगिकी नहीं है। अगर प्रौद्योगिकी इसका जवाब होता तो फिर आत्महत्या करने वाले किसानों में से 70 फीसदी कपास उत्पादक नहीं होते। प्रमुख कृषि वैज्ञानिक महंगे उपकरणों और रसायनों से आगे सोच ही नहीं पाते। नियमित अंतराल पर नए-नए उपकरण पेश किए जा रहे है। यहां तक कि विश्व बैंक समर्थित ‘संवर्धित कृषि’ भी भारी-भरकम कृषि उपकरणों पर आधारित है। अब किसानों को लेजर लैंड लेवलर, प्लांटर्स, टर्बो सीडर, रोटेरी डिस्क ड्रिल जैसे महंगे उपकरण खरीदने को कहा जा रहा है। इस प्रकार के तमाम नए उपकरण किसानों की लागत बढ़ा रहे है। परिणामस्वरूप किसान कर्ज के दलदल में धंस रहे है और कृषि उपकरण कंपनियों का मुनाफा बढ़ता जा रहा है। ट्रैक्टरों का मामला लें। कभी संपन्नता का प्रतीक ट्रैक्टर अब आत्महत्या का संकेतक बन गया है। ट्रैक्टर रखने वाले हर दूसरे किसान पर कर्ज का बोझ बढ़ गया है। पंजाब एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन के अनुसार, पंजाब के 89 फीसदी किसान कर्ज में डूबे है। प्रति कृषि परिवार पर पौने दो लाख रुपये से भी अधिक कर्ज है। दूसरे शब्दों में प्रति हेक्टेयर भूमि पर 50,140 रुपये का कर्ज है। पिछले कुछ वर्षो में किसानों पर कर्ज के बोझ में बढ़ोतरी हुई है। इसके बावजूद नीति निर्माता, अर्थशास्त्री और वैज्ञानिक ऐसा कृषि मॉडल तैयार करने में विफल रहे है जो इस कर्ज के दुष्चक्र को खत्म कर सके।


मुझे चारो तरफ से घिरे हुए कृषक समुदाय के लिए राहत की कोई किरण नजर नहीं आती। कारण सीधा है। किसान शक्तिशाली लॉबी के रूप में नहीं उभर पाए है। यह इस उदाहरण से समझा जा सकता है-विदर्भ में हजारों किसान आत्महत्या कर रहे है, जबकि उसी क्षेत्र के गन्ना किसानों ने पांच दिन की भूख हड़ताल कर गन्ने के दामों में वृद्धि करा ली है। उत्तार प्रदेश में भी गन्ना किसानों ने आंदोलन छेड़ा?था और सरकार ने उन्हें उपकृत कर दिया था। शेष कृषक समुदाय को भी समझना चाहिए कि लोकतंत्र में केवल जनता का दबाव ही काम करता है।


लेखक देविंदर शर्मा कृषि नीतियों के विश्लेषक हैं


Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh