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ईमानदारी का हिंदी पर्यायवाची क्या है? इस सवाल ने एकबारगी बहुतों को सकते में डाल दिया। किसी ने कहा सत्यनिष्ठा, लेकिन यह गढ़ा हुआ शब्द है। हमारी भाषा में ईमानदारी जैसा कोई शब्द क्यों नहीं है? समाज के सबसे समर्थ दो उच्च वर्गो के वैश्यों के धन एवं शूद्र समाज के श्रम पर निर्भर रहने के कारण ईमानदारी जैसे शब्द का औचित्य ही नहीं बना। एक शब्द है ‘धर्म’ जिसमें सब कुछ समाहित है, लेकिन धार्मिक परंपराओं ने हमारे समाज के साथ न्याय नहीं किया है। इसका परिणाम विभाजित लोकशक्ति के रूप में सामने आया है।
अन्ना का आंदोलन कोई क्रांति का प्रारंभ नहीं था, सिर्फ एक इशारा था। व्यवस्थाओं को संभल जाने की चेतावनी। लोकपाल भी कोई मुद्दा नहीं है। मुद्दा है आम लोगों की जिंदगी की दुश्वारियां। समस्या है सत्ताओं का लक्ष्यों से भटक जाना। समस्या है प्रशासन तंत्र का परिणाम न दे पाना। वरना कोई लोकपाल को पूछता ही क्यों? हमारे लोकतंत्र में नेता की परिभाषा मात्र प्रशासनिक मशीनरी का इस्तेमाल कर अपने समर्थकों का कार्य कराने वाले के रूप में सामने आई है। आम जनता की निगाह में अगर राजनीति अपनी हित साधना में लगी मालूम पड़ती है तो इसका दोष किसे दिया जाए। राजनीति ऐसे लोगों को अपना प्रतिनिधि बनाती है, जो भविष्य में नेतृत्व को चुनौती न दे सकें। इसी कारण आजादी के बाद सक्षम राजनीतिक नेतृत्व का विकास नहीं हो सका। वैकल्पिक राजनीति को कितनी मुश्किलें आई हैं, यह कोई अंबेडकर, लोहिया, जयप्रकाश से पूछे। आजादी के बाद व्यवस्था मोहभंग दौर के आश्चर्यजनक व्यक्तित्व थे डॉ. लोहिया, लेकिन समर्थकवादी व्यवस्था में उनका क्या हश्र हुआ, हम सब जानते हैं।
ईमानदारी राष्ट्रीय सशक्तीकरण का साधन है, साध्य नहीं है। जब एक अरसे के बाद आंदोलनकारियों के हाथ में तिरंगा दिखा और वंदेमातरम् का जयघोष सुनाई दिया तो उम्मीदें बंधने लगीं कि देश जिंदा है। आम लोगों में असंतोष है, लेकिन नेतृत्व के सामने भी व्यवस्थागत मजबूरियां हैं। गठबंधनों के घटक, देश के लिए नहीं सिर्फ अपने लिए जिम्मेदार होते हैं। घटकों में बंटा नेता आज नेतृत्व नहीं करता, समाज को दृष्टि नहीं देता। जनहित में मुश्किल फैसले नहीं लेता। मैंने किसी भी नेता को नगर पालिकाओं के कर जमा करने के लिए आम जनता को प्रेरित करते नही सुना। टैक्स कम कराने वाले, टैक्स न देने का अभियान चलाने वाले तो बहुत है। नगरों, गांवों में शिक्षा सफाई का अभियान चलाने वाला, कोई नेता न मिलेगा। कोई भी नेता ऐसा नहीं जो आबादी पर सख्त नियंत्रण का हामी हो। खरी बात कहना, जरूरत पड़ने पर कड़वी दवा पिलाना भी तो नेता के काम हैं। हवा का रुख देखकर मुंह देखी बात करना नेतागिरी का रिवाज बन गया है। हमारे नेता जो प्रशासनिक, राजनीतिक, भ्रष्टाचरण के विरुद्ध मजबूत आवाज बनते थे और अधिकारियों, मंत्रियों पर नैतिक नियंत्रण रखते थे, उन्हें भी सुविधाजीवी व्यवस्था ने अपने मकड़जाल में उलझा दिया है। दल विशेष का विकल्प खोजा जाना समझ में आता है, लेकिन व्यवस्था का विकल्प खोजना खतरनाक संकेत है।
