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गैर कांग्रेसवाद की धुरी

जागरण मेहमान कोना
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जंतर-मतर में अन्ना के मच पर विपक्षी नेताओं की सक्रियता से नए समीकरण उभरते देख रहे हैं प्रशांत मिश्र


जंतर-मतर में अन्ना के मच पर विपक्षी नेताओं की सक्रियता से नए समीकरण उभरने के सकेत मिल रहे हैं। टीम अन्ना अभी भी अपने आंदोलन को कांग्रेस विरोधी, दलगत या चुनावी राजनीति से जोड़ने में सकोच कर रही है। उनके अनुसार लोकपाल पर खुली बहस का न्यौता कांग्रेस, एनसीपी समेत सभी दलों को भेजा गया था, जिसमें विपक्षी नेताओं ने शिरकत की और अपनी बात रखी। इस तरह अन्ना अपने आदोलन को अभी भी गैरसियासी भ्रष्टाचार विरोधी मुद्दे तक सीमित दिखा रहे हैं। टीम अन्ना को भरोसा है कि विपक्षी दल अपनी कांग्रेस विरोधी राजनीति में इस आदोलन के मच का दुरुपयोग नहीं कर पाएंगे। यह भी सही है कि उस मच से सभी विपक्षी नेताओं ने अन्ना आदोलन से अपने मतभेदों को भी जाहिर किया। भाजपा के अरुण जेटली ने टीम अन्ना को लोकपाल के स्वरूप की बहस अब ससद पर छोड़ने को कहा तो सीपीआइ के एबी बर्धन ने एक प्रकार से पूरी सिविल सोसाइटी को उसकी हदें भी दिखाने में सकोच नहीं किया। थोड़ा बारीकी से देखने पर यह भी साफ होता है कि सीबीआइ को लोकपाल के दायरे में लाने जैसी बातों पर अभी भी विपक्षी दल साफगोई से काम नहीं ले रहे।


इस तरह से कम से कम ऊपरी तौर पर अभी अन्ना आदोलन व गैरकांग्रेसी दलों के बीच भी दूरी दिखती है। लेकिन इस दूरी के सिमटते जाने के स्पष्ट सकेत भी मिल रहे हैं। इस बात का महत्व इसलिए अधिक है, क्योंकि लगभग इसी तरह से जयप्रकाश नारायण और विश्वनाथ प्रताप सिह की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम आखिर में काग्रेस विरोधी राजनीति में तब्दील हो गई। इस मुहिम से जुड़कर ही गैरकांग्रेसी दलों के लिए केंद्रीय सत्ता का दरवाजा खुला था। सवाल उठना स्वाभाविक है कि कहीं जंतर-मतर से जेपी और वीपी सिह जैसे गठबंधन पुनरावृत्ति तो होने नहीं जा रही है। जंतर-मतर से अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और विपक्षी दलों की कांग्रेस विरोधी राजनीति के बीच नए गठजोड़ की सभावना को निराधार नहीं कहा जा सकता। वरना तो यह समझना कठिन है कि टीम अन्ना अचानक विपक्षी दलों के लिए इतना विनम्र कैसे हो गई है?


इसी जंतर-मतर पर अन्ना के पहले अनशन के समय बिन बुलाए आए उमा भारती और ओमप्रकाश चौटाला जैसे नेताओं को अपमानित होना पड़ा था। उन्हें मच तक पर नहीं चढ़ने दिया गया था। अन्ना ने उस समय कहा था कि वह राजनीतिक नेताओं को बुलाकर मच को अपवित्र नहीं होने देंगे। साथ ही महाराष्ट्र के अनुभव के आधार पर नेताओं पर कटाक्ष भी मारा था कि वहा उन्होंने राजनीतिक दलों को मच पर बैठाने की सदाशयता दिखाई थी, लेकिन बाद में उन्हें पता चला कि उन नेताओं ने उनके आदोलन का दुरुपयोग कर ‘भ्रष्टाचार में पीएचडी’ कर ली। उस समय अन्ना ने न सिर्फ सभी राजनीतिक दलों बल्कि चुनाव व जनतंत्र पर भी हमला करने में संकोच नहीं किया था। अब अन्ना का वही मच विपक्षी नेताओं के लिए खुल गया है। अन्ना के आंदोलन की सोच में यह बदलाव अचानक तो शायद नहीं आया होगा। इसका हल्का इशारा उसी समय मिल गया था, जबकि हिसार लोकसभा के उपचुनाव में टीम अन्ना ने कांग्रेस हराओ अभियान छेड़ा।


