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क्यों नहीं चला राहुल का जादू

जागरण मेहमान कोना
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राहुल गांधी को उनके प्रयासों के अनुरूप राजनीतिक लाभांश न मिलने के कारणों का विश्लेषण कर रहे हैं ए. सूर्यप्रकाश


राहुल गांधी के राष्ट्रीय राजनीति में औपचारिक प्रवेश को सात साल बीत गए हैं। 2004 में अमेठी से लोकसभा का चुनाव जीतकर उन्होंने ठसके से राजनीतिक यात्रा का पहला कदम रखा था। तीन साल बाद जब उन्हे पार्टी का महासचिव नियुक्त किया गया, वह कांग्रेस के हाई कमांड बन गए। इन वर्षो में राहुल गांधी राजनीति में अपना स्थान तलाशने में लगे रहे किंतु उन्हे सीमित सफलता ही मिल पाई। अपने पिता राजीव गांधी के विपरीत, जिन्हे राजनीति में पदार्पण के समय मिस्टर क्लीन कहा जाता था, राहुल गांधी अपनी छाप नहीं छोड़ पा रहे है। यद्यपि राहुल गांधी नियमित रूप से रोड शो और राजनीतिक यात्राएं करते रहे है, किंतु उन्हे उतना राजनीतिक लाभांश नहीं मिला, जितनी वह मेहनत कर रहे है।


राहुल गांधी का जादू न चलने के बहुत से कारण है। उदाहरण के लिए, वर्तमान राजनीतिक वातावरण कांग्रेस पार्टी के लिए बेहद प्रतिकूल है और इस वजह से राहुल की सफलता की संभावनाएं कम हो रही हैं। किंतु बाहरी वातावरण के अलावा, जिसके लिए वह जिम्मेदार नहीं है, राहुल गांधी के व्यक्तित्व का भी सीमित सफलता में योगदान है। इसी तरह दो और कारक राहुल की सफलता में बाधक बने हुए है- दृढ़ निश्चय और साहस की कमी।


हम राहुल गांधी के पिछले सात साल के आचरण पर नजर डालकर यह देख सकते है कि वह दृढ़ निश्चय, गंभीरता और साहस जैसे गुणों पर कितने खरे उतरते है। ये गुण ही राजनेताओं को लोगों के दिलों में उतारते है। कुछ साल पहले राहुल गांधी ने यह घोषणा करके संजीदगी और सच्चाई के साथ खिलवाड़ किया था कि अगर 1992 में उनके परिवार का कोई सदस्य प्रधानमंत्री होता तो अयोध्या में विवादित ढांचा ध्वस्त न होता। गौरतलब है कि राहुल गांधी के पिता राजीव गांधी के कार्यकाल में ही राम जन्मभूमि के कपाट खुले थे। वह भी उनके पिता ही थे, जिन्होंने नवंबर 1989 में लोकसभा चुनाव से ठीक पहले गृहमंत्री बूटा सिंह को अयोध्या में राममंदिर के शिलान्यास में भाग लेने भेजा था। हिंदुओं को खुश करने के लिए यह सब करने के बाद राहुल गांधी हमें विश्वास दिलाना चाहते है कि अगर 1992 में राजीव गांधी प्रधानमंत्री होते तो विवादित ढांचा ध्वस्त नहीं होता।


इसके बाद, पिछले साल से मनमोहन सरकार पर लग रहे भ्रष्टाचार के आरोपों के संदर्भ में राहुल की प्रतिक्रिया या कहे कि उनकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया न आना, उनकी गंभीरता और साहस पर सवाल उठाता है। अगस्त 2010 में राष्ट्रमंडल घोटाला उजागर हुआ, इसके पश्चात आदर्श सोसायटी, 2जी स्पेक्ट्रम आदि घोटालों की झड़ी लग गई। लाखो करोड़ों के घोटालों को देखकर जनता दंग रह गई कि जनसेवक किस तरह देश को लूटकर अपना खजाना भर रहे है। अन्ना हजारे के आंदोलन में जनता का गुस्सा प्रतिध्वनित हुआ।


