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सेना प्रमुख की नीयत पर सवाल क्यों

जागरण मेहमान कोना
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Awdhesh Kumarथलसेना अध्यक्ष जनरल वीके सिंह का प्रधानमंत्री को लिखा गया पत्र, फिर उसका सार्वजनिक होना, टेट्रा कंपनी के ट्रक खरीद पर घूस देने की पेशकश का आरोप तथा रक्षामंत्री एके एंटनी का इन सब पर दिया गया जवाब आदि से ऐसा उलझा हुआ माहौल बना है, जिसमें आम नागरिक के लिए कोई निश्चित निष्कर्ष निकाल पाना कठिन हो गया है। कुछ राजनीतिक दलों ने जिस तरह जनरल सिंह की बर्खास्तगी की मांग की, उससे मामला और पेचीदा हो गया। किसी की नजर में जनरल सिंह खलनायक तो किसी के लिए वे हीरो हैं, जिन्होंने लचर रक्षा व्यवस्था को सुर्खियों में लाने का काम किया। कोई एंटनी को ऐसा रक्षामंत्री साबित कर रहा है, जो न रक्षा जिम्मेवारियों का निर्वहन कर पा रहा है, न गड़बडि़यों के विरुद्ध आवश्यक कठोर कार्रवाई ही कर सका है। किसी के अनुसार इससे सेना के भीतर चल रहे द्वंद्व का भी पता चलता है और जनरल सिंह ने इसमें इजाफा किया तथा रक्षामंत्री एवं सरकार इसे रोक पाने में कामयाब नहीं हुई है। इसमें इतने पहलू गुंथ गए हैं कि इसकी गुत्थम-गुत्थी को अलग करके साफ तस्वीर बनाना कठिन है। वैसे जनरल सिंह का उम्र विवाद देश के मानस पर नहीं होता तो इस समय उन्हें व्यापक समर्थन मिलता। पत्र लीक होने तथा घूस के बारे में उनके बयान का पहली नजर में यह अर्थ निकाला गया कि उम्र विवाद में सरकार से समर्थन न मिलने के कारण वे खीझ निकाल रहे हैं। मई में उनकी सेवानिवृत्ति की ओर इशारा करते हुए समय को संदेह का आधार बनाया जा रहा है। उन्होंने 12 मार्च 2012 को पत्र लिखा है।


प्रश्न उठाया जा रहा है कि उन्होंने पहले पत्र क्यों नहीं लिखा? रक्षा मंत्री का कहना है कि सेना के तीनों अंगों के प्रमुखों को सरकार का विश्वास हासिल है। इसका अर्थ यह हुआ कि कुछ नेताओं के आग उगलने के बावजूद जनरल सिंह 30 दिसंबर 1998 को बर्खास्त तत्कालीन नौसेना अध्यक्ष एडमिरल विष्णु भागवत की परिणति को प्राप्त नहीं होंगे। जनरल सिंह के मन में क्या है, यह तो वे ही जानते होंगे या उनके कुछ निकट के लोगों को उनके इरादे का आभास होगा, लेकिन सेना प्रमुख द्वारा प्रधानमंत्री को यह बताना कि हमारी रक्षा तैयारियां प्रतिद्वंद्वी देशों के मुकाबले फिसड्डी हैं, देशविरोधी कदम नहीं हो सकता। जनरल की स्वाभाविक पीड़ा रक्षामंत्री कह रहे हैं कि पत्र की जानकारी उन्हें है। सैन्य प्रमुख का पत्र लिखना न प्रोटोकॉल का उल्लंघन है, न परंपरा के विरुद्ध। पहले भी सेना प्रमुख प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति को पत्र लिखते रहे हैं। हर छह महीने पर सेना प्रमुख प्रधानमंत्री से मिलकर रक्षा तैयारियों पर चर्चा करते हैं, पर बीच में कभी भी मिलने या पत्र लिखने में कोई नियम आड़े नहीं आता। दूसरे, उनके पत्र की ज्यादातर बातें अनेक माध्यमों से पहले ही देश के सामने आ चुकी हैं। हमारे टैंकों के लिए गोला-बारूद की कमी है। दुनिया की तुलना में आधुनिक हथियारों और उनके प्रशिक्षणों से हमने अपनी सेना का उन्नयन नहीं किया है। थलसेना की वायु रक्षा प्रणाली समय सापेक्ष नहीं है.. आदि बातें पूर्व जनरलों के आलेखों, वक्तव्यों आदि में कितनी बार उठाई जा चुकी हैं। अगर वे कह रहे हैं कि सेना की तैयारी खोखलेपन की स्थिति से अलग नहीं है तो इसे सेना को सशक्त बनाने की चाहत रखने वाले जनरल की ऐसा न कर पाने की स्वाभाविक पीड़ा के रूप में देखना चाहिए।


