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तीसरे विकल्प के आसार

जागरण मेहमान कोना
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Kuldeep Nayarइंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल थोपे जाने के बाद जब जयप्रकाश नारायण बंदी बनाए गए थे तो उन्होंने कहा था-विनाश काले विपरीत बुद्धि। अन्ना हजारे, जिनकी अभी तक महाराष्ट्र के बाहर नेता के रूप में पहचान नहीं बनी थी, दिल्ली में बंदी बना लिए गए, क्योंकि उन्होंने देश में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल की व्यवस्था किए जाने के आंदोलन की प्रेरणा दी। उन्होंने भी जयप्रकाश के शब्दों को दोहराया होगा। सरकार ने अपनी भ्रमित मानसिकता का परिचय उन्हें सुबह गिरफ्तार करके और फिर शाम को रिहाई की पेशकश करके दिया। यह अलग बात है कि अन्ना हजारे ने शर्तो पर जेल से बाहर आने से इंकार कर दिया था। इस प्रकरण से मनमोहन सिंह सरकार ने खुद को ही मूर्ख बनाया। पहले तो वह एक पुलिस आयुक्त बीके गुप्ता से अन्ना हजारे को बंदी बनाने को कहती है और फिर दुनिया को बताती है कि यह सब पुलिस आयुक्त ने ही किया है। फिर सरकार अथवा उसका कोर गु्रप यह निश्चय करता है कि अन्ना हजारे को रिहा कर दिया जाए। तब परिदृश्य बदल कर कांग्रेस मुख्यालय स्थानांतरित हो चुका था। अपनी माता सोनिया गांधी की अनुपस्थिति में वहां राहुल गांधी ही ‘बॉस’ हैं। वह प्रधानमंत्री से मिलते हैं और स्पष्ट ही है कि वहीं हजारे की रिहाई का निर्णय लिया गया।


स्थानीय मजिस्ट्रेट की भूमिका तो ‘हास्यास्पद’ है। वह अन्ना हजारे को सात दिन की न्यायिक हिरासत में भेजते हैं। ऐसा कोई कानून नहीं है जिसके तहत किसी ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध कार्रवाई की जा सके जो अनशन करने पर अड़ा हो। वही मजिस्ट्रेट एक बार दबाव में अपने ही आदेश को रद करता है। इस सारी कवायद से मुझे यह देखने का मौका मिला कि न्यायपालिका कैसे कमांड पर कार्य करती है? यह ठीक वैसा ही है जैसा कि आपातकाल के दौरान हुआ था। तब इंदिरा गांधी-संजय गांधी ने जो चाहा वह तमाम नियमों को रौंद कर हासिल किया। यह भी उल्लेखनीय है कि आज की तरह तब भी केंद्र में कांग्रेस ही सत्तासीन थी। तब सरकारी अधिकारियों ने फैसले लिए थे, क्योंकि आपातकाल के चलते संविधान निलंबित था और उनकी राह में कोई बाधा नहीं थी। वे तब असंवैधानिक शासन संचालन पर इस सीमा तक बाध्य थे कि राजनीतिक आकाओं द्वारा थोपे गए कुशासन के उपकरण से हो गए थे। इस समय वे ऐसा बिना आपातकाल के ही कर रहे हैं। इससे भारत के लोकतंत्र के बारे में बहुत कुछ जाहिर हो रहा है। सर्वाधिक अलोकतांत्रिक देश अमेरिका यह कहने का दुस्साहस कर रहा है कि वह भारत से आशा करता है कि वह शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों से निपटने में समुचित लोकतांत्रिक संयम बरते। ऐसा राष्ट्र जो अपने मुस्लिम राष्ट्रजनों से तृतीय श्रेणी के नागरिकों जैसा व्यवहार करता है, वह उस भारत पर उंगली उठा रहा है जो अपनी सीमाओं के बावजूद एक बहुलवादी समाज को कायम रखे हुए है।


