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सबसे बड़ा राजनीतिक छल

जागरण मेहमान कोना
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A Surya Prakash संसद में 1968 से शुरू हुआ लोकपाल का सफर अभी भी अधूरा रहने के लिए कांग्रेस को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं ए. सूर्यप्रकाश


जब भी लोकपाल कानून बनाने की बात आती है, भारत के राजनेता अपने पैर खींच लेते हैं और लोगों को बहकाने लगते हैं कि उनके तमाम प्रयासों के बावजूद कुछ कानूनी पेचों और राजनीतिक घटनाक्रम के कारण इसे वैधानिक पुस्तकों में स्थान नहीं मिल पाया। क्या यह सच है? जब विधान की किताब लिखी जाएगी तो बहुत से राजनेताओं, जिनमें दो पूर्व प्रधानमंत्री भी शामिल हैं, का आकलन बहुत कड़े शब्दों में होगा। लोकपाल की अब तक की प्रक्रिया पर नजर डालने से यह स्पष्ट हो जाता है। लोकपाल की जरूरत सबसे पहले 1960 में प्रशासनिक सुधार आयोग [एआरसी] ने जताई थी। 1966 में भ्रष्टाचार व अकुशलता से निपटने के उपाय के तौर पर एआरसी ने एक अंतरिम रिपोर्ट जारी की। साथ ही इसने एक मसौदा भी तैयार किया था। इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार ने मुस्तैदी दिखाते हुए मई 1968 में लोकपाल और लोकायुक्त बिल पेश किया। इस पर दोनों सदनों की संयुक्त समिति ने विचार किया और 1969 में लोकसभा में यह बिल पारित किया गया। यह बिल राज्यसभा में लंबित पड़ा रहा। इसके बाद लोकसभा भंग हो गई और बिल रद हो गया।


1971 में आम चुनाव में जोरदार जीत के बाद सत्तारूढ़ इंदिरागांधी ने लोकपाल बिल को फिर से लोकसभा में पेश किया, किंतु यह लोकसभा के एक साल के अतिरिक्त कार्यकाल के बावजूद पारित नहीं हो सका। इसका इंदिरा गांधी सरकार के पास कोई जवाब नहीं था, क्योंकि संसद के दोनों सदनों में उन्हें दो-तिहाई से अधिक बहुमत हासिल था। 1977 में कांग्रेस की करारी हार के बाद जनता पार्टी ने नए सिरे से लोकपाल बिल लोकसभा में पेश किया। इसे संसद की संयुक्त समिति के पास भेज दिया गया, जिसने जुलाई 1978 में अपनी रिपोर्ट पेश की। बिल पर विचार चल ही रहा था कि लोकसभा भंग हो गई और बिल रद हो गया। जनता पार्टी के शासन के पतन के बाद एक बार फिर इंदिरा गांधी भारी बहुमत से चुनकर आईं, लेकिन इस बार उन्होंने बिल पेश करने की जहमत नहीं उठाई। 1985 में राजीव गांधी सरकार ने लोकपाल बिल का प्रस्ताव रखा। यह वह समय था जब आम चुनाव में प्रचंड बहुमत के बाद राजीव गांधी जनता में बेहद लोकप्रिय थे और उन्हें मिस्टर क्लीन की उपाधि से नवाजा जाता था। वह व्यवस्था की सफाई करने और दलालों के खात्मे की बातें कर रहे थे। अपनी मां की तरह ही राजीव गांधी के पास भी संसद में भ्रष्टाचार रोधी कानून पास कराने के लिए भारी बहुमत था। उनके पास लोकसभा की 410 सीटें थीं, किंतु कुछ बड़े-बड़े दावे करने के बाद उन्होंने भी पांव पीछे खींच लिए। इसके पश्चात गैरकांग्रेसी सरकारें लोकपाल लाने के असफल प्रयास करती रहीं। 1989 में वीपी सिंह, 1996 में देवगौड़ा, 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी बिल लेकर आए, किंतु हर बार लोकसभा भंग होने के कारण ये रद हो गए।