हमारा रक्षा बजट अवश्य बढ़ा है। सिप्री की रिपोर्ट में हमें दुनिया का सबसे बड़ा शस्त्र खरीदार बताया गया, पर करीब ढाई दशकों से अस्त्रागार का आवश्यक उन्नयन नहीं किया गया है। सैन्य प्रमुख होने के नाते जनरल सिंह पर रक्षा तैयारियों की जिम्मेवारियां हैं। यदि इस समय युद्ध हो जाए और हमारी सेना कमजोर पड़े तो पहली जिम्मेवारी किसके सिर आएगी? इसलिए उनके द्वारा प्रधानमंत्री को इससे अवगत कराना शत-प्रतिशत सही है। जो यह प्रश्न उठा रहे हैं कि पहले पत्र क्यों नहीं लिखा या रक्षामंत्री के साथ साप्ताहिक बैठक में इसे क्यों नहीं उठाया तो वे भूल रहे हैं कि पहले पत्र लिखा या नहीं, रक्षामंत्री से बात की या नहीं.. इस बारे में सूचना नहीं है। हम केवल 12 मार्च के पत्र पर प्रतिक्रियाएं कर रहे हैं। वैसे पहले पत्र नहीं लिखा बाद में लिखा इससे मुद्दा कमजोर नहीं होता। वस्तुत: देश के लिए महत्वपूर्ण तो जनरल वीके सिंह द्वारा लचर रक्षा तैयारियों का जिक्र है। न रक्षामंत्री उन बातों का खंडन कर रहे हैं और न ही जनरल सिंह का सिर कलम करने की मांग करने वाले ही।


जनरल सिंह को हम कोई प्रमाण पत्र नहीं देना चाहते, लेकिन वे खुद पत्र लीक को अपनी छवि खराब करने का प्रयास मान रहे हैं। रक्षा तैयारियों का सच प्रधानमंत्री को लिखा गया पत्र जिसने भी लीक किया, उसका पता खुफिया ब्यूरो या आइबी लगा लेगी, ऐसी उम्मीद करनी चाहिए। किंतु इससे क्या होगा? एंटनी इसे राष्ट्रविरोधी तो जनरल सिंह भी इसे देशद्रोह मान रहे हैं। इसका महत्व केवल इस मायने में है कि रक्षा मकहमे के भीतर सब कुछ दुरुस्त नहीं है। इसी तरह तृणमूल सांसद द्वारा ले. जनरल दलबीर सिंह पर एक मेजर जनरल की गोपनीय रिपोर्ट खराब करने के आरोप की जांच कराने का पत्र जनरल सिंह को दिया गया, जिसे उन्होंने सरकार को अग्रसारित कर दिया। इसके अनुसार चूंकि मेजर भ्रष्टाचार में शामिल नहीं हुए, इसलिए ऐसा किया गया। इस अनुशंसा का क्या हुआ? ये सारी बातें रक्षा महकमे में सफाई की जरूरत जताती हैं। पर मूल बात जो देश चाहता है, वह है लचर रक्षा तैयारियों का अंत। यहीं पर जनरल द्वारा घूस दिए जाने का आरोप प्रासंगिक होता है। उनके बयान से एक सनसनाहट पैदा होती है कि दलाल सेनाध्यक्ष तक पहुंच गए! एंटनी की बात मानी जाए तो रक्षा खुफिया एजेंसी के पूर्व प्रमुख ले. जनरल तेजिंदर सिंह ने ऐसी पेशकश की। सीबीआइ जांच आरंभ हो गई है और तेजिंदर सिंह ने मानहानि का मुकदमा भी कर दिया है। सच यह है कि 1986 में बोफोर्स दलाली प्रकरण के बाद से पूरा रक्षा महकमा सहमा हुआ है और विश्व रक्षा प्रगति के अनुरूर पर्याप्त रक्षा खरीदारियों से बचता रहा है। केवल अपरिहार्य या कामचलाऊ खरीद आदेश ही दिए जाते रहे हैं। लंबे समय बाद हमने राफेल विमान का सौदा किया तो उस पर भी प्रश्न उठाए जा रहे हैं। जो टेट्रा गाडियां डेढ़ दशक से ज्यादा समय से चल रही हैं, उसे भी कठघरे में खड़ा किया जा रहा है और घूस का आरोप उस संदर्भ में है।


