- 1877 Posts
- 341 Comments
एड्स जैसी लाइलाज बीमारी से लड़ते हुए दुनिया को करीब 30 साल हो चुके हैं, पर अब भी इस पर काबू नहीं पाया जा सका है। इस बीमारी से लड़ने के लिए हर साल चलने वाले जागरूकता अभियान के बावजूद इस जानलेवा बीमारी से ग्रस्त होने वाले नए मरीजों की बढ़ती संख्या चिंताजनक है। भारत भी इस मामले में दुनिया के दूसरे देशों से कुछ अलग नहीं है। आज जब हमें शून्य संक्रमण और शून्य एड्स मौतों की जरूरत है तो इस तरह के आंकड़े हमारे लिए चिंता का विषय होना स्वाभाविक है। सिर्फ भारत ही नहीं, पूरा विश्व एड्स रोग से मुक्त के लिए प्रयासरत है। इस लक्ष्य को पाने के लिए वर्ष 2015 को लक्ष्य के तौर पर निर्धारित किया गया है। विश्व स्तर पर एचआइवी उन्मूलन अभियान अपने उच्चतम स्तर पर है, जहां एचआइवी से जुड़ी चुनौतियां अपने भीषण स्वरूप में हैं और इसके उन्मूलन के उपाय बेहद सीमित दिख रहे हैं। आज शून्य नए एचआइवी रोगी और शून्य भेदभाव जैसे अभियान समान रूप से इस बीमारी से ग्रस्त लोगों पर प्रभाव डाल रहे हैं। इसका असर पूरी दुनिया में चलाए जा रहे अभियान पर भी सकारात्मक पड़ रहा है। इस लक्ष्य को पाने के लिए पूरी दुनिया में फैले 100 से अधिक संस्थाओं, स्वास्थ्य सेवकों, विकसित सिविल सोसाइटी और कई अन्य लोगों के साथ व इस बीमारी से लड़ रहे लोगों का सहारा लेना पड़ा। अभी इस क्षेत्र में और भी कई काम किए जा रहे हैं।
दक्षिण अफ्रीका और भारत की पहचान एचआइवी वर्ल्ड के तौर पर होती है। पूरी दुनिया में इस समय 3.52 करोड़ लोग एचआइवी से ग्रस्त हैं। इनमें 25 लाख बच्चे शामिल हैं और अकेले वर्ष 2007 में ही 25 लाख नए व्यक्ति इस बीमारी की चपेट में आए, जिनमें 4 लाख 20 हजार तो बच्चे ही थे। भारत में घातक होता ग्राफ भारत की आबादी एक अरब से ऊपर है और इसकी आधी आबादी वयस्क है। स्वाभाविक रूप से यह सेक्सुअली रूप से काफी सक्रिय होते हैं। भारत में इस बीमारी का फैलाव कभी भी एक जैसा नहीं रहा है। हालांकि भारत में इस बीमारी से ग्रसित होने वाले लोगों का औसत बहुत ही कम है। भारत में कुछ स्थान ऐसे हैं जो इससे बेहद प्रभावित हैं तो कुछ स्थान बहुत कम प्रभावित हैं। एचआइवी से पीडि़त होने वालों में दक्षिण भारत और उत्तर पूर्व के राज्य सबसे आगे हैं। एचआइवी से सर्वाधिक पीडि़त लोगों में महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और कर्नाटक जैसे दक्षिणी राज्य हैं तो उत्तर पूर्व में मणिपुर और नागालैंड जैसे राज्य हैं। एक आकलन के अनुसार पूरे देश में करीब 23 लाख भारतीय एचआइवी से ग्रस्त हैं। पूरी दुनिया में दक्षिण अफ्रीका और दक्षिण पूर्व एशिया के देश सबसे अधिक पीडि़त हैं।
वर्ष 2007 में हुए सर्वेक्षण में पता चला कि इस महाद्वीप की कुल आबादी की 18 प्रतिशत जनता एड्स रोग से ग्रस्त थी। इसी सर्वेक्षण में यह भी पता चला कि इस दौरान तीन लाख लोगों की मौत एड्स से हुई। अफ्रीकी देश बोत्सवाना में तो सभी मनुष्यों की औसत आयु 65 साल से घटकर 35 साल नीचे तक गिर गई है। आज हमें शून्य नए एचआइवी मरीज के लक्ष्य की जरूरत है। क्या हम इसे सच्चाई में बदल सकते हैं? यही वह सवाल है, जिसे आज हर कोई अपने जवाब के रूप में पूछ रहा है। अफ्रीकी देशों की तुलना में आज भले ही भारत में इस महामारी का ज्यादा फैलाव नहीं है, लेकिन यह तो स्पष्ट ही है कि एचआइवी और एड्स जैसी बीमारियां आने वाले समय में लाखों भारतीयों पर अपना घातक असर डालने वाली हैं। अब यह बेहद जरूरी है कि इस महामारी की रोकथाम के लिए हम कोई ठोस उपाय अपनाएं। भारत जैसे देश में एचआइवी और एड्स जैसी बीमारी की रोकथाम और उससे बचने के उपायों को लागू करना बहुत मुश्किल काम है, क्योंकि इस विशाल देश में दर्जनों मुख्य भाषाएं और उपभाषाएं हैं। इस कारण राष्ट्रीय स्तर पर अभियान चलाए जाने की आवश्यकता है। हालांकि इस बारे में असली काम तो राज्य सरकारों को ही करना होगा। वैसे देश के हर राज्य में अपना एड्स प्रिवेंशन एंड कंट्रोल सोसाइटी नामक संस्था मौजूद है, जो नाको के मार्गदर्शन में काम करती है।