इस घटनाक्रम से क्या सबक मिलता है? दुर्भाग्य से राजनीतिक तबके के तमाम बड़े खिलाड़ी लोकपाल विधेयक से पीछे हटते रहे हैं, किंतु निश्चित तौर पर कुछ राजनेता और पार्टियां दूसरों से अधिक दोषी हैं। 2011 तक लोकपाल बिल लोकसभा में आठ बार पेश हो चुका है। सात मौकों पर यह लोकसभा भंग होने के कारण रद हो चुका है। एक बार इसे सरकार ने वापस ले लिया था। वर्तमान सरकार ही लोकपाल बिल को दो बार पेश कर चुकी है। पहली बार अगस्त 2011 में बिल लाया गया था। इसे सरकार ने वापस ले लिया और इसके स्थान पर दिसंबर 2011 में नया बिल पेश किया। संविधान के अनुसार सरकार किसी भी सदन में विधेयक पेश कर सकती है, किंतु विधेयक लाने की प्रक्रिया दोनों सदनों में अलग-अलग होती है। राज्यसभा स्थायी सदन है। यह कभी भंग नहीं की जा सकती। पहले इसमें पेश किया गया बिल कभी रद नहीं हो सकता, किंतु लोकसभा के भंग होने का प्रावधान है। इसमें पेश किया गया बिल तब रद हो जाता है, जब लोकसभा भंग हो जाती है या फिर लोकसभा द्वारा पारित किया गया बिल राज्यसभा में लंबित हो और इस बीच लोकसभा भंग हो जाए। इस तथ्य से राजनीतिक तबके की नीयत साफ हो जाती है कि सात बार रद होने वाले लोकपाल बिलों को राज्यसभा में पेश ही नहीं किया गया। 1968 में पहली बार लोकसभा में पेश होने के बाद से दो-तीन ऐसे मौके जरूर आए जब सत्तारूढ़ पार्टी बड़ी आसानी से लोकपाल बना सकती थी। पहला मौका इंदिरा गांधी के सामने आया। 1968 में इंदिरा गांधी ने बिल को राज्यसभा में पेश नहीं किया। 1971 में तो उन्हें और भी जबरदस्त बहुमत मिला और उन्होंने मुस्तैदी से लोकपाल और लोकायुक्त बिल फिर से पेश भी किया। इस सरकार ने देश पर आपातकाल थोपा और अपने प्रचंड बहुमत के बल पर संविधान को सिर के बल उलटा कर दिया, किंतु इसने लोकपाल के गठन का कोई सार्थक प्रयास नहीं किया। लोकपाल को लटकाने के दूसरे दोषी प्रधानमंत्री थे राजीव गांधी। उन्हें जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी से भी अधिक बहुमत मिला, लेकिन उनमें इतना साहस ही नहीं था कि लोकपाल का गठन कर पाते। सदन में पेश करने के बाद उन्होंने बिल वापस ले लिया।


एक बार फिर लोकपाल बिल कांग्रेस सरकार के पाले में है। बिल लटकाने की सारी तिकड़में भिड़ाने के बाद एक तरह से कांग्रेस राज्यसभा से तब भाग खड़ी हुई जब निचले सदन से पारित बिल में राज्यसभा सदस्यों ने संशोधन पेश किए। अब कांग्रेस अजीबोगरीब दलील पेश कर रही है कि राज्यसभा में उसके पास बहुमत नहीं है और अपने सहयोगियों की दया पर निर्भर करती है। यह सच हो सकता है, लेकिन क्या हम इतिहास को भुला सकते हैं? अगर कांग्रेस 1971-77 और 1980-89 में अपने प्रचंड बहुमत का इस्तेमाल करने का साहस दिखाती तो क्या हम 2012 में लोकपाल पर विचार कर रहे होते?


लेखक ए. सूर्यप्रकाश वरिष्ठ स्तंभकार हैं


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