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बाबू लोकपाल से बाहर क्यों

जागरण मेहमान कोना
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Umesh Chartuvediलोकपाल बिल पर जिस तरह संसद की स्थायी समिति में कांग्रेस के ही सदस्यों ने मौजूदा मसविदा का विरोध किया है, उससे साफ है कि कांग्रेस में भी लोकपाल बिल पर सरकार के आधिकारिक रुख पर सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है। कार्मिक, जनशिकायत और कानून मंत्रालय की जो स्थायी संसदीय समिति लोकपाल बिल का अध्ययन कर रही है, उसमें तीस सदस्य हैं। इनमें सत्ताधारी कांग्रेस के सबसे ज्यादा दस सदस्य हैं। इनमें भी दो राज्यसभा के हैं, जबकि आठ लोकसभा के। इन आठ में से तीन सदस्यों का जनलोकपाल बिल के मौजूदा मसविदे का विरोध करना कोई मामूली बात नहीं है। मंदसौर की युवा कांग्रेसी सांसद मीनाक्षी नटराजन ने लोकपाल बिल में उस विवादित मसले को शामिल करने का सुझाव दिया है, जिससे अब तक सरकार इनकार करती रही है। अन्ना हजारे की टीम की मांग है कि केंद्र सरकार के ग्रुप-सी के कर्मचारियों को भी लोकपाल के दायरे में लाया जाए। अरविंद केजरीवाल तो खुलेआम कह चुके हैं कि बिना सीबीआइ के लोकपाल कानून टिन के डिब्बे से ज्यादा कुछ नहीं होगा, जिसका कांग्रेस भी खुलकर विरोध जता चुकी है। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि लोकपाल कानून की जांच कर रही स्थायी समिति की कांग्रेस सदस्य मीनाक्षी नटराजन ने न सिर्फ ग्रुप-सी के कर्मचारियों को लोकपाल के तहत लाने का सुझाव दिया है, बल्कि मुख्य सतर्कता आयुक्त और सीबीआइ को भी लोकपाल के अधीन लाने की सिफारिश की है।


हैरत की बात यह है कि समिति की पिछली बैठकों में इस मांग का विरोध करती रहीं दीपा दासमुंशी और केरल से कांग्रेस सांसद पीटी थॉमस भी इसके पक्ष में खुलकर आ गए हैं। यह बात और है कि खबरों के मुताबिक स्थायी समिति मौजूदा मसविदे को ही मंजूर करके राज्यसभा के सभापति को सौंपने वाली है। यहां यह साफ कर देना जरूरी है कि राज्यसभा के सभापति को यह समिति अपनी रिपोर्ट इसलिए पेश करेगी, क्योंकि अभिषेक मनु सिंघवी की अध्यक्षता वाली यह स्थायी समिति राज्यसभा के अधीन ही काम करती है। संसदीय व्यवस्था में जो स्थायी समिति जिस सदन के अधी काम करती है, वह अपनी रिपोर्ट या सिफारिशें संबंधित सदन के स्पीकर या सभापति को ही पेश करती हैं। बहरहाल, मीनाक्षी नटराजन, पीटी थॉमस और दीपा दासमुंशी की सिफारिशें भले स्वीकार नहीं की गई हों, लेकिन उनकी बात रिकॉर्ड में दर्ज हो ही गई है। इसलिए यह मानना कि लोकपाल को लेकर संसद की स्थायी समिति में भी कांग्रेस की वैसी ही एक राय रही है, जैसी कि सरकार में रही है तो यह थोड़ी ज्यादती होगी।


मीनाक्षी नटराजन की ख्याति खांटी ईमानदार राजनेता के तौर पर रही है। राष्ट्रीय छात्र संगठन की अध्यक्ष रह चुकी मीनाक्षी नटराजन को संसद के मैदान तक पहुंचाने में कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी की बड़ी भूमिका रही है। मीनाक्षी राहुल गांधी की करीबी भी मानी जाती रही हैं। इतना ही नहीं, राहुल गांधी की टीम में भी वह शामिल हैं। ऐसे में अगर यह माना जाने लगे कि स्थायी समिति में मीनाक्षी ने परोक्ष तौर पर राहुल गांधी के ही विचार जाहिर किए हैं तो गलत भी नहीं होगा। फिर दीपादास मुंशी का अपने पिछले रुख से बदल जाना भी कोई मामूली बात नहीं हैं। दीपा दासमुंशी कोमा में जा चुके कांग्रेस के कद्दावर नेता प्रियरंजन दासमुंशी की पत्नी हैं और गांधी-नेहरू परिवार से उनकी नजदीकी जगजाहिर है। यानी मीनाक्षी नटराजन और दीपादास मुंशी अपने विचार जाहिर कर रही हैं तो इसके तार राहुल गांधी से जोड़ा ही जाएगा। लेकिन यह सवाल भी मौजूं है कि कांग्रेस में गांधी-नेहरू परिवार की मर्जी के बिना भी कोई कदम उठाया जा सकता है! अब तक की रवायत तो इसे मानने का कोई आधार ही नहीं मुहैया कराती। कांग्रेस की रवायत और मीनाक्षी के कदम, दोनों ही केंद्र सरकार और कांग्रेस नेतृत्व की मंशा पर सवाल उठा रहे हैं।