मुझे भय है कि सत्तारूढ़ कांग्रेस के लिए हालात और अधिक बिगड़ सकते हैं, क्योंकि वह जनता से कट गई है। लोकपाल की मांग परिवर्तित होकर मनमोहन सिंह सरकार के त्यागपत्र की मांग में बदल सकती है और ऐसा होता हुआ नजर भी आ रहा है। अरबों डॉलर के अनेक घोटालों के उजागर होते जाने से सरकार की साख पहले ही खासी गिर चुकी है। वह जो भी पासा फेंकती है वह उलटा पड़ रहा है। मैं मध्यावधि चुनाव को इसलिए अपरिहार्य मानता हूं कि अन्ना हजारे के आंदोलन ने जन आंदोलन का रूप ले लिया है। लोकपाल बिल तो एक ओर रह गया है। अब शासकों की भ‌र्त्सना के माध्यम से सरकार के विरुद्ध आक्रोश को उभारा जा रहा है। मंत्रियों का कोर ग्रुप यह तर्क दे सकता है कि संसद में पेश किए गए लोकपाल विधेयक में सुधार की गुंजाइश है, किंतु जनता बहुत आगे बढ़ चुकी है और वह लोकसभा में नए प्रतिनिधियों की मांग उभार सकती है। सत्तासीन कांग्रेस के अलावा अन्य राजनीतिक दल भी देरसबेर अपना रुख बदल सकते हैं। भारतीय जनता पार्टी आंदोलन का समर्थन कर ही रही है। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने एकपक्षीय तौर पर आंदोलन को सराहा है, मगर उनका मकसद अलग-थलग पड़ जाने से बचना है। अन्ना हजारे की टीम मोदी और भारतीय जनता पार्टी को दूरी पर रखकर ठीक ही कर रही है। अन्ना हजारे को लेकर मुसलमानों में अभी भी संदेह है, हालांकि उन्होंने अपने एक बयान में मोदी की प्रशंसा में जो शब्द कहे थे वे वापस ले लिए हैं।


हजारे की टीम को इस बात को लेकर दोहरी सतर्कता बरतनी होगी कि आंदोलन में भाजपा की घुसपैठ न हो जाए। मुझे स्मरण आता है कि भाजपा का पहला अवतार जनसंघ जेपी को दिए गए आश्वासन से पलट गया था। जनसंघ को जब जनता पार्टी में लिया गया था तो उसने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से अपने संबंध तोड़ने का निश्चय व्यक्त किया था।


मुझे आशा है कि इस आंदोलन की सफलता के बाद तीसरे विकल्प का उदय होगा। जेपी के प्रसंग में भी ऐसा हुआ था। सरकार एक के बाद एक गलती करती गई थी और उससे जयप्रकाश आंदोलन को केंद्र के विरुद्ध विक्षोभ में बदलने में सफल हुए थे। शुरू में उन्होंने नए चुनावों का आह्वान नहीं किया था, परंतु जब सरकार के रवैये में कोई बदलाव नहीं आया तो जेपी के समक्ष यह कहने के अलावा कोई चारा नहीं बचा था कि हमें लोगों की ओर लौटना ही होगा।


इंदिरा गांधी और उनके पुत्र को भी उस चुनाव में करारी हार का मुंह देखना पड़ा था। कांग्रेस को दीवार पर लिखी इबारत पढ़नी चाहिए। पार्टी ने अपनी कब्र खुद खोदी है। उसे लोकपाल विधेयक पर समझौता कर लेना चाहिए था। एक समय हजारे न्यायपालिका और प्रधानमंत्री को लोकपाल की परिधि में लाने के मुद्दे पर राहत देने के मूड में थे। सरकार को हजारे के संदेहों को दूर करने के लिए न्यायिक जवाबदेही विधेयक को फिर से ड्राफ्ट करना चाहिए था। प्रधानमंत्री के मात्र उनके भ्रष्टाचार से संबद्ध मामलों में ही लोकपाल के समक्ष अभियोग की व्यवस्था की जा सकती है, उनके शासन संबंधी मामलों में नहीं। हमने दो ऐसे प्रधानमंत्री देखे हैं, जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे। इनमें से एक थे पीवी नरसिंह राव, जो वोटों की खरीददारी के लिए झारखंड केस में लपेटे में आए थे। दूसरे थे राजीव गांधी, जो बोफोर्स दलाली के मामले में चर्चित हुए थे। हम प्रधानमंत्री को लोकपाल के कार्य-क्षेत्र से बाहर रखा जाना नहीं सह सकते। सिविल सोसाइटी को अपनी सारी शक्ति हजारे के पीछे जुटा देने के लिए सराहा जाना चाहिए।


लेखक कुलदीप नैयर वरिष्ठ स्तंभकार हैं


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