विकसित देशों की तुलना में भारत में वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं, शोध संस्थानों, यंत्रों और मेडिकल विशेषज्ञों की भारी कमी है। इस वजह से इस महामारी से लड़ने में बहुत दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। हमारे देश में इस बीमारी से जितने भी लोग पीडि़त हैं, उनमें से करीब 50 फीसदी लोगों को पता है कि वे इस बीमारी से ग्रस्त हैं। दुर्भाग्य से भारतीय अस्पतालों में इन लोगों की सहमति या जानकारी के बिना उनकी एचआइवी जांच करना आम बात है। यह एक सच्चाई है कि पूरे देश में 95 फीसदी सर्जिकल ऑपरेशनों से पूर्व मरीजों को बिना बताए ही उनके खून की जांच कर ली जाती है और इनमें जो इस एड्स से या एचआइवी से पीडि़त पाए जाते हैं, उनके आपरेशन रद कर दिए जाते हैं। वास्तविकता यही है कि एड्स कोई रोग नहीं है, बल्कि जब किसी व्यक्ति की प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है तो वह एड्स में परिवर्तित हो जाती है। एचआइवी रोगी को अधिक समय तक बचाए रखने के लिए एआरवी यानी एंटी-रेट्रोवायरल ड्रग्स दवाएं दी जाती हैं। विकसित देशों में यह दवा 1996 से ही उपलब्ध है, लेकिन दुर्भाग्य से एचआइवी से ग्रस्त मरीजों की संख्या में वृद्धि होने से इन दवाओं की मांग बढ़ रही है और आपूर्ति अपर्याप्त है। एआरवी दवा का असर जब किसी रोगी पर कम होने लगता है तो उस मरीज को इसके दूसरे चरण की दवा दी जाती है। पर दुनिया के दूसरे देशों की तुलना में भारत में यह काफी महंगी है। हालांकि एआरवी के निर्माण में काम आने वाली जेनेरिक कॉपीज की सस्ती आपूर्ति पूरी दुनियां में भारत से ही होती है। भारत के मरीजों तक इस दवा को पहुंचाने के लिए जो बाधाएं आती हैं, उसमें गरीबी मुख्य है।
भारत सरकार एचआइवी मरीजों की जरूरत के हिसाब से उनकी समुचित देखभाल की व्यवस्था कर पाने में विफल है। जीने नहीं देता समाज एड्स मरीजों का सामाजिक बहिष्कार, तिरस्कार, छुआछूत और भेदभाव बहुत गंभीर समस्या है। भारत में वैसे भी तमाम तरह के भेदभाव पहले से मौजूद हैं और अब यह भेदभाव स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी प्रवेश कर गया है। आज भी पूरे देश के अस्पतालों में एचआइवी के बारे में जागरूकता की कमी है। इसका असर यह होता है कि लोगों में एचआइवी मरीजों को लेकर भय व्याप्त है। मेडिकल स्टॉफ तक इन मरीजों से खुलकर भेदभाव करते हैं और सहमति के बिना ही उनके खून की जांच करते हैं। इससे सहयोग देने वालों में भी अनावश्यक भय फैलता है और वे मरीजों से सुरक्षित दूरी बनाने की कोशिश करते हैं। यही कारण है कि इस रोग से ग्रस्त होने पर भी कई लोग इस बीमारी के बारे में किसी को नहीं बताते। यहां तक कि जब तक पानी सिर से न गुजर जाए, लोग अपने परिजनों से छुपाते रहते हैं। आज भी लोगों को एचआइवी महामारी के बारे में बहुत कम जानकारी है। इस वजह से भी इनके जीवनसाथी तक इनका त्याग कर देते हैं और अस्पतालों में इनका इलाज करने से मना कर दिया जाता है।
लेखिका उमा श्रीराम स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
Read Comments