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निकल सकता है बीच का रास्ता

जागरण मेहमान कोना
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Prakash Singhलोकपाल बिल को लेकर देश में एक संघर्ष की स्थिति बन गई है। स्थिति बिगड़ने के लिए संप्रग सरकार स्वयं बहुत हद तक जिम्मेदार है। अन्ना हजारे को अनशन पर जाने के लिए स्थान के आवंटन में अनावश्यक हीला-हवाली और विलंब किया गया। दिल्ली पुलिस ने जयप्रकाश नारायण पार्क में अनुमति भी दी तो इतनी शर्तो के साथ कि वह अनुमति न देने के बराबर था। शासन की संभवत: यह मंशा थी कि अन्ना हजारे अनशन पर न बैठने पाएं और इस तरह प्रस्तावित आंदोलन अपने आप समाप्त हो जाएगा। संप्रग सरकार को यह अंदाजा नहीं था कि भ्रष्टाचार को लेकर जनता के सभी वर्गो में इतना असंतोष और आक्रोश है कि लोग भारी संख्या में सड़कों पर उतर आएंगे। जब स्थिति नियंत्रण से बाहर जाने लगी तब सरकार ने अन्ना हजारे को मनाना शुरू किया और दिल्ली पुलिस ने भी अपनी शर्तो में ढील दे दी। अगर शासन ने शुरू से ही उदार दृष्टिकोण अपनाया होता तो शायद सरकार को इतनी आलोचना और विरोध का सामना नहीं करना पड़ता। सरकार तो अब ढीली पड़ गई, परंतु अब अन्ना हजारे और उनके सदस्य सख्त हो गए हैं। गिरफ्तारी से रिहा होने के बाद भी अन्ना हजारे का तिहाड़ में बने रहना औचित्यपूर्ण नहीं कहा जा सकता। आवश्यकता है दोनों ही पक्षों को एक-दूसरे का दृष्टिकोण समझने की और एक ऐसा बीच का रास्ता निकालने की जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। एक सशक्त लोकपाल का सृजन हो जाए और सरकार को नीचा न देखना पड़े।


अन्ना टीम के सदस्य बार-बार कहते हैं कि उनके द्वारा बनाए जनलोकपाल बिल को संसद में पास किया जाए। यह बात, अगर बारीकी से देखा जाए तो तर्कसंगत नहीं है। कानून बनाने का विशेषाधिकार केवल संसद को ही है। कल को कोई समुदाय विशेष खड़ा हो सकता है कि उनसे संबंधित फलां बिल पास किया जाए अन्यथा वह आंदोलन करेंगे। यह स्थिति लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं होगी। अन्ना हजारे को यह समझना होगा कि जिस लोकशाही की वह बात करते हैं उसी पर अनजाने में हमला भी कर रहे हैं। संसद में लोकपाल बिल प्रस्तुत हो चुका है। दुर्भाग्य से उसमें कुछ ऐसे प्रावधान हैं जो भ्रष्ट अधिकारियों को ठिकाने लगाने के बजाय उन्हें संरक्षण प्रदान करेंगे। जाहिर है कि सरकार की नीयत ठीक नहीं थी अन्यथा ऐसा बिल लोकसभा में नहीं आया होता। संभवत: नौकरशाही ने अपने बचाव के लिए इन प्रावधानों को डाल दिया, परंतु जिम्मेदारी तो सरकार को ही लेनी पड़ेगी। आज आवश्यकता इस बात की है कि लोकपाल बिल में जो खामियां हैं उन्हें दूर कराया जाए ताकि एक सशक्त लोकपाल का गठन हो सके और भ्रष्टाचार के विरुद्ध सघन अभियान चल सके। बिल से संबंधित छह बिंदु ऐसे हैं जिन पर अन्ना हजारे और उनके समर्थकों को विशेष रूप से हमला करना चाहिए। उनको बदलने के लिए सरकार पर हरसंभव दबाव वांछनीय होगा। इन बिंदुओं का संक्षेप में उल्लेख आवश्यक है।