जब यह सब चल रहा था, तब हमारे युवा आइकन और कांग्रेस पार्टी के उत्तराधिकारी राजनीतिक परिदृश्य से गायब हो गए। राहुल गांधी को लगा होगा कि अगर वह भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलते है तो यह उनकी सरकार के विरुद्ध जाएगा और इससे संप्रग के द्रमुक जैसे सहयोगी भी नाराज हो सकते है। इसके अलावा उन्हे यह भी लगता होगा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलने पर बोफोर्स आदि मुद्दों पर असहज करने वाले सवाल उठ सकते है। अगर राहुल गांधी साफ प्रशासन देने की इच्छा रखते तो उन्हे इन घोटालों के खिलाफ बोलने का साहस दिखाना चाहिए था। जाहिर है, शुरू में इससे प्रधानमंत्री और गठबंधन को परेशानी जरूर होती, लेकिन इसके कारण वह भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के सबसे बड़े नेता और यूथ आइकन बन जाते। अंतत: इसका लाभ कांग्रेस को मिलता। लेकिन साहस और विश्वास के अभाव के कारण उन्होंने यह मौका गंवा दिया। अब भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के बॉस अन्ना हजारे बन चुके है।


संजीदगी और साहस के अभाव के साथ-साथ जब कभी उनका भाषण या बयान लिखित नहीं होता, वह कुछ न कुछ गड़बड़ कर बैठते है। हाल ही में उन्होंने दिल्ली में युवक कांग्रेस सम्मेलन में दावा किया कि सबसे अधिक भ्रष्टाचार हमारे राजनीतिक ढांचे में है। इससे उनका क्या अभिप्राय है? इस राजनीतिक ढांचे को बदलने की उनके पास क्या योजना है? क्या यह अनर्गल प्रलाप नहीं है?


इस तरह का बचकानापन बार-बार सामने आता है। कुछ साल पहले उन्होंने एक पत्रकार से कहा कि वह 25 साल का होते ही प्रधानमंत्री बन सकते थे, किंतु इसलिए नहीं बने क्योंकि वह अपने वरिष्ठजनों पर हुक्म चलाना नहीं चाहते थे। हाल ही में एक बार फिर लिखित बयान के अभाव में उन्होंने खुद को मुश्किल में डाल लिया। फूलपुर में उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश के लोग कब तक महाराष्ट्र में जाकर भीख मांगते रहेगे। इसी प्रकार लोकपाल के मुद्दे पर पहले से तैयार रिपोर्ट पढ़ने के बाद जब वह संसद से बाहर निकले तो मीडिया से कह बैठे कि उन्होंने पूरा खेल पलट दिया। क्या खुद अपने बारे में ऐसे दावे करना विचित्र नहीं है? इसके अलावा राहुल गांधी के मन में संसद के प्रति आदर का भाव भी नहीं है। यद्यपि वह युवा सांसद है फिर भी जैसे उन्हे लगता है कि वह संसद से भी ऊपर है। इस संस्थान के प्रति राहुल गांधी का अनादर इससे झलकता है कि उन्होंने उत्तर प्रदेश की पांच दिन की यात्रा 22 नवंबर से शुरू की, जिस दिन शीतकालीन सत्र शुरू हुआ था।


अंतत: चापलूसी के बारे में भी कुछ शब्द। इसमें कोई दो राय नहीं कि 1998 में सोनिया गांधी द्वारा कांग्रेस की कमान संभालने के बाद से पार्टी में चापलूसी की परंपरा कमजोर पड़ी है। सातवें दशक में जब इंदिरा गांधी की तूती बोलती थी, कांग्रेस में चापलूसी चरम पर थी। कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने तो घोषणा ही कर दी थी, ‘इंदिरा भारत है और भारत इंदिरा।’ अब समय बदल चुका है, तो भी कांग्रेस में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो नेहरू-गांधी परिवार की चापलूसी में कोई कसर छोड़ते हों। हालिया युवक कांग्रेस सम्मेलन में कांग्रेस वर्किग कमेटी के एक सदस्य ने राहुल गांधी को महानतम युवक आंदोलन चलाने पर महिमामंडित किया। उनका कहना था कि इस तरह का आंदोलन तो कभी चीन और रूस तक में देखने को नहीं मिला। यह उम्मीद ही की जा सकती है कि इस तरह की तारीफ के बाद भी राहुल गांधी के पैर दृढ़ता से जमीन पर जमे रहे और वह हवा में न उड़ने लगें। इससे तो उनकी राजनीतिक शक्ति और कम ही होगी।


लेखक ए. सूर्यप्रकाश संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं


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