अगर टीम अन्ना ने दलगत विरोध की राजनीति के अपने सुरों को हल्का किया है तो विपक्षी दलों के लिए भी रामलीला मैदान में ओमपुरी और किरण बेदी द्वारा राजनीतिज्ञों और ससद के अपमान की बात अब शायद पुरानी हो गई है। दरअसल, विरोधी दलों को भरोसा है कि आगामी पाच विधानसभा चुनाव में उन्हें अन्ना के काग्रेस विरोधी आदोलन से लाभ होगा। और हो सकता है कि यह समीकरण उभरे कि भविष्य में संप्रग को सत्ता से बेदखल करने की शक्ति दे। विपक्षी दलों को जनता पार्टी और जनता दल के सत्ता में आने की कहानी पूरी तरह मालूम है। यह सच है कि लोकसभा चुनाव अभी बहुत दूर है। लेकिन जेपी व वीपी के भ्रष्टाचार विरोधी आदोलन से जुड़े कई विपक्षी नेता दोनों सत्ता परिवर्तन के वाहकों में भी रहे हैं। वे स्वाभाविक तरीके से सोच सकते हैं कि इस समीकरण से वे केंद्र में काग्रेस को जब दो बार बेदखल कर चुके हैं तो वैसा ही समीकरण तीसरी बार भी सत्ता की सीढ़ी तक पहुंचा सकता है। इतिहास साक्षी है कि सत्ता में आने के लिए सिर्फ सटीक समीकरण बैठाने की ही आवश्यकता होती है। यदि वह बैठ गया तो बड़े-बड़े अंतर्विरोध भी गठबधन को सत्ता में आने से रोक नहीं सकते।


जनता पार्टी और जनता दल के कई प्रयोगों और अतंर्विरोधों की कमी नहीं थी। उन दिनों इस आंदोलन में कई भ्रष्ट संगठन भी बेखौफ शामिल हो गए थे। जब ऐसे ही आरोप लगे थे तो वीपी सिह को सफाई देनी पड़ी थी कि ‘जब आग लगती है तो आग बुझाने वालों की नैतिकता पर सवाल नहीं किए जाते।’ ऐसे ही समीकरणों में कई बार भाजपा [जनसघ] और उनके धुरविरोधी वामपंथी दल भी शामिल हो चुके हैं। सत्ता में आने के लिए नेशनल फ्रंट, लेफ्ट फ्रंट, यूनाइटेड फ्रंट, थर्ड फ्रंट जैसी कई व्यवस्थाएं पहले भी बन चुकी हैं। हमारे राजनेताओं में आवश्यक्तानुसार ऐसे कई फ्रंट खड़े करने की क्षमता भी है। जब भारतीय राजनीति में सत्ता में आने के लिए कई विचित्र, असभव से दिखने वाले प्रयोग हो चुके हैं तो इसे सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता कि जंतर-मतर से भी कहीं ऐसे ही एक अभियान का सूत्रपात तो नहीं हो रहा।


वास्तव में, हर सफल गैरकांग्रेसी आंदोलन का आरंभ इसी तरह गैरसियासी अभियान से ही हुआ। जेपी व वीपी दोनों के ही आंदोलन भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम से शुरू हुए थे। शुरुआती दौर में दोनों ही आंदोलनों में दलगत राजनीति को नहीं स्वीकारा गया था। जेपी तो दलहीन जनतंत्र के सिद्धात के जन्मदाता ही हैं। वीपी सिह भी अपने अभियान को आंदोलन या मच ही बताते थे। अन्ना आंदोलन का पहला दौर भी ठीक इसी तरह चला। जैसे आखिर में जेपी और वीपी का अभियान कांग्रेस विरोधी राजनीतिक दलों से जुड़ गया था। अन्ना के अभियान में भी कुछ-कुछ वैसी ही शुरुआत के सकेत मिलने लगे हैं। अब आगे यह देखना दिलचस्प होगा कि अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान और विपक्षी दलों के काग्रेस विरोधी अभियान में कितना नजदीकी तालमेल बैठ पाता है। 27 दिसबर से प्रस्तावित अन्ना के आठ दिवसीय अनशन के समय तस्वीर कुछ और साफ होगी और पाच विधानसभा चुनाव तक पूरा खाका स्पष्ट हो जाएगा। फिलहाल इतना तो निस्सकोच कहा ही जा सकता है कि जंतर-मतर से एक नए गठजोड़ के शुरुआती संकेत मिल रहे हैं।


लेखक प्रशांत मिश्र जागरण के राजनीतिक संपादक हैं


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