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कहा जाता है कि नेपोलियन की प्रिय उक्ति थी-पहले लड़ाई में उतरो, फिर देखो आगे क्या होता है। इसका अर्थ था कि पहले से सारी संभावनाओं, परिणामों, उनसे पैदा होने वाली समस्याओं की चिंता न करो। अरविंद केजरीवाल राजनीति में आने की घोषणा के बाद जिस तरह बयान दे रहे हैं उसमें कुछ वही भाव झलकता है। उदाहरण के लिए एक साक्षात्कार में अनेक गंभीर राष्ट्रीय मुद्दों पर उन्होंने अस्पष्ट बातें कहीं। भ्रष्टाचार से लड़ना एक बात है, किंतु राजनीति एक वृहत् क्षेत्र है, जिसमें हरेक महत्वपूर्ण बिंदु पर नीति रखनी और चलानी पड़ेगी, मगर केजरीवाल कई बिंदुओं पर चुप हैं या कन्नी काट रहे हैं। कश्मीर, असम, आतंकवाद और नक्सलवाद ऐसे ही मुद्दे हैं। इनसे भारत लंबे समय से जूझ रहा है। सेक्युलरिज्म भी स्वयं एक मुद्दा है। इससे हुई और हो रही अनगिनत हानियों तथा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई अनेक चेतावनियों के बावजूद स्थिति जस की तस है। यह संभव नहीं कि केजरीवाल ने अब तक इस पर अपनी राय न बनाई हो? मगर उन्होंने ऐसे अधिकांश मुद्दों पर कहा कि उनके दल की समिति विचार कर रही है।
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कश्मीर, असम, केरल और उड़ीसा में होने वाली हिंसा, उत्पात, विविध अशांति व अलगाववादी समस्याओं पर केजरीवाल चुप्पी साधे हैं। मगर कब तक? यदि कश्मीर के मसले पर केजरीवाल को प्रशांत भूषण वाली लाइन लेनी है तो अब तक मन बनाकर अपने पत्ते खोल देने चाहिए थे। सत्ता में आने के बाद यह सब देखने की अदा बहुत कारगर नहीं होगी। दूसरी ओर अपने कुछ निकट साथियों पर लगे आरोपों पर केजरीवाल ने जांच कराने की व्यवस्था की है। इस जांच से वे साथी क्या सोच रहे हैं यह तो वे ही जानें, किंतु राजनीति में उतरते केजरीवाल का यह कुछ अजीब निर्णय है। क्या वे अपने साथियों के बारे में नहीं जानते या कि उनके चरित्र और कार्य के प्रति आश्वस्त नहीं? यदि केजरीवाल स्वयं आश्वस्त नहीं, तब उन सहयोगियों की विश्वसनीयता संदिग्ध है। इसमें अच्छे सहयोगियों का अभाव भी दिखता है, पर यदि वे केवल आलोचकों को संतुष्ट करने के लिए अपने विश्वसनीय साथियों की जांच करवा रहे हैं तब वे यही करते रह जाएंगे, क्योंकि आलोचनाओं का अंत तो होने से रहा। केजरीवाल के रणनीतिक निर्णय अटपटे दिख रहे हैं। रॉबर्ट वाड्रा पर लगे ठोस आरोपों से हुए राजनीतिक हंगामे को कोई निश्चयात्मक रूप लेने देने से पहले उन्होंने भाजपा नेता गडकरी पर भी अस्पष्ट आरोप लगाकर अपने पहले कदम को हल्का कर दिया। वाड्रा मामले पर कांग्रेस का दबाव स्वत: कम हो गया। कांग्रेस सत्ताधारी पार्टी है।
