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विगत रविवार को दिल्ली स्थित संसद मार्ग पर एक बार फिर देश के विभिन्न प्रांतों के लोग योग गुरु स्वामी रामदेव और गांधीवादी नेता अन्ना हजारे के नेतृत्व में एकत्रित हुए। उन्होंने भ्रष्टाचार मिटाने के लिए सशक्त जनलोकपाल कानून बनाने और विदेशों में जमा काले धन की वापसी की मांग दोहराई। कमरतोड़ महंगाई से त्रस्त आम आदमी सरकार के अडि़यल रवैये से आजिज आ चुका है और अब वह निर्णायक लड़ाई छेड़ने के मूड में है। लोगों को प्रधानमंत्री की ईमानदारी पर भले संदेह नहीं हो, किंतु कोयला घोटाले के बाद स्वाभाविक तौर पर जनता की अपेक्षा यह है कि अब उन्हें राजनीतिक ईमानदारी दिखानी चाहिए और भ्रष्ट मंत्रियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए। जन अपेक्षाओं के विपरीत प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा कोयला घोटाले में आरोप साबित होने पर संन्यास लेने की घोषणा हास्यास्पद नहीं तो और क्या है? केंद्रीय सतर्कता आयोग द्वारा कोयला घोटाले की जांच जहां एक ओर सीबीआइ को सौंप दी गई है वहीं सीबीआइ की मानें तो उसके एजेंडे में किसी राजनीतिज्ञ से पूछताछ करना शामिल नहीं है। तो फिर जांच किस बात की होगी? सन 2006 से 2009 के बीच पहले आओ, पहले पाओ की नीति पर निजी कंपनियों और सार्वजनिक उपक्रमों को सस्ती दरों पर आवंटित किए गए कोल ब्लॉक्स बाद में अन्य कंपनियों को ऊंची दरों पर बेच दिए गए। 17,000 करोड़ मीट्रिक टन कोयला औने-पौने दामों में निजी कंपनियों को बेचने के मामले में सीधे तौर पर प्रधानमंत्री कार्यालय की भूमिका संदिग्ध है। जिन 156 कंपनियों का नाम इस घोटाले में शामिल है उनमें से कुछ नामी कंपनियों ने कोल ब्लॉक का संचालन अन्य कंपनियों को सौंप खुद मोटा मुनाफा कमाया।
नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक के अनुसार कोयले की नीलामी नहीं किए जाने से सरकार को एक लाख अस्सी हजार करोड़ रुपये की चपत लगी है। उपरोक्त कोयला आवंटन की अवधि में कोयला मंत्रालय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अधीन ही था। यह सभी जानते हैं कि सीबीआइ प्रधानमंत्री के अधीन है। सवाल उठता है कि सीबीआइ फिर प्रधानमंत्री से कैसे पूछताछ करेगी और यदि नहीं कर पाएगी तो इस जांच का मतलब क्या है? पहले आओ, पहले पाओ की नीति का अनुसरण करने के कारण 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में भी राजकोष को करीब एक लाख 76 हजार करोड़ रुपये का चूना लगा था। क्या यह महज संयोग है? लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी भी मंत्रालय द्वारा लिए गए निर्णय की सामूहिक जवाबदेही मंत्रिमंडल की होती है। मंत्रिमंडल का मुखिया होने के नाते मंत्रिमंडल स्तर पर मचाए जा रहे लाखों करोड़ की लूट से आखिर प्रधानमंत्री अपना पल्ला कैसे झाड़ सकते हैं? संप्रग-2 कार्यकाल में घोटालों का जिस तरह पहाड़ खड़ा हुआ है उससे यह अब स्थापित हो चुका है कि प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे मंत्रिमंडल के मुखिया हैं और वह सारा तमाशा देख रहे हैं। उनकी इस लाचारी की वजह क्या है? एक सफल अर्थशास्त्री होने के बावजूद वह निष्कि्रय साबित क्यों हो रहे हैं? संप्रग की पहली पारी में वह कम्युनिस्टों के दबाव में थे, किंतु दूसरी पारी में, खासकर 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले से द्रमुक पार्टी के नरम पड़ जाने के बाद सरकार सन्निपात की शिकार क्यों है? इस लकवाग्रस्त सरकार में व्याप्त नेतृत्वहीनता और निर्णयहीनता का खामियाजा आज किसे