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लोकपाल विधेयक के मतभेद वाले मुद्दों पर व्यावहारिक और रचनात्मक रवैया अपनाने की सलाह दे रहे हैं प्रकाश सिंह
लोकपाल पर बहस अंतिम चरण में है। 14 दिसंबर को सर्वदलीय बैठक बुलाई गई थी, परंतु दुर्भाग्य से कई बिंदुओं पर अभी भी मतभेद है। लोकपाल विधेयक के संदर्भ में यदि जनप्रतिनिधि मूलभूत सिद्धांतों पर एक राय हो जाएं तो बिंदुओं पर स्वत: सहमति हो जाएगी। पहली बात हमें यह याद रखनी होगी कि लोकपाल को उतनी ही जिम्मेदारी दी जाए जिसका निर्वहन वह आसानी से कर सके। यह कहने में अच्छा जरूर लगता है कि लोकपाल सभी वर्ग के राजकीय कर्मचारियों के भ्रष्टाचार पर नियंत्रण रखेगा, परंतु क्या यह संभव है? ए और बी वर्ग के ही कर्मचारियों की संख्या देश में करीब 8 लाख है। इतना बोझ तो शायद लोकपाल की संस्था उठा लेगी, परंतु यदि ए, बी, सी और डी सभी संवर्ग के अधिकारियों पर नियंत्रण रखना होगा, जिनकी संख्या करीब 63 लाख होगी तो लोकपाल के लिए मुश्किल हो जाएगा। भारत जैसे विशाल देश में किसी एक संस्था के लिए पटवारी से लेकर प्रधानमंत्री तक पर अंकुश लगाना असंभव होगा। अन्ना टीम को इस संबंध में व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। इसके अलावा जैसा कि संसदीय समिति ने लिखा है, लोकपाल को अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए करीब 35 हजार कर्मियों की आवश्यकता होगी। यानी एक समानांतर नौकरशाही खड़ी हो जाएगी। कुछ वर्षो बाद हमें शायद लोकपाल के कर्मियों के भ्रष्टाचार के विरुद्ध किसी और संस्था का भी सृजन करना पड़े। ऐसी स्थिति किसी भी दृष्टिकोण से वांछनीय नहीं होगी। अन्ना हजारे स्वयं विकेंद्रीकरण की बात करते हैं, परंतु जब लोकपाल की बात आती है तो वह सारी सत्ता केंद्रीकृत करना चाहते हैं। इस संबंध में अरुणा राय का सुझाव कि ग्रुप सी और डी के कर्मियों को प्रदेशों के लोकायुक्त के अधीन रखा जाए, ज्यादा व्यावहारिक प्रतीत होता है।
दूसरा सिद्धांत यह है कि जो संस्थाएं अनेक वर्षो से चल रही हैं और जिनका कार्य उत्साहजनक नहीं होते हुए भी संतोषजनक रहा है, उनके साथ अकारण छेड़छाड़ न की जाए। सीबीआइ के मुख्य रूप से तीन अंग हैं-एक जो भ्रष्टाचार के विरुद्ध खोजबीन करता है, दूसरा जो आर्थिक अपराधों से निपटता है और तीसरा जो विशेष अपराधों का संज्ञान लेता है। तीनों ही इकाइयां पारस्परिक सामंजस्य से कार्य करती हैं। इंडिया अगेंस्ट करप्शन के लोग जब यह कहते हैं कि सीबीआइ का भ्रष्टाचार निरोधक दस्ता लोकपाल के अधीन कर दिया जाए तो वह सीबीआइ के बारे में अपना अज्ञान दर्शाते हैं। यह तो ऐसा होगा कि किसी व्यक्ति का एक हाथ काट लिया जाए और कहा जाए कि तुम बचे एक हाथ और दो पैरों से अपना काम चलाओ। सीबीआइ की एक संपूर्णता है और उसको हमें बचाए रखना होगा। यह सही है कि जन अपेक्षाओं पर सीबीआइ पूरी तरह खरी नहीं उतरी है, परंतु क्या इसके लिए संस्था को दोष दिया जा सकता है? जो स्वायत्तता सीबीआइ को दी जानी चाहिए थी वह दी नहीं गई, निदेशक का चयन सरकार के हाथों में है, फिर सीबीआइ से यह अपेक्षा करना कि वह उन अभियोगों में भी जिनके राजनीतिक पहलू हैं, एकदम सही काम करेगी, उचित नहीं होगा।