इसलिए वह वाड्रा संबंधी आरोपों पर कोई कार्रवाई करने अथवा विपरीत राजनीतिक धार में वृद्धि झेलने के लिए बाध्य थी, लेकिन गडकरी पर आरोप लगाने से केजरीवाल ने मामला गड्ड-मड्ड कर लिया। कहने का मतलब यह नहीं कि भाजपा नेताओं के भ्रष्टाचार पर चुप रहना चाहिए, किंतु राजनीतिक कदम उठाने में समय का चुनाव गंभीर महत्व रखता है। एक साथ चारों ओर हमले बोलने वाले जनरल को अपनी सैन्य क्षमता की पहचान होनी चाहिए। क्या केजरीवाल में वह क्षमता है? स्वयं केजरीवाल के शब्दों में कांग्रेस डूब चुकी है और भाजपा तो हमारी बी टीम का रूप लेगी। अर्थात वह स्वयं को और अपनी पार्टी को केंद्र में अगली सरकार बनाने का मुख्य दावेदार मानते हैं। साथ ही वह कांग्रेस और भाजपा, दोनों को इकट्ठे हराने का इरादा रखते हैं। ऐसी स्थिति में उनके पास देश भर में लोकसभा चुनाव लड़ने वाले और कार्यकर्ताओं की ईमानदार फौज होनी जरूरी है। क्या केजरीवाल के पास वह है? यही वह बिंदु है जिस पर अन्ना हजारे ने स्वयं को केजरीवाल के राजनीतिक कदम से अलग किया था, क्योंकि अन्ना को अपने सक्रिय समर्थकों में वैसे लोगों की पर्याप्त संख्या में संदेह था।
यह निराधार भी नहीं था। उन्हें अपने निकट सहयोगियों पर अनियमितताओं के आरोप देखने-सुनने को मिले थे। अत: भ्रष्टाचार-विहीन शासन देने के लिए निर्णायक कदम उठाने से पहले शुचितापूर्ण सामाजिक-राजनीतिक कर्म करने वाले लोगों, कार्यकर्ताओं को एकत्र करना अनिवार्य है, लेकिन यहां तो लगता है कि केजरीवाल स्वयं स्पष्ट नहीं हैं। ऐसी स्थिति में जब केजरीवाल के दल के पास पर्याप्त सूझबूझ और शक्ति नहीं तब उन्हें राजनीति में मुख्य प्रतिद्वंद्वी और गौण का अंतर करना ही होगा। अन्यथा वे तितर-बितर होकर रह जाएंगे। इसलिए भी वाड्रा के फौरन बाद गडकरी पर जैसा-तैसा आरोप जड़ देना रणनीतिक रूप से दोषपूर्ण कदम था। इसमें उन्हें उन लोगों से सबक लेने चाहिए जिन्होंने विगत में सबसे मुख्य विरोधी से निपटने के लिए हल्के-फुल्के विरोधियों का साथ लिया। रूस में लेनिन से लेकर जर्मनी में हिटलर और ईरान में खुमैनी तक इस खुली कार्यनीति के बड़े-बड़े उदाहरण हैं। केजरीवाल ने एक साथ कांग्रेस और भाजपा पर हमला बोलकर अपने को संकुचित कर लिया है, और स्वयं बिखरने का खतरा मोल लिया है। यह खतरा तभी लिया जा सकता है, जब साथ में भरपूर योद्धा हों और नजर साफ हो। इसीलिए केजरीवाल की राजनीतिक शैली उहापोह से भरी दिख रही है। या तो उसमें अपनी रणनीति और कार्यनीति के प्रति भारी अस्पष्टता है अथवा बच-बचा कर चलने की सावधानी। यह सब अभी महत्वहीन हो सकता है, यदि वह अंतत: चुनावी दंगल में विजयी रहें, मगर क्या एक और मोरारजी या वीपी सिंह या देवगौड़ा बन जाना ही उनका लक्ष्य है? यदि नहीं तो उन्हें हौसला और नजर, दोनों को एकदम साफ कर सामने आना होगा। धुंधली दृष्टि रखकर केजरीवाल भारतीय राजनीति में पारदर्शिता नहीं ला सकेंगे।
लेखक एस शंकर स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
Raed:हिमाचल विधानसभा चुनाव 2012
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