सर्वप्रथम तो बिल की धारा 23 और 24 को बदलना होगा। इन दो धाराओं में बड़ी होशियारी से भ्रष्ट कर्मचारियों को बचाने की कोशिश की गई है। स्पष्ट रूप से लिखा है कि प्रारंभिक जांच के बाद किसी निर्णय पर पहुंचने से पहले लोकपाल अधिकारी को सुनने का मौका देंगे। बाद में चार्जशीट दाखिल होने के बाद भी अधिकारी को पुन: एक मौका मिलेगा, जिससे उसके विरुद्ध सारे सबूत उसे दिखाए जाएंगे। भ्रष्ट अधिकारी को इतनी सुविधा देने का एक ही परिणाम निकलेगा-वह अपने विरुद्ध गवाहों को तोड़ लेगा, सबूत को मिटा देगा या शिकायतकर्ताओं को धमकाएगा। यह भी आपत्तिजनक है कि धारा 56 में दोषी अधिकारी को लोकपाल द्वारा ही कानूनी सहायता दिए जाने का प्रावधान किया गया है। आश्चर्य यह है कि बिल में शिकायतकर्ता को सहायता देने की बात कहीं नहीं लिखी गई है। तीसरा, आपत्तिजनक प्रावधान धारा 49 में है, जिसमें लिखा गया है कि शिकायत गलत पाए जाने पर शिकायतकर्ता को कम से कम दो साल की सजा हो सकती है, जबकि दोषी अधिकारी के लिए केवल छह महीने सजा का प्रावधान है। इसे हास्यास्पद ही कहा जा सकता है। चौथी बात जिससे सरकार की नीयत पर संदेह होता है धारा 17 में है, जिसके द्वारा सोसाइटी और ट्रस्ट भी लोकपाल के अधिकार क्षेत्र में आ जाते हैं। इस प्रावधान की आवश्यकता लोकपाल बिल में क्यों पड़ी, समझ में नहीं आता। ट्रस्ट आदि में घपले अवश्य होते हैं, परंतु उनसे निपटने के लिए राज्य पुलिस सक्षम है। ऐसा लगता है कि सरकार यह चाहती है कि लोकपाल सरकारी अधिकारियों पर ज्यादा ध्यान न दे और उनकी शक्ति ट्रस्ट आदि को देखने में बिखर जाए। पांचवां आपत्तिजनक बिंदु संसद के सदस्यों को संसद के अंदर किए गए घपले से बचाने से संबंधित धारा 17 में है। देश की जनता संसद के अंदर जो कुछ होता है उसको अच्छी तरह देख चुकी है और वहां आर्थिक दृष्टि से जो गलत कार्य होते हैं उसके लिए माननीय सदस्यों की जवाबदेही चाहती है, परंतु लोकपाल बिल ऐसा नहीं होने देगा। छठा बिंदु एक निराशा का विषय है। भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र की भ्रष्टाचार निरोधक संधि पर अपनी मुहर लगा दी है। ऐसा करने के बाद संविधान की धारा 253 के अंतर्गत भारत सरकार को यह अधिकार था कि वह राज्यों में भी लोकायुक्तों का गठन कर सके। अफसोस की बात है कि लोकपाल बिल में राज्यों के लोकायुक्तों का कोई उल्लेख नहीं है। यदि सरकार ने ऐसा कर दिया होता तो सभी राज्यों में एकरूपता होती।


बिल में दो प्रावधान ऐसे हैं जिनके लिए सरकार की प्रशंसा भी करनी होगी। धारा 27 के अंतर्गत लोकपाल को किसी भ्रष्ट अधिकारी के विरुद्ध जांच करने के लिए या चार्जशीट फाइल करने के लिए किसी स्तर पर कहीं से अनुमति नहीं लेनी पड़ेगी। दूसरा, धारा 34 में भ्रष्ट अधिकारियों के विरुद्ध आरोप प्रमाणित होने पर उनकी संपत्ति जब्त किए जाने का प्रावधान है। यह एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। आज आवश्यकता इस बात की है कि संघर्ष की मानसिकता को छोड़कर बीच का रास्ता निकाला जाए। एक तरफ तो सरकार बिल की कमजोरियों को दूर करते हुए एक सशक्त लोकपाल का गठन करे तो दूसरी तरफ अन्ना हजारे और उनके समर्थकों को प्रधानमंत्री और न्यायपालिका को लोकपाल के दायरे में लाने की अपनी जिद छोड़नी पड़ेगी। अपने देश में राजनीतिक लक्ष्य की पूर्ति के लिए लोग घटिया स्तर पर उतर जाते हैं। प्रधानमंत्री के विरुद्ध फर्जी आरोप लगाए जा सकते हैं। अगर प्रधानमंत्री रोज आरोपों का ही जवाब देते रहेंगे तो देश का शासन कैसे चलेगा? न्यायपालिका में यदाकदा भ्रष्टाचार होते हुए भी लोगों का इस संस्था में विश्वास है। अन्ना हजारे की टीम यदि उपरोक्त छह बिंदुओं पर ही प्रहार करे तो सभी के लिए सार्थक एवं हितकर होगा।


लेखक प्रकाश सिंह पूर्व पुलिस महानिदेशक हैं


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