संसदीय समिति ने स्पष्ट रूप से लिखा था कि सीबीआइ को सुदृढ़ करने की आवश्यकता है। द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी कहा है कि एक सीबीआइ एक्ट पारित होना चाहिए और उसके अंतर्गत इस संस्था को संघीय अपराधों की जांच करने का पूर्ण अधिकार होना चाहिए। जनप्रतिनिधियों को यह सुनिश्चित करना होगा कि सीबीआइ की तोड़फोड़ न हो और यथासंभव इस संस्था को निष्पक्षता से काम करने के लिए और सुदृढ़ बनाया जाए। अन्ना टीम कहती है कि बिना सीबीआइ के लोकपाल केवल पोस्टऑफिस रह जाएगा। इस दलील के अनुसार तो गृहमंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री सभी पोस्टऑफिस हैं। यह तो कभी नहीं कहा गया कि इन उच्चासीन व्यक्तियों के साथ भी सीबीआइ जैसी एक संस्था जुड़ी होनी चाहिए। जैसे अन्य अधिकारी-विभाग वर्तमान संस्थाओं से काम लेते हैं, वैसे ही लोकपाल की संस्था भी सीबीआइ से काम ले सकती है। तीसरा सिद्धांत हमें यह याद रखना होगा कि कोई ऐसा परिवर्तन जो संविधान के ढांचे को प्रभावित करता है, नहीं किया जाना चाहिए। न्यायपालिका के भ्रष्टाचार पर लोकपाल का नियंत्रण इसी श्रेणी में आएगा। इसमें संदेह नहीं कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार है, परंतु उससे निपटने के लिए हमें अलग व्यवस्था करनी होगी जो मुख्य न्यायाधीशों के अधीन हो। चौथा सिद्धांत जो महत्वपूर्ण है वह यह है कि राज्यों और केंद्र में भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए एकीकृत व्यवस्था होनी चाहिए। संसदीय समिति ने भी लोकपाल और लोकायुक्त, दोनों के ही लोकपाल बिल में प्रावधान होने की संस्तुति की है।
आशंका है कि जनआंदोलन से घबराकर सरकार गलत कानून न पारित कर दे। जबसे अन्ना आंदोलन शुरू हुआ है तबसे दबाव के कारण ही सही, सरकार ने तेजी दिखाई है। अभिषेक मनु सिंघवी ने अपनी रिपोर्ट दो महीने के अंदर तैयार कर दी है। रिपोर्ट में भले कुछ खामियां हों, परंतु कुल मिलाकर संसदीय समिति ने सभी पहलुओं का गहन परीक्षण किया है। सरकार ने शुरू में जितनी भी कोताही की हो, परंतु वर्तमान में वह इस विषय पर सक्रिय है और उसके दृष्टिकोण में लचीलापन भी है। सच तो यह है कि सरकार बराबर झुकती जा रही है, जबकि अन्ना टीम अपनी बातों पर अड़ी है। अन्ना टीम को भी व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाना होगा। संसदीय समिति की रिपोर्ट आने के पहले ही जिस तरह आंदोलन की बातें होने लगीं और लोकपाल बिल का अंतिम प्रारूप देखे बिना जिस तरह से जेल भरो आंदोलन की घोषणा कर दी गई है, उसके प्रति खेद ही प्रकट किया जा सकता है। आवश्यकता है एक रचनात्मक दृष्टिकोण की, पारस्परिक सहयोग की और आम सहमति की।
लेखक प्रकाश सिंह पूर्व पुलिस महानिदेशक हैं
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