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अधर में अन्ना का आंदोलन!

जागरण मेहमान कोना
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arvind jaiteelakटीम अन्ना के अहम सदस्य अरविंद केजरीवाल का निराशा जताते हुए यह कहना कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन आज चौराहे पर है और देश की जनता बताए कि हम किधर जाएं, हैरान करने वाला है। विचित्र लगता है कि आखिर ऐसी कौन-सी विकट परिस्थति पैदा हो गई, जिसके कारण टीम अन्ना के सदस्यों को लगने लगा है कि आंदोलन दोराहे पर है? क्या यह माना जाए कि मुंबई में आयोजित अनशन में लोगों की अपेक्षानुरूप कम भागीदारी ने टीम अन्ना के मनोबल को तोड़कर रख दिया है या वह लोकपाल को लेकर सत्तापक्ष के आचरण से इस नतीजे पर पहुंच गई है कि आंदोलन अपनी पूर्णता को प्राप्त कर ही नहीं कर सकता? जो भी हो, पर टीम अन्ना ने अपनी धैर्यहीनता दिखाकर उन करोड़ों लोगों को निराश किया है, जो आंदोलन को समर्थन देने के अलावा उसे सफल होते भी देखना चाह रहे हैं। टीम अन्ना के सदस्यों के टूटते मनोबल से न केवल आंदोलन के भविष्य पर ग्रहण लगता दिखने लगा है, बल्कि आंदोलन की सार्थकता पर सवाल उठाने वाले लोगों को भी उत्साहित किया है, लेकिन इन सब नकारात्मक परिस्थितियों के लिए एक हद तक टीम अन्ना भी जिम्मेदार है।


सवाल उठता है कि जब लोकपाल विधेयक पारित कराने के लिए सांसदों ने तत्परता दिखाते हुए संसद सत्र का विस्तार किया तो क्या टीम अन्ना की जिम्मेदारी नहीं बनती थी कि वह मुंबई में धरना-अनशन का आयोजन न करे? वह भी तब, जब खुद समाजसेवी अन्ना हजारे बुखार से पीडि़त हों? लेकिन टीम अन्ना ने समझदारी दिखाने के बजाए अपनी मनमानी पर ही जोर दिया। नतीजा सामने है। आज वह खुद आंदोलन के भविष्य को लेकर सशंकित दिखने लगी है। थोड़ी देर के लिए मान भी लिया जाए कि लोकपाल को लेकर केंद्र सरकार की मंशा साफ नहीं रही है और वह शुरू से आंदोलन की राह में रोड़ा अटकाने की कोशिश करती रही है, फिर भी संसदीय लोकतंत्र में संसद की भावना और सरकार की भूमिका को कैसे नकारा जा सकता है? टीम अन्ना को संसद में लोकपाल पर बहस का इंतजार करना चाहिए था। वह भी इसलिए कि कुछ दिन पहले ही जंतर मंतर पर राजनीतिक दलों के सदस्यों ने यह भरोसा दिया था कि वे संसद में एक सशक्त लोकपाल पारित कराने की पूरी कोशिश करेंगे? यह अलग बात है कि संसद अपनी कसौटी पर खरी नहीं उतरी और लोकपाल विधेयक बर्फखाने में चला गया, लेकिन टीम अन्ना को तो धैर्य का परिचय देना चाहिए था? टीम अन्ना की हड़बड़ाहट का ही कुपरिणाम रहा कि मुंबई में अनशन को लोगों का प्रत्यक्ष समर्थन कम हासिल हुआ और अन्ना की तबियत बिगड़ी सो अलग से।


नतीजतन अनशन को तय समय से पहले खत्म करना पड़ा। अब अगर टीम अन्ना को लग रहा है कि आंदोलन दोराहे पर है और जनता के दिशा-निर्देशन से आंदोलन गतिमान हो सकता है तो सबसे पहले उसे अपनी दुविधाओं से बाहर निकलना होगा। साथ ही उसे खुले मन से यह भी विचार करना होगा कि आखिर उससे कहां और कब भूल हुई। देखा जाए तो टीम अन्ना रामलीला मैदान के आंदोलन के बाद से ही रणनीतिक चूक करती आ रही है। अगस्त में आंदोलन के बाद टीम अन्ना का हिसार उपचुनाव में कूदना और कांग्रेस के विरोध में चुनावी प्रचार करना कितना उचित था, उसे लेकर अब भी बहस जारी है। हिसार चुनाव में उसकी नकारात्मक भूमिका को लेकर न केवल आलोचना हुई, बल्कि टीम में भी फूट पड़ी। आंदोलन से जुड़े कई महत्वपूर्ण सदस्यों को टीम से बाहर होना पड़ा। मौका देख सरकार के रणनीतिकारों ने भी टीम सदस्यों पर कीचड़ उछालना शुरू कर दिया। यह अलग बात है कि देश की जनता ने सरकार की कीचड़बाजी के खेल-तमाशे को ज्यादा तवज्जों नहीं दिया और टीम पर भरोसा बनाए रखा। लेकिन क्या टीम अन्ना को अपनी नाकामियों से सबक नहीं लेना चाहिए था? लेकिन उसने नहीं लिया। आज अगर कांग्रेस सरीखे राजनीतिक दल टीम अन्ना पर हमला बोल भाजपा को फायदा पहुंचाने और संघ का पिट्ठू होने का आरोप लगा रहे हैं तो कहीं न कहीं इसके लिए एक हद तक टीम अन्ना भी कसूरवार है। टीम अन्ना संघ से जुड़े होने के आरोपों से न केवल विचलित दिख रही है, बल्कि बार-बार सफाई भी दे रही है जो उसकी कमजोरी को ही दर्शाता है। हद तो तब हो गई, जब वह आरोपों से डरकर रामलीला मैदान में आंदोलन के दौरान मंच से भारत माता की तस्वीर तक हटा ली। याद होगा, वंदेमातरम और भारत माता की तस्वीर को लेकर कुछ मौलानाओं ने आपत्ति जताई थी, लेकिन क्या इस तरह की आपत्ति से सेक्युलर दिखने-कहलाने के लिए भारत माता की तस्वीर को हटाना उचित था? मगर टीम ने ऐसा कर राष्ट्रीय भावना के साथ खिलवाड़ करने का काम किया। सच तो यह है कि आज टीम अन्ना भी मजहबी सियासत का शिकार हो चली है।


