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संसद की स्थायी समिति ने प्रस्तावित लोकपाल विधेयक का मसौदा संसद में पेश कर दिया है। अन्ना हजारे और उनकी टीम इस विधेयक को न केवल कमजोर बता रही है, बल्कि आम जनता के साथ मजाक भी। आश्चर्य नहीं कि अन्ना हजारे ने नए सिरे से अनशन और कांग्रेस के खिलाफ चुनाव प्रचार करने की घोषणा कर दी है। एक कदम और आगे जाते हुए अन्ना ने कमजोर मसौदे के लिए राहुल गांधी को जिम्मेदार बता दिया है। इस पूरे मसले पर संसद की स्थायी समिति के अध्यक्ष अभिषेक मनु सिंघवी से बातचीत की हमारे विशेष संवाददाता मुकेश केजरीवाल ने। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश-
टीम अन्ना का आरोप है कि आपने राहुल गांधी के इशारे पर कमजोर मसौदा तैयार किया है..
यह दुर्भाग्य की बात है कि आज देश में ऐसी असहिष्णुता पैदा की जा रही है। संसदीय समिति ने ग्रुप सी को बाहर रखने के इतने कारण दिए हैं, लेकिन उन पर बहस या चर्चा नहीं हो रही। सिर्फ निजी आरोप-प्रत्यारोप लगाए जा रहे हैं। कोई यह नहीं कह रहा कि कौन सा प्रस्ताव किस वजह से गलत है। बस सिर्फ इतना हो रहा है कि जो लोग आपकी बातों से सहमत नहीं उन पर सीधा हमला करो। क्या यह लोकतंत्र के विपरीत नहीं। जैसे आरोप मुझ पर लगाए जा रहे हैं, उस पर मुझे कोई आश्चर्य नहीं हो रहा, क्योंकि टीम अन्ना की यही आदत है। जो भी उनकी बात से सौ फीसदी सहमत नहीं होता, उस पर व्यक्तिगत हमले करते हैं। माहौल को विषाक्त बनाते हैं।
लेकिन क्या यह सच नहीं कि ग्रुप- सी पर सहमति बनने के बाद अचानक दूसरे ही दिन फिर से बैठक बुलाई और उसे बाहर कर दिया?
यह बिल्कुल मिथ्या प्रचार है। पहले आपको यह समझना चाहिए कि समिति ने कुल 24 मुद्दों पर विचार किया। इनमें से 13 पर सौ फीसदी सर्वसम्मति थी। 11 ही ऐसे मुद्दे थे, जिन पर कोई अहसमति दर्ज हुई। इन 11 मुद्दों में से भी दस ऐसे हैं, जिन पर सात-सात सदस्यों ने एतराज किया। एक मुद्दे पर जरूर 13 सदस्यों ने अहसमति दी, लेकिन इस पर भी 17 सदस्यों की सहमति थी। अब बात करते हैं ग्रुप सी को लोकपाल के दायरे में लाने को लेकर हुए विचार-विमर्श की। हमारी एक बैठक में पूरी तरह इसी मुद्दे पर विचार किया गया। उस विमर्श की दिशा इस ओर थी कि ग्रुप सी को लोकपाल के दायरे में लाया जाए, लेकिन उसी रात को और अगले दिन कई सदस्यों की चिज्ञि्यां और संदेश आए कि उन्हें ग्रुप सी के बारे में सही अंदाजा नहीं था। इसके दायरे में आने वाले कर्मचारियों की बड़ी संख्या का उन्हें ज्ञान नहीं था।
इतने लोगों को ग्रुप सी के बारे में कोई जानकारी ही नहीं थी और अचानक एक ही रात में इसका ज्ञान हो गया..
ऐसा नहीं है। अगले दिन की बैठक में दोबारा चर्चा हुई। नए सिरे से विमर्श के बाद कुल 17 सदस्यों ने इस पर सहमति दी है। इनमें सिर्फ सात ही कांग्रेस के हैं।
क्या आप इस बात से सहमत नहीं कि दुनिया भर में जहां भी भ्रष्टाचार के खिलाफ क्रांतिकारी कानून बने, वहां क्रांतिकारी विकास हुआ..
