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[देश के नवनिर्माण में अन्ना आंदोलन की महत्वपूर्ण भूमिका पर प्रकाश डाल रहे हैं डॉ. निरंजन कुमार]
भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के अनशन की समाप्ति भारतीय लोकतत्र और राजनीति के एक अध्याय का अंत नहीं है, बल्कि शुरुआत है। इस आगाज का अंजाम क्या होगा, अवाम की इस मुहिम के क्या सबक और पैगाम हैं, इस पर गहराई से सोचने की जरूरत है। इस आंदोलन का पहला सुखद संदेश तो यही है कि यह आंदोलन सिर्फ इसके रहबर अन्ना की जीत न होकर इस देश के लोकतत्र और ‘हम भारत के लोग’ की विजय है। आज किसी को यह मुगालता नहीं होना चाहिए कि इस देश में सुप्रीम कौन है। देश का सारा विधान, सारी व्यवस्था, सारा तत्र, सारे नियम ‘हम भारत के लोगों’ के लिए ही हैं और अगर ‘हम भारत के लोग’ ही इससे तुष्ट-खुश नहीं है, तो शासक वर्ग को अपने रीति-नीति और विधान पर पुनर्विचार करना ही होगा।
आंदोलन का दूसरा संदेश यह गया कि भारतीय लोकतत्र को पुनर्परिभाषित करने की जरूरत है। राजनेताओं और राजनीतिक विश्लेषकों के एक वर्ग की इस समझ को बदलने की जरूरत है कि पाच साल में एक बार चुनाव, उसमें वोट मागना और जनता का वोट दे आना सिर्फ यही लोकतत्र है। देश करवट ले रहा है, लोगों में साक्षरता बढ़ी है। टीवी, मीडिया और अखबारों ने सुदूर गांवों तक में लोगों को जागरूक किया है और लोग अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो रहे हैं। यह एक शुभ सकेत है इस देश के भविष्य के लिए। और राजनेताओं के लिए क्या पैगाम है? अब ज्यादा दिनों तक आप इस देश की जनता के वास्तविक सरोकारों से मुंह नहीं मोड़ सकते, और यह भी कि जनता अब पाच साल के बाद कोई फैसला लेने का इंतजार नहीं करेगी। अब एक नए तरीके की वैकल्पिक राजनीति और लोकतत्र की अपेक्षा है। एक तरह से यह ‘भागीदारी वाले लोकतत्र’ की शुरुआत है, जो यूरोप के कई देशों में मौजूद है। इसमें राइट टू रिकॉल और राइट टू रिजेक्ट (उम्मीदवारों में कोई भी पसद नहीं कहने का अधिकार) आदि भी शामिल हैं। हमें भी अपने देश की सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक परिस्थितियों के अनुरूप भागीदारी वाले लोकतत्र को विकसित करना होगा। आंदोलन का सबसे महत्वपूर्ण संदेश सत्य और अहिंसा है। यह बताता है कि आज भी अहिंसा ही रास्ता है, जिसका इस्तेमाल गाधीजी ने किया था। नक्सलवादी सघर्ष या पूर्वोत्तर और देश के अन्य हिस्सों में चल रहे हिंसक आदोलन छेड़ने वालों को समझना होगा कि अपनी बात मनवाने के लिए आज भी सबसे सशक्त तरीका गाधीवादी है, बातचीत है। इतिहास भी गवाह है कि स्वाधीनता आंदोलन में गाधीजी का अहिंसक आंदोलन अंग्रेजी राज उखाड़ने में ज्यादा प्रभावी सिद्ध हुआ था।
इस आंदोलन का एक परिणाम है इस देश के दिग्भ्रमित कहे जाने वाले युवा वर्ग का नवजागरण। क्रिकेट, कैरियर और कंप्यूटर में व्यस्त और सामाजिक सरोकारों से दूर रहने वाले शहरी युवा हों या कस्बो-गांवों के बेरोजगार युवा समूह, इन सबके लिए इस आंदोलन ने मानो एक नया क्षितिज खोल दिया। आंदोलन की सफलता में सबसे बड़ी भूमिका इन्ही युवाओं की रही। आज देश के युवा को अपनी सामाजिक जिम्मेदारी का अहसास हुआ है। क्रिकेटरों या फिल्म कलाकारों की जगह उसके पास अन्ना के रूप में एक रोल मॉडल भी है।
आंदोलन का एक अन्य संदेश है कि कानून और नीति निर्माण में जनसमाज की भी भूमिका हो सकती है। यहां ससद के कानून बनाने के अधिकार को चुनौती नहीं दी जा रही है। अभिप्राय यह है कि नीति-कानून बनाने में ससद सिविल सोसाइटी के सुझावों की अनदेखी न करे। वैसे भी वर्तमान में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के रूप में सिविल सोसाइटी अपने सुझाव सरकार को दे रही है।
आंदोलन का एक अद्भुत प्रकार्य था राष्ट्रीय एकता का अभूतपूर्व प्रदर्शन। स्वाधीनता के बाद 1962, 1965 या 1971 के युद्ध के अतिरिक्त या क्रिकेट मैच के अलावा भारतीयों ने शायद ही कभी ऐसी एकता दिखाई हो। इस एकता का महत्व तब और बढ़ जाता है जब यह विदेशी शत्रुओं या क्रिकेट में विरोधी टीम के खिलाफ न होकर सकारात्मक कायरें के लिए आतरिक कारणों से प्रदर्शित हुई। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी और गुजरात से लेकर पूर्वोत्तर के त्रिपुरा और मेघालय तक में हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई; आदिवासी, दलित, पिछड़े और अल्पसख्यक का बड़ा तबका आंदोलन के समर्थन में एकबद्ध हो गया। देसी-विदेशी ताकतों के लिए एक स्पष्ट संदेश है कि भारत में फूट डालने की चाहे जितनी कोशिश कर लें, सकट और राष्ट्रीय मुद्दों पर हम एक हैं।
आंदोलन को मीडिया के एक बड़े वर्ग का समर्थन रहा। लेकिन सबसे नई बात हुई देश में पहली बार न्यू मीडिया-एसएमएस, फेसबुक, ट्विटर, यूट्यूब का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल। मुझे याद है कि ओबामा ने अपने राष्ट्रपति चुनाव अभियान की शुरुआत यूट्यूब पर संदेश डालकर की थी और बाद में न्यू मीडिया का जमकर प्रयोग किया। इसी तरह पाकिस्तान में राष्ट्रपति मुशर्रफ को सत्ता से बेदखल करने या मिश्च में सत्ता-व्यवस्था परिवर्तन में न्यू मीडिया का खुलकर इस्तेमाल किया गया। यहां समझने की जरूरत है कि भ्रष्टाचार से लड़ने में लोकपाल अकेले काफी नहीं होगा। इस देश के चतुर्दिक परिवर्तन के लिए चुनाव प्रणाली में आमूल सुधार, आर्थिक फैसलों में पारदर्शिता से लेकर कारपोरेट जगत, मीडिया, एनजीओ या शिक्षा तत्र आदि में भ्रष्टाचार के साथ-साथ अन्य कई मोचरें पर भी लड़ना होगा, तभी सच्ची आजादी मिल पाएगी।
लेखक निरंजन कुमार दिल्ली विवि में प्रोफेसर हैं
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