कारगिल युद्ध के दौरान उन्हीं बोफोर्स होवित्जर तोपों ने पाकिस्तान सेना व आतंकवादियों के छक्के छुड़ाए, जिसकी कमी की बात जनरल सिंह ने की है। उस समय गोलों की कमी को दूर करने के लिए तदर्थ खरीदारी की गई। बिचौलियों का विकल्प क्या है रक्षा खरीद से बिचौलियों के अंत का नियम हमने बना दिया, पर दुनिया हमारे नियमों से नहीं चल सकती। हर कंपनी एजेंट नियुक्त करती है और बिक्री पर उसे कमीशन तथा खरीद आदेश की संख्या पर मूल्यों में छूट वास्तविकता है। भारत विश्व प्रवृत्तियों से अलग टापू नहीं हो सकता। दुनिया का कौन-सा व्यापार है, जिसमें एजेंट, कमीशन और छूट की व्यवस्था नहीं है? ऐसा न हो तो बहुत अच्छा, लेकिन हकीकत को हमें स्वीकारना चाहिए। कमीशन और छूट का अर्थ उसकी गुणवत्ता खराब होना नहीं है। रक्षा सामग्री बनाने वाली सारी कंपनियां प्रतिस्पर्धा में आगे निकलने के लिए बेहतर ही निर्माण करती हैं, पर गुणवत्ता में थोड़ा-बहुत अंतर होता है, जिसे हमें सामान्य मानकर स्वीकार करने की आदत डालनी होगी। पूर्व राष्ट्रपति आर. वेंकटरमण ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि रक्षामंत्री रहते हुए उन्होंने हथियारों की खरीद में आने वाले कमीशन से एक अलग कोष बनाकर सेवा कार्यो पर खर्च करने का प्रस्ताव दिया था। प्रधानमंत्री चंद्रशेखर अपने कार्यकाल में इससे सहमत थे, लेकिन कमजोर राजनीति ऐसा करने का साहस नहीं कर सकती।


पारदर्शी तरीके से हो तो ऐसा करने में कोई हर्ज नहीं है। ऐसा नहीं करने से सहमा हुआ रक्षा महकमा अपनी हिचक नहीं तोड़ सकता और सैन्य प्रमुखों की अनुशंसाएं वैसे ही फाइलों में पड़ी रहेंगी। इस प्रकार देखें तो यह विवाद देश के लिए लाभकारी भी हो सकता है। पत्र लीक किसने किया, क्यों किया, घूस का प्रस्ताव किसने दिया आदि पहलू महत्व के हैं और रक्षा मकहमे के अंदर भ्रष्टाचार की सफाई हो, लेकिन इसका लाभ उठाकर अव्यावहारिक नियम को बदला जाए और सभी राजनीतिक दल इस पर सहमत हों, यही समय की मांग है।


लेखक अवधेश कुमार स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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