मैं आपको आश्वस्त करता हूं कि जो सिफारिशें स्थायी समिति ने दी हैं, उन्हें मान लिया गया तो स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह सबसे मजबूत और भ्रष्टाचार के खिलाफ बेहद शक्तिशाली कानून होगा।
सांसदों के भ्रष्टाचार के इतने मामले आए हैं, लेकिन इसके बाद भी आपने रिश्वत लेकर वोट देने या सवाल पूछने जैसे मामलों को लोकपाल के दायरे में लाने से इंकार कर दिया।
जो लोग ऐसा प्रस्ताव कर रहे हैं वे संविधान को न जानते हैं, न समझते हैं। जब तक संविधान के अनुच्छेद 105 को हटाने के लिए सहमति नहीं होती, तब तक यह नहीं हो सकता। यह संसद का विशेषाधिकार है। यह समझना होगा कि ऐसे मामलों में अगर लोकपाल कार्रवाई नहीं करता तो क्या कोई भी नहीं करता? ऐसा नहीं है। सांसद संसद के अंदर जो भी करते हैं उसकी जांच दूसरी एजेंसियों को नहीं दी गई है। लेकिन ऐसा नहीं है कि ऐसे भ्रष्टाचार की छूट दी गई है। हाल में हमने देखा है कि पांच से दस हजार रुपए तक लेने के आरोप में सात सदस्यों को कड़ी से कड़ी सजा दी गई।
लोकपाल को संवैधानिक संस्था बनाने पर आपका इतना जोर क्यों रहा?
इस तरह लोकपाल जो भी चाहता है, उसे ज्यादा प्रभावकारी ढंग से उठा सकेगा।
लेकिन दो तिहाई बहुमत के चक्कर में कहीं लोकपाल ही तो नहीं अटक जाएगा?
ऐसा कहना बिल्कुल कुतर्क होगा। जिस दिन संसद में लोकपाल कानून पास हो, उसी दिन दो तिहाई बहुमत से इसे भी मंजूरी दी जा सकती है। लोकपाल का बिल बड़ा होगा, यह तो सिर्फ दो पन्नों का होगा।
आपने राज्यों में लोकायुक्त के दायरे में तो ग्रुप सी और डी को भी रखा, लेकिन केंद्र में इससे इंकार कर दिया..
राज्यों के लोकायुक्त की संस्था पुरानी है। उसके पास इस काम का अनुभव है, लेकिन लोकपाल एक नई संस्था होगी, इस पर एक साथ इतना बोझ नहीं दिया जा सकता।
केंद्रीय कानून बनने के बाद राज्यों के लोकायुक्त कानूनों का क्या होगा?
केंद्रीय कानून पास हो गया तो राज्यों के कानून अपने आप निरस्त हो जाएंगे। जो प्रदेश अपने यहां उसमें कोई एक-आध बदलाव करना चाहेंगे, उसके लिए उन्हें राष्ट्रपति से इजाजत लेनी होगी।
यानी, उत्तराखंड सरकार ने जो सख्त लोकपाल बनाया, वह भी आपके कानून के बाद कमजोर हो जाएगा?
यह केंद्रीय कानून क्या सिर्फ उत्तराखंड के लिए बनाया गया है। उल्टा उत्तराखंड की भाजपा सरकार ने जानबूझकर राजनीतिक कारणों से जल्दबाजी में इसे लागू करवाया है।
आखिर प्रधानमंत्री ही क्यों संदेह से परे हों?
हमने उल्टा ज्यादा साफगोई दिखाते हुए उन्हें लोकपाल के दायरे में लाने को लेकर तीनों प्रस्तावों को संसद के सामने रख दिया है। अब संसद इसमें से जो ठीक समझे तय करे। हम चाहते तो उन्हें लोकपाल के दायरे से बाहर रखने का सीधा प्रस्ताव भी कर सकते थे, क्योंकि बहुमत इसके खिलाफ है।
भ्रष्टाचार के हर आरोप की प्रारंभिक जांच लोकपाल करे, फिर सीबीआइ के जांच हो, उसके बाद फिर लोकपाल के पास आए.. जांच की यह कैसी व्यवस्था होगी?
टीम अन्ना चाहे तो कह सकती है कि एक ही लोकपाल के पास सारे अधिकार हों। ग्रुप ए से लेकर डी तक पर वही नजर रखे। तो क्या हम 40 हजार लोगों की एक और नई अफसरशाही खड़ी करना चाहते हैं? फिर अगले दो-तीन साल बाद आप कहेंगे कि लोकपाल की अफसरशाही के भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए अलग से एक धर्मपाल बनाएं।
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