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एक साल पहले जब दिल्ली के रामलीला मैदान में अन्ना अनशन पर थे, उसी दौरान का कोई एक दिन। मैं दिल्ली के हजरत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन पर ट्रेन से उतरा। बाहर कतार में खड़े कई ऑटो वाले सवारियां बिठाने की जुगत में थे। मुझे भी कहीं जाना था। रात के कोई 10 बज रहे थे। मेरी कोशिश थी कि कोई ऐसा ऑटो वाला मिल जाए, जो वाजिब किराये पर मुझे गंतव्य तक पहुंचा दे। बात कई ऑटो वालों से हुई, लेकिन उनके आसमानी किरायों से बात बन नहीं पा रही थी। तभी मेरी नजर एक ऑटो वाले पर पड़ी। सिर पर मैं अन्ना हूं की घोषणा करती गांधी टोपी और हाथ में तिरंगे का रबर बैंड। उस शख्स को देखकर लगा कि मेरी तलाश खत्म हुई। मैं उसके पास पहुंचा और नोएडा जाने की बात की, लेकिन अफसोस कि अन्ना के उस प्रतिरूप से ईमानदारी की उम्मीद बेजां निकली। उसकी बातों ने मुझे फौरन एहसास करा दिया कि देश में दूसरे अन्ना हजारे नहीं। हां, उनका मुखौटा जरूर आ गया है।
सवाल यही है कि क्या आज अन्ना हजारे के साथ खड़े लाखों लोग, जो खुद को अन्ना हजारे का समर्थक बता रहे हैं, उनमें रत्तीभर भी उनका अंश है? हजारे के पास हजारों की भीड़ है, पर क्या इन हजारों में एक भी हजारे है? चलिए, माना कि महज यह एक उदाहरण लाखों लोगों की भावनाओं का सूचक नहीं हो सकता, इस भारी जन-सैलाब की भावनाओं को एक तराजू पर रखना कहीं से न्यायोचित नहीं। लेकिन इस संकेत को भी समझना जरूरी है। बेशक भ्रष्टाचार देश को कीड़े की तरह चाट रहा है और उसे खोखला कर रहा है, लेकिन सबसे गंभीर सवाल यहीं से उपजता है कि क्या अन्ना की जीत जनतंत्र की जीत है या फिर महज भीड़तंत्र की। क्योंकि लोकतंत्र की जड़ें खोदकर टीम अन्ना जिस मसीहा का सृजन करना चाह रही है, वह कितना कारगर होगा, इस पर संशय है। लेकिन इस बात पर कोई संशय नहीं कि अन्ना की विचारधारा को अपने जीवन में उतार लेने से देश का भला तय है।
चाबूक चलाने वाले किसी इंस्पेक्टर का डर भ्रष्टाचारियों को उनके कुकर्मो से कितना रोक पाएगी, यह तो भविष्य के गर्भ में है, लेकिन फिलवक्त यह सवाल मौजू है कि अन्ना हजारे का चोला पहने लोगों में क्या सच में अन्ना का जरा भी अक्स है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भीड़ इंसान का व्यक्तिगत अस्तित्व खा जाती है। इतना तो तय है कि दिल्ली के रामलीला मैदान समेत देश के सभी जगहों पर अन्ना के समर्थन में जुटने वाली भीड़ में शामिल लोगों का व्यक्तिगत अस्तित्व शंका के घेरे में है। तभी तो अन्ना की विचारधारा को अपने जीवन में उतारने के बजाए लोग खुद को अन्ना बताने लगे। वे ऐसा अपने विवेक से नहीं, बल्कि भीड़ की वजह से कर रहे हैं। भीड़ लोगों को अन्ना बना रही है, उनके विवेक को नहीं। नतीजा सामने है, अनशन के दौरान करीब 2200 शराब की बोतलें रामलीला मैदान के बाहर पाई गई थीं।
पुलिस के साथ मारपीट की खबरें, मोबाइल चोरी और जेबतराशी की कई घटनाएं भी अनशन का अहम हिस्सा बनीं। साथ ही यह भी सामने आया कि अनशन के बाद करीब 700 टन कचरा निकला। इन संकेतों को समझना जरूरी है। सवाल यही है कि आखिर यह कैसी अन्नागीरी है। साफ है कि भीड़ ने लोगों को अन्ना बनाया। आलम यह हुआ कि अन्ना के आंदोलन में मौजूद शख्स न तो अन्ना रहा और न वह, जो वह खुद था। बेशक अन्ना की जीत देश की जीत है, लेकिन यह जीत अभी अधूरी है। जरूरत है कि अन्ना हजारे एक ऐसा आंदोलन करें, जिसमें यह जिद हो कि वह तब तक चुप नहीं बैठेंगे, जब तक देश की जनता महज प्रतीकात्मक तौर पर अन्ना होने का दावा न करते हुए, असल में उनके आर्दश और विचारों को अपने जीवन में उतार ले। तब न तो सरकार की सांसे फूलेंगी, न ही संसद की सर्वोच्चता को चुनौती होगी। चुनौती होगी तो बस आदसी के इंसान बनने की, अन्ना हजारे जैसा बनने की।
लेखक राकेश कुमार स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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