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जनशक्ति का नया अध्याय

जागरण मेहमान कोना
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Hriday Narayan Dixitसारा भूत इतिहास में स्थान नहीं पाता। ‘अभूतपूर्व’ ही इतिहास में विशिष्ट स्थान पाता है। अन्ना हजारे का आंदोलन ‘अभूतपूर्व’ है। गांधी और जयप्रकाश नारायण के आंदोलन भी अभूतपूर्व थे। दोनों आंदोलनों से राज और समाज में अनेक भौतिक और रासायनिक बदलाव हुए थे। गांधी, जेपी और अन्ना के आंदोलनों में कई समानताएं हैं, लेकिन कई बुनियादी अंतर भी हैं। गांधी का आंदोलन ब्रिटिश साम्राज्यवादी शोषण, यूरोपीय सभ्यता और विदेशी सत्ता के विरुद्ध स्वदेशी आंदोलन था। इस आंदोलन के पास कांग्रेस का संगठन तंत्र था। जेपी आंदोलन कांग्रेसी भ्रष्टाचार के विरुद्ध शुरू हुआ। कांग्रेसी सत्ता ने दमन चक्र चलाया, लोकतंत्र को तहस-नहस करने का काम हुआ। जेपी आंदोलन ने सत्ता के तानाशाह चरित्र को तोड़ा, पर इस आंदोलन में भी सर्वोदयवादी संगठनों के साथ-साथ अधिकांश विपक्षी दलों का संगठन तंत्र उपलब्ध था, लेकिन अन्ना के व्यक्तित्व ने कमाल किया है। उनमें गांधी की प्रेरणा और परंपरा है, जेपी आंदोलन का लड़ाकूपन है। उनका समूचा आंदोलन बिना संगठन ही अखिल भारतीय हो गया है। सरकार समर्थक इसे ‘मध्यवर्गीय’ बता रहे हैं, लेकिन सरकार बचाव की मुद्रा में हैं। प्रधानमंत्री सीधे याचक हैं। सरकार परेशान है और टिप्पणीकार हलकान। सबके अनुमान धराशायी हो गए। किसी को भी ऐसे जनउबाल की उम्मीद नहीं थी।


मूलभूत प्रश्न है कि क्या राष्ट्रव्यापी जनउबाल का मुख्य कारण ‘जनलोकपाल’ की मांग ही है? बेशक जनलोकपाल ही इस आंदोलन की मुख्य मांग है, लेकिन मूलभूत कारण दूसरे हैं। स्वाधीन भारत के 64 बरस में भ्रष्टाचार पंख फैलाकर उड़ा है, संप्रग सरकार ने इसे संस्थागत बनाया है। आम जन भी लुटे हैं। संवैधानिक संस्थाओं की शक्ति घटी है। संसद सर्वोच्च जनप्रतिनिधि संस्था है, यही जनगणमन के हर्ष-विषाद-प्रसाद का दर्पण है, लेकिन संसद ने सर्वाधिक हताश किया। राजनीतिक दलतंत्र जनता का गुस्सा व्यक्त करने वाले भरोसेमंद मंच नहीं रहे। जनता ने दलतंत्र को सत्तावादी पाया, राजनीति की विश्वसनीयता खत्म हो गई। सार्वजनिक जीवन में शून्य पैदा हुआ। सरल और निष्कपट गांधीवादी अन्ना हजारे ने इसी शून्य को भरने का काम किया है। अन्ना सत्ता के दावेदार नहीं, किसी पद प्रतिष्ठा से उनका कोई लेना-देना नहीं। गांधी गीता के अनासक्त कर्म से प्रेरित थे और अन्ना गांधी से। अन्ना की जीत भारतीय परंपरा और प्रज्ञा की जीत है।


राष्ट्रनिर्माण के कार्य में किसी व्यक्ति या संस्था की जीत-हार का कोई मतलब नहीं होता। व्यक्ति रूप में गांधी भी वह सब नहीं कर पाए, जो करना चाहते थे। हिंदू-मुस्लिम एका के सवाल पर उन्होंने अपनी पराजय स्वीकार की थी। वे भारत विभाजन के विरुद्ध थे, देश तो भी बंट गया। बावजूद इसके वे राष्ट्रपिता हैं। उन्होंने देश को सत्याग्रह, सादगी, स्वदेशी और स्वराष्ट्रभाव की एक खास शैली दी। अन्ना उसी परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं।


अन्ना के सपनों वाले जनलोकपाल का प्रभावी रूप में काम करना और देश का भ्रष्टाचार मुक्त होना बाद की बाते हैं, लेकिन अन्ना ने देश के कोने-कोने ‘राष्ट्र सर्वोपरिता’ का भाव जगाया है। उन्होंने देश के लिए ही जान की बाजी लगाई है। नतीजा सामने है। फिल्मी गानों में मस्त रहने वाले युवा ‘भारत माता की जय’ और ‘वंदेमातरम’ के जयघोष में व्यस्त हैं। राष्ट्रध्वज की प्रीति और श्रद्धा बढ़ी है। राजनीति और राजकोष की निगरानी पर जनता की दृष्टि धारदार हुई है। भ्रष्टाचार आम आदमी का मुद्दा बना है। पहले यह सबकी पीड़ा थी, अब सबका साझा गुस्सा है। अन्ना ने व्यापक राष्ट्रीय जनआक्रोश को नेतृत्व और मंच दिया है। आश्चर्य है कि केंद्रीय सत्ता ऐसी साधारण बात भी क्यों नहीं समझ पाती?


