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पिछले दिनों मुंबई के एमएमआरडीए मैदान में अन्ना ने जब अनशन तोड़ने का फैसला किया और अपनी सेहत को देखते हुए विधानसभा चुनावों में अपने अभियान को मुल्तवी क्या किया, सरकारी रणनीतिकारों की बांछें खिल गई। वे अपनी पीठ थपथपाते हुए यह कहते सुने जाने लगे हैं कि अन्ना का प्रभाव अब पहले जैसा नहीं रहा। टीम अन्ना के उन विरोधियों को भी फब्तियां कसने का मौका मिल गया, जो शुरू से ही आंदोलन को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश करते आ रहे हैं। हद तो तब हो गई, जब कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने कहा कि अगर अन्ना के साथ 120 करोड़ लोगों का समर्थन है तो वे कहां हैं। वास्तव में अन्ना के साथ अब भी पूरा देश है। भारत की लोकतांत्रिक राजनीति में विपक्ष की राजनीति का एक शानदार इतिहास रहा है, लेकिन श्यामाप्रसाद मुखर्जी, राम मनोहर लोहिया, फिरोज गांधी और जयप्रकाश नारायण जैसे नेताओं द्वारा पोषित यह परंपरा अटल बिहारी वाजपेयी के बाद दम तोड़ने लगी। ऐसे में अन्ना हजारे में लोगों को एक ऐसी उम्मीद दिखी, जो उनकी दबी हुई भावना को आवाज दे सकती थी। महंगाई से त्रस्त जनता केंद्रीय मंत्रियों के गैरजिम्मेदारना और टालने वाले बयानों से तंग आ चुकी थी। आए दिन नए-नए घोटाले और हर स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार की पृष्ठभूमि में अन्ना हजारे एक आशा बनकर उभरे और जनता ने उनका भरपूर साथ दिया।
संसद के बाहर सरकार और उसके सहयोगियों की अन्ना हजारे और उनकी टीम पर कीचड़ उछालो की राजनीति मुंबई के एमएमआरडीए के मैदान में जनता का अपेक्षित समर्थन न मिलने पर संसद के भीतर भी देखने को मिला। इसमें कोई संदेह नहीं कि लोकसभा में लोकपाल बिल अन्ना हजारे के दबाव में पास हुआ, लेकिन राज्यसभा तक पहुंचते-पहुंचते सरकार को यह विश्वास हो चुका था कि यह आंदोलन अब उतना मजबूत नहीं रहा और परिणाम हम सबके सामने है। आधी रात को राज्यसभा का वह ड्रामा जिसकी पटकथा चाहे किसी ने भी लिखी हो, पर वह पूरी तरह से अन्ना के आंदोलन की कमजोरी की पृष्ठभूमि में लिखा गया था। सरकार के संकटमोचक इस आत्मविश्वास से भरे थे कि संकट टल चुका है और अब वह मामले को तकनीकी कानूनी दांवपेचों में आसानी से उलझा सकते हैं। मामले को तकनीकी कानूनी पेचों में उलझा देना भ्रष्टाचारियों की फितरत है। यह जुमला कचहरी से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक और लेखपाल से लेकर प्रदेश और देश के सबसे बड़े कार्यालयों में बहुत धड़ल्ले के साथ बोला और प्रयोग किया जाता है। इस जुमले का ही असर है कि आज इस देश की छोटी-बड़ी सभी अदालतें मुकदमों से भरी पड़ी हैं। लोगों के मन में कानून लागू करने वालों और कानून मानने वालों का नहीं, बल्कि कानून तोड़ने वालों का डर है। आज देश का हर नागरिक अपने से ज्यादा ऊंची पहुंच और पैसे वाले से डरता है तो इसकी वजह सिर्फ यही जुमला है। अगस्त में हुए अन्ना हजारे के आंदोलन से लोगों को एक उम्मीद की किरण दिखाई दी थी और यह विश्वास जगा था कि अगर हम एकजुट होकर अन्याय, अत्याचार और भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाएंगे तो जीत सकते हैं। वास्तव में अन्याय का विरोध करने के लिए सत्य और संगठन की शक्ति ही आम आदमी की ताकत है।
संगठन की शक्ति ही अपराधियों के मन में भय उत्पन्न करती है। चाहे वह संगठन की शक्ति प्रत्यक्ष हो या परोक्ष। वास्तव में यही वह मूल तत्व है, जो हमें भ्रष्टाचार से लड़ने का संबल प्रदान करता है। आज जरूरत उसी विश्वास को पोषित करने की है, उस भावना को जीवित रखने की है। हमें ऐसी व्यवस्था और ऐसा माहौल बनाना है कि कोई अपराधी या भ्रष्टाचारी यह न कह सके कि मेरी तो पहुंच है, मेरे पास पैसा है, मेरा कुछ नहीं हो सकता। चाहे अन्ना के नाम पर या किसी और के नाम पर। इस देश के लिए नासूर बन चुके भ्रष्टाचार के खिलाफ देश के हर कोने से आवाज उठनी ही चाहिए।
लेखक सिद्धेश्वर शुक्ल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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