भोगना पड़ रहा है? आइपीएल, राष्ट्रमंडल खेल, 2जी स्पेक्ट्रम, सेटेलाइट स्पेक्ट्रम, आदर्श सोसायटी घोटाला, केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के पद पर दागदार व्यक्ति की नियुक्ति और अब कोयला घोटाले में प्रत्यक्ष तौर पर प्रधानमंत्री की संलिप्तता ने भारत की साख को धूल में मिला दिया है। इन घोटालों से प्रधानमंत्री के साथ-साथ समूची संप्रग सरकार की विश्वसनीयता धुल चुकी है। इससे पूरी दुनिया में भारत को एक भ्रष्ट देश के रूप में देखा जा रहा है, जिसे कल तक एक अत्यंत ऊर्जावान और उदीयमान सशक्त अर्थव्यवस्था के रूप में दुनिया सम्मान के भाव से देख रही थी और देश-विदेश के निवेशक यहां पूंजी निवेश के लिए उत्सुक थे। आज देश की अर्थव्यवस्था एक बार फिर सन 1991 की तंगहाली और कंगाली की स्थिति की ओर अग्रसर है। तब सरकारी खजाने में विदेशी मुद्रा की खासी कमी हो गई थी। हालात इतने बदतर हो गए थे कि भारत को अपनी अंतरराष्ट्रीय देनदारियों की पूर्ति के लिए अपना स्वर्ण भंडार गिरवी रखना पड़ा था।
प्रधानमंत्री पद पर आसीन ख्यातिप्राप्त अर्थशास्त्री और सरकार के आर्थिक सलाहकार चारों खाने चित हैं। महंगाई लगातार बढ़ रही है। रोजगार के अवसर कम हो रहे हैं। रुपये की कीमत में लगातार गिरावट जारी है। पिछले नौ माह में रुपये की कीमत डॉलर के मुकाबले 25 फीसदी तक घट चुकी है। मुद्रास्फीति में कमी करने के लिए रिजर्व बैंक ने ब्याज दरों में लगातार वृद्धि जारी रखी, किंतु महंगाई बेकाबू है। अब रिजर्व बैंक ने भी हाथ खड़े कर सरकार से नीतिगत हस्तक्षेप करने और आर्थिक सुधारों की गति को बढ़ावा देने की अपील की है। रिजर्व बैंक ने बढ़ते व्यापार घाटे पर भी अंकुश लगाने की बात की है, जबकि सच्चाई यह है कि गलत आर्थिक नीतियों के कारण जहां निर्यात में कमी आ रही है वहीं बढ़ते आयात के कारण व्यापार घाटा निरंतर बढ़ता जा रहा है। सरकारी अकर्मण्यता का अंदाजा हाल ही में जारी सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि के ताजा आंकड़ों से लगाया जा सकता है। वित्त वर्ष 2011-12 की मार्च में समाप्त चौथी तिमाही में जीडीपी वृद्धि पिछले नौ साल के न्यूनतम स्तर पर गिरकर 5.3 प्रतिशत रह गई। इसके साथ ही सालाना जीडीपी वृद्धि भी घटकर 6.5 फीसदी पर आ गई। पहले के मुकाबले अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में वृद्धि की गति का मंद पड़ना चिंताजनक है। कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर सात प्रतिशत से घटकर 2.8 प्रतिशत, खनन क्षेत्र की पांच प्रतिशत से घटकर शून्य से भी नीचे, विनिर्माण क्षेत्र की 7.6 फीसदी से घटकर 2.5 प्रतिशत और व्यापार, होटल तथा परिवहन क्षेत्र की वृद्धि 11.1 प्रतिशत से घटकर 9.9 प्रतिशत हो गई है। देश के आठ आधारभूत उद्योगों की वृद्धि दर अप्रैल महीने के दौरान 2.2 फीसदी दर्ज की गई। विकास दरों में गिरावट को लेकर सरकार अपनी नाकामी छिपाने का प्रयास कर रही है। हकीकत यह है कि विकास दरों में गिरावट बाहरी कारणों से नहीं, बल्कि घरेलू कारणों से आई है। बेकाबू महंगाई के साथ ब्याज दरों का उच्चतम स्तर पर होना इस गिरावट का मुख्य कारण है। अर्थशास्ति्रयों का मानना है कि विकास दर में गिरावट से न केवल रोजगार के अवसरों में कमी आएगी, बल्कि इससे पहले से ही बेकाबू महंगाई के और बढ़ने का खतरा है, किंतु कांग्रेस जनसरोकारों से बेफिक्र है। रोम जल रहा था तो नीरो बंसी बजा रहा था, कांग्रेस की वर्तमान मानसिकता ऐसी ही है।
बलबीर पुंज भाजपा के राज्यसभा सदस्य हैं
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