शीर्ष राजनीतिक भ्रष्टाचार की शुरुआत कांग्रेस ने ही की। भ्रष्ट्राचार पहले निंदनीय था, फिर व्यावहारिक राजनीति का अनिवार्य हिस्सा बना। पहले शीर्ष पर था, बड़े राजनेताओं और आला अफसरों का विशेषाधिकार था, फिर उसका विकेंद्रीकरण हुआ। वह राज्यों की राजधानियों में पहुंचा, जिला कचहरियों में घुसा और देखते ही देखते गांव प्रधान, लेखपाल, सिपाही और सींचपाल का जीवनस्तर बदलने लगा। अन्ना के आंदोलन को मध्यवर्गीय कहा जा रहा है। भारतीय विदेश सेवा के एक वरिष्ठ अधिकारी पवन वर्मा ने कोई 15-16 वर्ष पहले लिखी किताब ‘दि ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास’ में भ्रष्टाचार से जुड़ी मध्य वर्गीय मानसिकता के तीन चरण बताए। वह भष्टाचार का शिकार हुआ। उसकी आलोचना की और फिर स्वयं उसमें भागीदार हुआ। अन्ना के आंदोलन ने इसमें चौथा चरण जोड़ा कि वह पैंतरा बदलकर सीधे मैदान में आ गया। उसे ऐसा करने का अवसर सत्ता ने ही दिया। पहले सब्र था कि देरसबेर सबकुछ ठीक होगा। सरकारें बदलती रहीं, लेकिन व्यवस्था जस की तस रही। भ्रष्टाचार चेहरा विहीन था। केंद्र के आचरण से भ्रष्टाचार का भयानक चेहरा प्रकट हुआ। परदा उठा तो सत्ता ही भ्रष्टाचार थी, वही भ्रष्टाचारी भी थी। कोर्ट और कैग आगे आए, केंद्र का रुख फिर भी अड़ियल रहा। सब्र का बांध टूट गया। जनता सड़कों पर है।


अन्ना आंदोलन के प्रभाव लोकमंगलकारी हैं। यहां दो विचारों की टक्कर हुई। अन्ना लोकशक्ति के प्रतीक बने। सरकार भ्रष्टाचार और सत्तासंस्थान का चेहरा है। संविधान की प्रस्तावना ‘हम भारत के लोग’ से शुरू होती है, अन्ना ‘हम भारत के लोगों’ के प्रतिनिधि बने। सत्ता की भूमिका बहुमत के संवैधानिक शासन से शुरू होती है, लेकिन यहां भष्टाचार की सत्ता है और सत्ता का भ्रष्टाचार है। अन्ना ने सत्ता परिवर्तन की मांग नहीं की, सिर्फ भ्रष्टाचार की निगरानी करने वाले एक तगड़े पहरेदार की ही मांग की है। केंद्र राजनीति का स्कूली पाठ पढ़ाती है-संसद सर्वोपरि है कि वह संसद के काम में दखल नहीं देती। अन्ना को नसीहत दी गई कि वह भी संसद को सर्वोच्च मानें। लेकिन हरेक दल के सांसद दलीय अनुशासन में ही वोट डालते हैं। दल के निर्देश का उल्लंघन सांसदी छीन लेता है। तब संसद संप्रभु कहां हुई? ‘नोट के बदले वोट’ का मसला विचाराधीन है। अन्ना आंदोलन ने राष्ट्र जागरण किया है। सरकार को उसकी हैसियत बताई है। जनगणमन को भी अपनी शक्ति का अहसास कराया है। इस आंदोलन ने भारतीय जनतंत्र को मजबूत और पुष्ट बनाया है।


अन्ना आंदोलन से राष्ट्रीय एकता का भाव उमड़ा है। कांग्रेसी इशारे पर इसे इस्लाम विरोधी बताने वाले लोग शर्मिदा हैं। इसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या भाजपा प्रायोजित बताने वाले भी लज्जित हैं। अन्ना आंदोलन ने सत्ता शक्ति को झुकाया है। इतिहास में जनशक्ति की जीत का नया अध्याय जुड़ गया है। भविष्य की पीढि़यां याद रखेंगी कि सर्वशक्तिमान भ्रष्टाचारी सत्ता को भी निहत्थों द्वारा हराया जा सकता है। राष्ट्रभाव जीत गया है। भ्रष्ट सरकार हार गई है। सड़कों पर उमड़ी भीड़ बढ़े राष्ट्रभाव का ही प्रभाव है।


लेखक हृदयनारायण दीक्षित उप्र विधानपरिषद के सदस्य हैं


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