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देखा जाए तो अमेरिका का वित्तीय संकट अचानक न आकर सालों से घट रही कई घटनाओं का सामूहिक परिणाम है। विनिर्माण क्षेत्र की तुलना में सेवा क्षेत्र पर बल, मशीनीकरण के कारण रोजगार में कमी, 9/11 हमलों के बाद इराक और अफगानिस्तान में छिड़े युद्ध और अमीरों के करों में कटौती आदि ने अमेरिका के राजकोषीय अधिशेष को घाटे में तब्दील कर दिया। इसके बाद रिकॉर्ड व्यापार घाटे और लेहमन ब्रदर्स के दीवालिया होने की घटना ने अमेरिका के घाटे को चिंताजनक स्तर तक बढ़ा दिया, लेकिन अमेरिका ने घाटा पाटने के उपाय करने के बजाय उसे कर्ज लेकर ढकने की नाकाम कोशिश की। के्रडिट रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड एंड पुअर्स (एसएंडपी) ने जुलाई में ही चेतावनी दे दी थी कि अमेरिका को न केवल कर्ज सीमा बढ़ानी होगी, बल्कि अगले एक दशक में खर्च में कम से कम 40 खरब डॉलर की कमी लाने की एक योजना पेश करनी होगी, लेकिन इस मसले पर डेमोक्रेट और रिपब्लिकन पार्टियों के बीच चली लंबी बहस ने अमेरिका की आर्थिक प्रतिष्ठा को धूमिल कर दिया। इसी को देखते हुए एसएंडपी ने अमेरिका की क्रेडिट रेटिंग घटाकर एक पायदान नीचे कर दी।
अमेरिका को वित्तीय संकट के बाड़े में धकेलने में आतंकवाद के खिलाफ खर्चीले अभियान की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। पिछले एक दशक में दुनिया की इस महाशक्ति ने आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में खरबों डॉलर फूंक दिए हैं। एक तरफ मंदी और दूसरी तरफ युद्धों में बेतहाशा खर्च ने उसकी आर्थिक हालत पतली कर दी। एक अनुमान के मुताबिक अब तक 4.7 खरब डॉलर से भी ज्यादा खर्च हो चुके हैं। इसके साथ ही युद्ध में मारे गए लोगों के इलाज और क्षतिपूर्ति करने का जिम्मेसदारी भी सरकार के सामने है, जिसमें काफी खर्च हो रहा है। इसीलिए अमेरिका इन युद्धग्रस्त क्षेत्रों से निकलना चाह रहा है। लेकिन यहां के हालात अब भी ठीक नहीं हैं। अमेरिका पर हुए आतंकवादी हमले के बाद शुरू हुआ आतंकवाद के खिलाफ युद्ध अब बहुत आगे निकल चुका है। एक ओर जहां अफगानिस्तान में आशांति फैली हुई है, वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तान भी आंतरिक रूप से सुरक्षित नहीं है। अमेरिकी युद्ध के कारण इन देशों में अव्यवस्था फैल गई है। आतंकवाद ने अमेरिका के साथ-साथ दुनिया के कई देशों की आर्थिक सेहत बिगाड़ने में मुख्य भूमिका निभाई है।
अमेरिका के मिल्केन इंस्टीट्यूट के आंकड़े के मुताबिक एक आतंकी हमला किसी देश की जीडीपी वृद्धि दर को 0.57 फीसदी तक घटा देता है। इस कसौटी पर भारत को कसें तो करीब तीन फीसदी विकास को आतंकवाद हर साल चाट जाता है, क्योंकि पिछले पांच वर्ष में हमने करीब 21 बड़े आतंकी हमले झेले हैं। आतंकवाद ने कई भारतीय राज्यों को आर्थिक विकास के मामले में पंगु बना दिया है, जैसे पूर्वोत्तर और जम्मू-कश्मीर। हालांकि पंजाब और असम जैसे राज्य लंबे समय तक आतंकवाद का दंश झेलकर उससे उबर चुके हैं, लेकिन वहां भी आर्थिक विकास की गाड़ी रफ्तार नहीं पकड़ पा रही है। अब तो आतंकवाद ने पूरे देश को इस तरह अपनी गिरफ्त में ले लिया है कि शायद ही कोई ऐसा इलाका हो, जो महफूज हो।
भारत में आतंकवाद को बढ़ावा देने का आरोप जिस पाकिस्तान पर है, वह भी आतंक की आंच में बुरी तरह झुलस रहा है। यहां के स्वात, बुनेर, शांगला, मलाकंद इलाकों को एक-डेढ़ दशक पहले तक दुनिया मीठे आड़ूओं, लजीज खुबानियों और स्वादिष्ट आलूबुखारों के लिए जानती थी, लेकिन अब वहां हर साल औसतन 2,000 आतंकी हमले होते हैं। आतंक का निर्यात होता है। आतंकवाद की वित्तीय मार से घायल दुनिया भर के देश एक-दो हमले के बाद ही अपनी आंतरिक सुरक्षा के प्रति सतर्क हो गए। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के बाद अमेरिका ने 29 अरब डॉलर लगाकर ऑपरेशन नोबल ईगल के जरिए खुद को अभेद्य बना लिया। चीन आंतरिक सुरक्षा पर फौज से ज्यादा खर्च कर रहा है। ताजा बजट के तहत पुलिस पर सालाना 95 अरब डॉलर खर्च होंगे, जबकि सेना पर 91 अरब डॉलर। लेकिन हमारी हालत दुनिया से जुदा है। यहां बजट में हर साल सेना के लिए 2 लाख करोड़ रुपये आवंटित किए जाते हैं तो आंतरिक सुरक्षा के लिए इसका चौथाई भी नहीं। हालांकि 26/11 के बाद हमारी आंखे खुली हैं, लेकिन फिलहाल पूरी सक्रियता फाइलों तक ही सिमटी है।
लेखक रमेश दुबे स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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