दरअसल, टीम अन्ना अब भी अपने रुख पर कायम है। टीम अन्ना का मानना है कि जब तक ग्रुप-सी के कर्मचारियों मसलन इंस्पेक्टर, पटवारी, हेड क्लर्क आदि को लोकपाल के दायरे में नहीं लाया जाएगा, देश में भ्रष्टाचार पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता। देश में ग्रुप-सी के 57 लाख कर्मचारी केंद्र सरकार के हैं। इन्हीं कर्मचारियों से जनता का सीधा और ज्यादा वास्ता पड़ता है। अगर ये लोकपाल के दायरे में नहीं होंगे तो जनता इनके खिलाफ उसी तरह मन मसोसने के लिए मजबूर रहेगी, जैसा आज रहती है। जाहिर है कि इसका फायदा जनता को नहीं मिल पाएगा, लेकिन सरकार का तर्क है कि लोकपाल के दायरे में इन कर्मचारियों को लाने के बाद लोकपाल की मशीनरी को भी बढ़ाना पड़ेगा। जिसके लिए देश को भारी रकम खर्च करनी होगी। कांग्रेस और केंद्र सरकार इसी बहाने ग्रुप-सी को लोकपाल से अलग रखे हुए है। सीबीआइ पर केंद्र सरकार अपना नियंत्रण खोना नहीं चाहती। यह सच है कि सीबीआइ देश की अब भी सबसे निष्पक्ष और बेहतर जांच एजेंसी मानी जाती है, लेकिन यह भी सच है कि उसका राजनीतिक इस्तेमाल खूब होता है। सुप्रीम कोर्ट भी कई मामलों की जांच सीबीआइ को सौंपते वक्त संबंधित टीम को अपनी निगरानी में रखता रहा है। सुप्रीम कोर्ट के इस कदम की वजह सीबीआइ का राजनीतिक इस्तेमाल ही रहा है। यह सच है कि मौजूदा केंद्र सरकार कांग्रेस की अगुआई वाली है, लिहाजा सीबीआइ पर नियंत्रण न छोड़ने का आरोप कांग्रेस को ही झेलना पड़ रहा है। लेकिन हकीकत यही है कि अगर भारतीय जनता पार्टी की अगुआई वाली भी सरकार होती तो शायद वह भी सीबीआइ पर से अपना नियंत्रण नहीं खोना चाहती।


भाजपा के दिवंगत नेता प्रमोद महाजन तो प्रसार भारती की स्वायत्तता पर खुलकर सवाल उठा ही चुके थे कि आखिर सरकार पैसे खर्च करेगी तो दूरदर्शन या आकाशवाणी सरकार को क्यों नहीं दिखाएंगे। टीम अन्ना सीबीआइ पर देश के दूसरे लोगों की तरह भरोसा तो करती है, लेकिन उसे राजनीतिक नियंत्रण से मुक्त करना चाहती है। उसकी दलील है कि सीबीआइ को लोकपाल के दायरे में लाए बिना मजबूत लोकपाल भ्रष्टाचार रोकने में कामयाब नहीं हो पाएगा, लेकिन सरकार इसे नकारती रही है और कांग्रेस पार्टी उसका समर्थन करती रही है। अन्ना हजारे 11 दिसंबर को सांकेतिक अनशन और 27 दिसंबर से एक बार फिर रामलीला मैदान में बैठने का ऐलान कर ही चुके हैं। इसके बावजूद सरकार और स्थायी समिति लोकपाल विधेयक के मौजूदा मसविदे से पीछे हटने और अन्ना की मांगों के मुताबिक सीबीआइ और ग्रुप-सी के कर्मचारियों को जोड़ने के लिए तैयार नहीं है। जाहिर है कि सरकार और अन्ना हजारे के बीच टकराव की भूमिका फिर तैयार हो रही है। ऐसे में मीनाक्षी नटराजन के सुझाव और दीपा दासमुंशी एवं पीटी थॉमस का उसे समर्थन कांग्रेस नेतृत्व की चाल तो नहीं है? यह सवाल भी इन दिनों पूछा जा रहा है। सतह से दिखने में इस मुद्दे पर कांग्रेस में मतभेद नजर आता है, लेकिन इस पर गौर नहीं फरमाना और इन सुझावों को तब टाल देना, जबकि सुझाव देने वाला कांग्रेस नेतृत्व का नजदीकी शख्स है, शक की गुंजाइश के लिए मौके देता है। तो क्या यह मान लिया जाए कि यह कांग्रेस की रणनीति है और इस बहाने वह लोकपाल बिल के विवादित प्रावधानों पर अन्ना और देश के मिजाज के तापमान का परीक्षण कर रही है। यानी अन्ना नहीं माने और देश ने उनका साथ दिया तो लोकपाल बिल में इन प्रावधानों को भी जोड़ दिया जाए और इसके लिए तब वाहवाही भी लूट ली जाए कि उसके तीन सांसदों ने भी ये सुझाव तो दिए ही थे। यह कहकर कांग्रेस नेतृत्व अन्ना की बजाय खुद श्रेय भी ले सकता है।


कांग्रेस के इन भावी कदमों की संभावना और आशंका इसलिए है कि कांग्रेस और सरकार लोकपाल के मसले को टालती रही है, अन्ना को दबाने की कोशिश भी करती रही है और मजबूरी में उनके सामने समर्पण भी करती रही है। अगर देश नहीं झुका तो कांग्रेस महासचिव को इन मसलों को कानून में शामिल कराने का श्रेय भी दिया जा सकेगा। देश के भावी अगुआ की छवि बनाने के लिए ऐसे कदम कांग्रेस के एक वर्ग से बार-बार उठे हैं। लिहाजा, मीनाक्षी समेत तीन सांसदों के सुझावों को उन्हीं कवायदों से जोड़कर देखने में कोई हर्ज भी नजर नहीं आता।


लेखक उमेश चतुर्वेदी स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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