भ्रष्टाचार हमारी व्यवस्था का वायरल बुखार है। जहां भी आम नागरिक सेवाएं अटकती हैं, वहां इस वायरस के उभरने की संभावना बढ़ती है। अगर हम अपनी व्यवस्थाओं को उद्देश्यपरक, सेवापरक बना सके तो आम जनता को दैनिक भ्रष्टाचरण से मुक्ति मिल सकेगी। एक प्रतिबद्ध जिलाधिकारी जिले के भ्रष्टाचरण पर असर डाल सकता है, इसके लिए राज्यों की भी पूर्ण प्रतिबद्धता चाहिये। कचहरी तहसील हमारी प्रशासनिक व्यवस्थाओं का आधार है। देश में लगभग तीन करोड़ मुकदमे लंबित हैं। औसतन महीने में एक तारीख भी मानी जाए तो देश के मुकदमेबाज करीब एक करोड़ रुपये रोज तारीख के लिए खर्च करते होंगे। यह रकम कारपोरेट वर्ल्ड के बड़े-बड़े घोटालों के सामने कुछ भी नहीं है। एक भ्रष्टाचार वह है जो आम जनता की परेशानी का कारण है, दूसरा वह जो राष्ट्रीय संसाधनों पर हमला करता है। अर्थात जो स्विस बैंकों में जमा होता है। रेलवे आरक्षण भ्रष्टाचार का उदाहरण हुआ करता था, लेकिन कंप्यूटरीकरण ने इसे आमूलचूल बदल दिया। जन्म-मृत्यु प्रमाण पत्र की वर्तमान प्रक्रिया नगर पालिकाओं को बदनाम करती है, लेकिन कंप्यूटरीकरण आपको घर बैठे प्रमाण पत्र दिला सकता है। इसी तरह न्यायिक प्रशासन भी सुधारा जा सकता है। आमजन के विरुद्ध हो रहे भ्रष्टाचार को सुधारा जा सकता है, लेकिन जो गद्दारी राष्ट्र से हो रही है, वह तो अक्षम्य है। आखिर 2 जी घोटाला हुआ ही क्यों? प्रश्न धनराशि का नहीं, व्यवस्था की उन मजबूरियों का है जो जानते-बूझते भी कुछ नहीं कर सकी। लोग प्रधानमंत्री को लक्षित कर रहे हैं। कोई उस व्यवस्था को लक्षित नहीं करता जिसकी उपज ये घोटाले हैं। भ्रष्टाचार की इस बहस और आंदोलन में हम अपनी व्यवस्था का क्रमश: अर्थहीन होते जाना देख रहे हैं।
आंदोलनों के साथ सबसे बड़ी परेशानी यह है कि वे अपनी ऊर्जा को सुरक्षित नहीं रख पाते, उनकी दिशाएं कहीं से कहीं और चली जाती हैं। उनके बीच में अक्सर वे ही प्रवृत्तियां पनपने लगती हैं, जिसके खिलाफ आंदोलन छेड़े गए थे। जेपी के आंदोलन की राष्ट्रव्यापी सोच से यह उम्मीद तो बिल्कुल नहीं थी कि इस आंदोलन के गर्भ से जातिवादी किस्म के क्षेत्रीय नेता निकलेंगे। इस आंदोलन ने कार्यकर्ता कम नेता ज्यादा पैदा किए।
हमने इतिहास में बहुत सी व्यवस्थाओं को पत्तों की तरह बिखरते देखा है। अन्ना का आंदोलन हो सकता है कि विजय की प्रारंभिक उजास के बाद भी अपने लक्ष्य तक न पहुंचे। ऐसा भी संभव है कि रामलीला मैदान की भीड़ आने वाले वक्त में उनका साथ छोड़ दे। यही भीड़ हमने जेपी के साथ देखी थी। यही भीड़ हमने तब भी देखी थी जब प्लासी के युद्ध से विजयी होकर लार्ड क्लाइव वापस कलकत्ता आया था। वह युद्ध जिसने भारत में अंग्रेजी हुकूमत की नींव डाली, उसके विजेता के स्वागत में कलकत्ता की सड़कों पर तिल रखने की भी जगह नहीं थी। भीड़ का चरित्र भी हमें मालूम है। हमें जरूरत उनकी है जो दमन के पहले हल्ले में भीड़ के भाग जाने के बाद भी अपने-अपने मोर्चो में रहेंगे। हमें आज राष्ट्र समाज के लिए प्रतिबद्ध ऐसे लोगों की एक जुझारू राष्ट्रवाहिनी की आवश्यकता है जिनका साहस और विवेक कभी उनका साथ नहीं छोड़ता। चुनावों के पार भी एक सतत जागृत शक्ति अस्तित्व में है, जो कभी अंबेडकर और लोहिया, कभी जेपी और अन्ना की शक्ल में आकार लेती है। यह एक बड़ा सवाल है कि आंदोलनों की शक्ति किस प्रकार लगातार जाग्रत रहे और हमें अपने लक्ष्य से न भटकने दे। इसी में ही भविष्य की सफलताएं निहित हैं।
लेखक आर. विक्रम सिंह पूर्व सैन्य अधिकारी हैं
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