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कश्मीर में सेना की भूमिका

जागरण मेहमान कोना
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हाल के सालों में जम्मू-कश्मीर का यह साल सबसे अच्छा रहा। सभी पार्टियों द्वारा राजनीतिक अंक अर्जित करने की आपाधापी में लोग इस बात को भूल जाते हैं कि बड़ी संख्या में पर्यटकों की आवक और उसकी वजह से कश्मीर के लोगों की आमदनी में वृद्धि और करारे नोटों से पैदा फील गुड फैक्टर के चलते जो अच्छे दिन आए हैं, वे सेना और केंद्रीय अ‌र्द्ध-सैनिक बलों के शौर्य और बलिदान का नतीजा है। लगता है कि पाकिस्तान समर्थित अलगाववाद काबू में आ गया है और जम्मू-कश्मीर के परेशान लोगों को यह भी पता चल गया है कि दूसरे देशों के बढ़ावे से की जा रही साजिशों से भारत अपने लोगों की रक्षा करने में समर्थ है। इस बात को न भूलें कि यह सब उस सशस्त्र सेना विशेषाधिकार अधिनियम के तहत संभव हो पाया है, जिस पर अक्सर कीचड़ उछाली जाती है। इसमें रत्ती भर भी संदेह नहीं है कि कश्मीर में हिंसा और हजारों कश्मीरियों की मौतें, 1999 में कारगिल में जिहादियों को भेजने का मकसद पाकिस्तान सेना की आइएसआइ की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करना था। यह कोई स्थानीय विद्रोह नहीं था, बल्कि इसे तो सशस्त्र सेनाओं जैसे राष्ट्रीय संसाधनों और सशस्त्र सेना विशेषाधिकार अधिनियम और महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम (मकोका) जैसे समर्थ कानूनों से लड़ा गया था। धार्मिक या क्षेत्रीय फायदों के लिए विद्रोहों में विदेशी हस्तक्षेप के खतरे पर काबू पाने और उसे खत्म करने के लिए किसी भी प्रभुतासंपन्न देश के पास इस प्रकार के साधनों का होना जरूरी है। इन विदेशी एजेंटों के काम करने के तौर-तरीकों का खुलासा कश्मीर के बारे में पाकिस्तान के एक कट्टर समर्थक ने किया है।


होमलैंड सिक्योरिटी एक्ट और 9/11 के आतंकी हमले के बाद लागू पेट्रियट एक्ट के तहत काम करने वाली इसकी आतंक-विरोधी एजेंसियों को पता चला कि एक कश्मीरी देशभक्त की आड़ में कथित रूप से कश्मीरियों पर भारतीय सेनाओं के अत्याचारों का खुलासा करने वाला व्यक्ति, गुलाम नबी फई, वास्तव में पाकिस्तान आर्मी की आइएसआइ का एक वेतनभोगी जासूस था। उसने कई नामचीन भारतीयों को अपने तमाशों और प्रौपेगैंडा आयोजनों में शामिल होने के लिए राजी किया, जिससे पता चलता है कि वह देश अपने गंदे कामों के लिए किस प्रकार राज्य-इतर पक्षों का इस्तेमाल करता है। कश्मीर का अब्दुल्ला परिवार अपने लोगों की कश्मीरियत बरकरार रखने के दृढ़ निश्चय का एक शानदार उदाहरण है। लगता है कि युवा मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला विद्रोहों से निपटने के एक समर्थ माध्यम के खिलाफ विदेशी दुष्प्रचार से प्रभावित हो गए हैं। इस अधिनियम की कुछ कमियां हैं और विद्रोहों के खिलाफ इसके इस्तेमाल के दौरान उत्पीड़न भी हुआ है। इस प्रकार की गतिविधियों में लिप्त किसी भी सशस्त्र सैन्यकर्मी के प्रति किसी को भी सहानुभूति नहीं है, लेकिन इसे रद कर देने का मतलब तो भारत को उसके रक्षा कवच से मुक्त कर देना होगा।


विद्रोह और आतंकवाद-विराधी अभियान बड़े ही पेचीदा होते हैं और उनकी जटिलताएं हमेशा सामने नहीं आतीं। फिर भी जम्मू-कश्मीर में अचानक हथगोलों के हमलों की घटनाओं में वृद्धि बहुत ही सोचे-समझे वक्त पर हुई है। इससे ठीक पहले अमेरिका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया ने अलग-अलग लेकिन सोच-समझ कर एडवाइजरी जारी की है और ऑस्ट्रेलिया ने तो पर्थ में चोगम सम्मेलन में पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल के एक सदस्य के रूप में पाक-कब्जे वाले कश्मीर के एक प्रतिनिधि की उपस्थिति में मदद तक की। हथगोले-हमलों का मकसद तीन एडवाइजरीज द्वारा उत्पन्न असुरक्षा की भावना को मजबूती देना था। इसे मैत्रीपूर्ण कार्रवाई नहीं कहा जा सकता। युवा उमर अब्दुल्ला को पिछले दो सालों में उनके राज्य में धैर्य और धीरज से आने वाली शांति और समृद्घि की झलक के लिए अल्लाह और सशस्त्र सेना विशेषाधिकार अधिनियम का शुक्रगुजार होना चाहिए।


लेखक पीएन खेड़ा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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