मुंबई अनशन से ठीक पहले टीम अन्ना के सदस्य अरविंद केजरीवाल का इस्लामी धार्मिक नेताओं की शरण में जाना और आंदोलन की धर्मनिरपेक्षता की सफाई देना और यह सिद्ध करने की कोशिश करना है कि समाजसेवी अन्ना हजारे का संघ या नानाजी देशमुख से कुछ भी लेना-देना नहीं है, चौंकाने वाला है। आखिर टीम अन्ना आंदोलन की धर्मनिरपेक्षता की सफाई की आड़ में संघ और समाजसेवी नानाजी देशमुख की क्या तस्वीर पेश करना चाहती है? निस्संदेह टीम अन्ना का हक बनता है कि वह जनलोकपाल के समर्थन में सभी जाति, पंथ, संप्रदाय और मजहब से जुड़े लोगों का समर्थन हासिल करे और सकारात्मक आंदोलन चलाकर सरकार पर लोकपाल के लिए दबाव बनाए। लेकिन यह समझना कठिन है कि उसके लिए किसी धर्म और जाति विशेष के लोगों को सफाई दी जाए और उन्हें यह बतलाया जाए कि आंदोलन का किस संगठन या किस दल का समर्थन हासिल है और किसका नहीं। इसका भी कोई मतलब नहीं कि किसी एक धर्मविशेष के लोगों से आंदोलन की धर्मनिरपेक्षता का प्रमाणपत्र हासिल किया जाए, जबकि टीम अन्ना ऐसा ही करती देखी जा रही है।


अनशन से पहले केजरीवाल का इस्लामी टोपी पहनकर मौलानाओं का दिल जीतने की कोशिश करना और उनसे समर्थन हासिल करने के बदले में यह आश्वासन देना कि उनका मंच सांप्रदायिकता के विरुद्ध आवाज उठाएगा आखिर क्या दर्शाता है? क्या यह खालिस सियासत नहीं है? क्या इस तरह का आचरण सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने वाला नहीं कहा जाएगा? सांप्रदायिक न दिखने-कहलाने के लिए सांप्रदायिक शक्तियों का सहारा लेना यह किस तरह की धर्मनिरपेक्षता हो सकती है? इस बात से किसी को आपत्ति नहीं कि टीम अन्ना को मौलानाओं से मिलकर समर्थन हासिल नहीं करना चाहिए, लेकिन सवाल उठता है कि केवल इस्लामी मौलानाओं से ही क्यों? क्यों नहीं अन्य धर्म के नुमाइंदों से भी? लेकिन टीम अन्ना ने भी सियासी दलों की राह पकड़ ली है, जो आंदोलन की अवधारणा को नष्ट करने वाला है। मजे वाली बात तो यह है कि केजरीवाल द्वारा सफाई दिए जाने के बाद भी मौलाना अन्ना के मुंबई अनशन को समर्थन देने को राजी नहीं दिखे। जमीयत-उलेमा-ए-हिंद ने साफ कर दिया कि अन्ना मुस्लिमों के सहयोग से अपना आंदोलन सफल बनाना चाहते हैं, लेकिन हम उन्हें उनके उद्देश्यों में सफल नहीं होने देंगे। हम जानते हैं कि अन्ना को किसका समर्थन मिल रहा है। अब यह भी साफ हो गया है कि अन्ना के आंदोलन के पीछे कौन लोग हैं।


मौलानाओं की इस टिप्पणी पर टीम अन्ना क्या महसूस कर रही है, यह तो वही जाने। लेकिन उसे समझना होगा कि जनआंदोलनों का स्वरूप और चरित्र स्वत: धर्मनिरपेक्ष और मूल्यपरक होता है। उसे किसी प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं होती। उस पर किसी आक्षेप का भी प्रभाव नहीं पड़ता। यह सिद्ध करने की भी जरूरत नहीं होती कि कौन दल-संगठन उसे समर्थन कर रहा है और कौन नहीं। लेकिन टीम अन्ना आंदोलन की पवित्रता और शुचिता की प्रमाणिकता हासिल करने में अपनी शक्ति और गरिमा गंवा रही है। सच तो यह है कि टीम अन्ना आंदोलन को धर्मनिरपेक्षता की कसौटी पर कसने के फेर में खुद ही कसौटी पर चढ़ गई है और साथ ही उसे आंदोलन के भविष्य को लेकर जनता से गुहार भी लगानी पड़ रही है।


लेखक अरविंद जयतिलक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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