Menu
blogid : 5736 postid : 3728

ये लोकतंत्र के दुश्मन हैं

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
  • 1877 Posts
  • 341 Comments

हाल के दिनों में संसद पर जनमानस का दबाव साफ देखा गया। कोई नाटकीय घटना नहींघटी तो बजट सत्र में एक मजबूत लोकपाल पारित हो सकेगा। लोकपाल पर वाद-विवाद और संसद में बिल पारित कराने के दौरान अन्ना हजारे मुंबई में अनशन पर बैठे। जिन्हें लोगों को प्रत्याशित समर्थन नहींमिला। इस झटके ने टीम अन्ना को अंदर झांकने को मजबूर कर दिया। दरअसल, कांग्रेस विरोध को भाजपा के समर्थन के तौर पर पेश किया जाना टीम अन्ना को असहज कर रहा है। उलझनों में भटकी टीम ने जनता से ही राह सुझाने को कहा है। यह सौ फीसदी सही है कि लोकपाल बिल लोकसभा में पारित होना और राज्यसभा में पेश होना टीम अन्ना के अभियान का ही नतीजा है, लेकिन इसके आगे लोकपाल पर जनांदोलन की कोई चरमसीमा नहीं दिखती। अब लोकपाल के भविष्य का फैसला संसद के विवेक पर छोड़ देना ही बेहतर है। यही सही मौका है कि जब पांच राज्यों में चुनाव के दौरान टीम अन्ना सड़ी गली चुनावी व्यवस्था की खामियां जनता के सामने रखे। जिससे चुनाव सुधार पर लोकपाल की तरह राष्ट्रव्यापी बहस छिड़ सके। अगर टीम अन्ना या नागरिक समाज के अन्य संगठनों को लगता है कि संसद सदस्य ईमानदारी से राष्ट्र हितों को तवगाो नहीं दे रहे हैं तो उसका एक ही रास्ता है।


व्यापक चुनाव सुधार के लिए आंदोलन छेड़ा जाए। जिससे ईमानदार, राष्ट्रप्रेमी और बौद्धिक प्रतिभा के धनी शख्स संसद और विधानसभाओं में पहुंच सके। जो संकीर्ण स्वार्थों से ऊपर उठकर काम करें। संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा और प्रतिष्ठा को जो चोट पहुंची है, उसके लिए राजनीतिक दलों की निरंकुशता और मौजूदा चुनावी व्यवस्था ही जिम्मेदार हैं। इन दलों पर अंकुश के साथ संवैधानिक जवाबदेही तय करना जरूरी हो गया है। संसदीय परंपराओं का मखौल एक बार फिर दर्शाता है कि धन-बल के सहारे फल-फूल रही चुनावी व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव की जरूरत है, जो भ्रष्ट राजनीतिक तंत्र का स्रोत है। अब हमें चुनाव सुधार पर निगाह गड़ाने की जरूरत है। खुद मुख्य चुनाव आयुक्त ने चुनाव सुधार की दुंदुभि बजा दी है। उन्होंने चुनाव आयुक्तों को संवैधानिक दर्जा देने की मांग उठाकर इसे हवा दी है। अगर चुनाव सुधार का शुभारंभ चुनाव आयोग को मजबूत करने के साथ हो तो यह सोने पर सुहागा है।


टीम अन्ना और नागरिक समाज के विभिन्न वर्गो से राइट टू रिकॉल और राइट टू रिजेक्ट के हक की मांग उठी है। आम जनता की नजरों में राजनीतिक व्यवस्था को खोखला कर रहे राजनीतिक दलों की साख रसातल पर है। दलीय व्यवस्था बोझ बन गई है। सब भ्रष्ट हैं का जुमला स्पष्ट जनादेश की आवाज पर चोट कर रहा है। सीट जिताने की गारंटी के आगे भ्रष्ट, आपराधिक छवि वाले प्रत्याशी से भी किसी दल को गुरेज नहींहै। पूंजीपति होना टिकट पाने की अनिवार्य शर्त बन गई है। धनिकतंत्र में तब्दील हो चुकी चुनावी व्यवस्था को दलीय लोकतंत्र की ओर कैसे मोड़ा जाए, यह यक्ष प्रश्न हमारे सामने है। राजनीतिक दलों की जवाबदेही के लिए चुनाव आयोग की मजबूती जरूरी है।

राजनीतिक दलों की मान्यता, उसे रद करने, सदस्यों को अयोग्य ठहराने जैसे मामलों में फैसलों के लिए चुनाव आयोग एक ट्रिब्यूनल की तरह काम करे। कुछ विशेष फैसलों को ही सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दिए जाने का प्रावधान हो। राजनीतिक दलों की सदस्यता, उनके संविधान, चंदा लेने के तरीके में भी पारदर्शिता के लिए चुनाव आयोग को नियम बनाने का हक दिया जाए। इसका उल्लंघन करने वालों को दंड देने का हक आयोग को मिले। दलबदल पर मौजूदा कानूनी प्रावधान खोखले साबित हुए हैं। इस पर पूरी तरह पाबंदी लगाना जरूरी है। फिर चाहे जनप्रतिनिधियों का पाला बदलना हो या चुनाव के पहले सीट पाने की होड़ में पार्टियां बदलना। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव से पहले महारथी चूहे-बिल्लियों की तरह दल बदल रहे हैं। विचारधारा, पार्टी इनके लिए मायने नहीं रखती। टिकट हासिल कर विधानसभा या संसद तक पहुंचना ही उनका एकमात्र ध्येय है। जनप्रतिनिधि के पाला बदलने के साथ ही उसका निर्वाचन रद माना जाए। वहीं सीट पाने की होड़ में चुनाव के ठीक पहले दल बदलने वालों पर लगाम कसना भी जरूरी है। लिहाजा, किसी भी मान्यता प्राप्त दल से चुनाव लड़ने के लिए उसकी कम से कम दो साल सदस्यता अनिवार्य की जानी चाहिए। इस तरह की तमाम चीजें हैं, लेकिन जनांदोलन के बिना यह मुमकिन नहीं लगता।


इस आलेख के लेखक अमरीश कुमार त्रिवेदी हैं


Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh