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म्यांमार में भारत के लिए अवसर

जागरण मेहमान कोना
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अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन की म्यांमार यात्रा नई अमेरिकी सोच और उसकी नीति में बदलाव का प्रतीक है। पश्चिमी देश भी अमेरिकी निर्णय से दबे हुए थे तो म्यांमार की सैनिक तानाशाही झुकने को तैयार नहीं थी। यह रस्साकसी दो दशकों से जारी थी, जिसका फिलहाल पटाक्षेप हो गया है। पिछले कुछ महीनों में अद्भुत राजनीतिक परिवर्तन म्यांमार में शुरू हुआ। न केवल आंग सान सू की रिहाई हुई, बल्कि उन्हें चुनाव लड़ने की भी इजाजत मिली। साफ है कि म्यांमार में सैनिकशाही टूट रही है और वहां नवउदारवादी राजनीतिक प्रवृत्तियां उभार ले रही हैं। इसमें मुख्य भूमिका भारतीय कूटनीति की रही है। भारत कई वर्षो से जुंटा सरकार की हठधर्मिता को तोड़ने में लगा हुआ था। अचानक आए इस परिवर्तन ने भारत की भूमिका को बड़ा बना दिया है। स्वाभाविक है कि इससे चीन दुखी है, क्योंकि ढांचे में परिवर्तन की शुरुआत कर म्यांमार ने अपने तार पश्चिमी देशों से जोड़ लिए हैं। इससे पूर्वी एशिया में अमेरिका की भूमिका पुन: महत्वपूर्ण होने लगी है। पिछले दो दशक के भीतर बनी भारत की लुक-ईस्ट नीति में अब एक नया उफान आ गया है। यह उफान एक अवसर का है। भारत की लुक-ईस्ट पॉलिसी इसमें 10 आसियान संगठन वाले देशों के अलावा तीन ऐसे महत्वपूर्ण देश शामिल हैं जो न केवल पड़ोसी हैं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक धारा को बदलने में इनकी बड़ी भूमिका है। ये तीन देश चीन, जापान और दक्षिण कोरिया हैं इनके अलावा अफगानिस्तान, ब्रूनेई, कंबोडिया, इंडोनेशिया, लाओस, मलेशिया, म्यांमार, फिलिस्तीन, सिंगापुर, थाईलैंड और वियतनाम शामिल हैं। पूर्वी एशिया के तकरीबन सभी क्षेत्र परस्पर रेल और सड़क संपर्को से जुड़े हुए हैं।


आज यह क्षेत्र भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक अड्डा है। भारत के कुल व्यापार का 35 प्रतिशत हिस्सा पूर्वी एशिया के देशों से होता है। यह प्रतिशत अमेरिका और यूरोप से भी ज्यादा है। पिछले कुछ वर्षो में इन देशों के साथ भारत के पारस्परिक संबंध तेजी से बढ़ा है। शीतयुद्ध के दौरान पूर्वी एशिया के महत्वपूर्ण देश भारत के साथ गुटनिरपेक्ष मंच पर एक साथ थे, लेकिन सामरिक रूप से यह देश भारतीय समीकरण के विपरीत खडे़ थे। जहां भारत पूर्व सोवियत संघ के नजदीक था, वहीं पूर्वी एशिया के अधिकांश देश भारत और म्यांमार से कटे थे। शीतयुद्व की समाप्ति और पूर्व सोवियत संघ के विघटन के बाद भूमंडलीकरण के दौर ने भारतीय सोच में बदलाव पैदा किया। भारत ने अपने आर्थिक जाल को विस्तृत करने के लिए पड़ोसी देशों पर ध्यान देना शुरू किया। अन्य महत्वपूर्ण कारण बना चीन का डर। अभी तक दक्षिण एशिया और पूर्वी एशिया एक-दूसरे से कटे हुए थे, लेकिन बदले हालात में यूरेशिया ने नई चुनौती पैदा की, लेकिन पूर्वी एशिया और मध्य एशिया में परिवर्तन का पुरोधा बना चीन।


चीन ने इन देशों के साथ न केवल व्यापारिक संबंध जोडे़, बल्कि इन देशों को अपने गले का हार बनाना शुरू किया, लेकिन चीन की अधिनायकवादी प्रवृत्ति ने इन देशों के मन में खटास और युद्ध की भावना पैदा कर दी। दूसरे चीन की छाया भारतीय हिंद महासागर तक पहुंच गई। म्यांमार में चीन के विस्तार से भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों की सुरक्षा खतरे में पड़ी। ऐसी हालत में भारत ने पूर्वी एशिया के देशों के साथ नए सेतु के निर्माण हेतु लुक-ईस्ट नीति का ढांचा तैयार किया। इस नीति के फायदे आसियान के साथ भारत का संबंध लुक-ईस्ट नीति का मुख्य आधार बना। आसियान के साथ विधिवत संबध की स्थापना 1992 से शुरू की गई। भारत 1996 में आर्थिक से पूर्ण सहयोगी बना साथ ही एआरएफ और एशिया-यूरोप घटक का भी सदस्य बना। यह सिलसिला निरंतर आगे बढ़ा। इन संगठनों के द्वारा व्यापार को मजबूती से आगे बढ़ाने की कवायद शुरू हुई। भारत, म्यांमार और थाईलैंड में 2004 में भारत-आसियान कार रैली का आयोजन हुआ, जो गुवाहटी से होते हुए पूर्वी एशिया के तकरीबन आधा दर्जन देशों मसलन सिंगापुर, कंबोडिया, मलेशिया, सिंगापुर इंडोनेशिया तक गुजरा। इससे भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों को लाभ मिलेगा। यह क्षेत्र न केवल विकास की धारा में पीछे छूट गए हैं, बल्कि अलगाववादी उग्रवादियों के चपेट में आ गए हैं। भारत मणिपुर के जीरोबाम और म्यांमार के मांडेल्या के बीच रेल संपर्क की योजना बना रहा है और उम्मीद है कि यह दिल्ली और चेन्नई तक विस्तृत हो सकेगी।


भारत ने पहली बार 2005 में मलेशिया के कुआलालांपुर में ईस्ट एशिया में भाग लिया। इस संगठन की सदस्यता ने भारत की ईस्ट एशिया नीति को काफी मजबूत बना दिया। इतना ही नहीं भारत की पहचान दुनिया में एक महत्वपूर्ण शक्ति के रूप में होने लगी। मेकांग-गंगा सहयोग और विमटेक द्वारा भी सांस्कृतिक और आर्थिक आदान-प्रदान मजबूत बने। म्यांमार से भारत के हित म्यांमार पिछले कुछ वर्षो से सामरिक केंद बन गया है। भारत की सुरक्षा म्यांमार से प्रभावित होती रही है। चीन की छाया दिन-प्रतिदिन भारतीय हितों को चुनौती दे रही थी, लेकिन म्यांमार के नए राष्ट्रपति ने क्रांतिकारी पहल उठाकर म्यांमार की कठोर राजनीति ढांचे को उदारवादी व्यवस्था में तब्दील कर दिया है। वहां आंग सान की रिहाई के साथ-सााथ उनकी पार्टी नेशनल लीग ऑफ डेमोके्रसी को भी चुनाव लड़ने की छूट दे दी है। हजारों एनएलडी कार्यकर्ताओं को जेल से रिहा किया गया। नए राष्ट्रपति ने चीन से दूरी बनाने का मन भी बना लिया है। चीन का विवादास्पद बांध इरवादी नदी पर बनाया जाना था जिस पर फिलहाल रोक लगा दी गई। यह बदलाव म्यांमार की विदेश नीति में बुनियादी परिवर्तन का सूचक है। म्यांमार में राजनीतिक परिवर्तन से लोकतंत्र की बहाली का मसला सुलझने लगा है। ट्रेड यूनियनों पर लगे प्रतिबंध उठा लिए गए। राजनीतिक विरोध व प्रेस की आजादी को बहाल किया गया। इस कारण अमेरिकी आर्थिक नाकेबंदी भी खत्म हो रही है। अमेरिका पिछले कुछ वर्षो से मन बना चुका था कि म्यांमार में माकूल राजनीतिक परिवर्तन हो और एक नई व्यवस्था के तहत म्यांमार और अमेरिका के बीच टूटे रिश्ते बहाल हों।


भारत इस कड़ी को जोड़ने की पूरी कोशिश कर रहा था और उसे सफलता भी मिली। इस घटनाक्रम को बदलते अंतरराष्ट्रीय मानचित्र पर देखना होगा। चीन अपनी परियोजना पर प्रतिबंध लगने से दुखी है। उसे आश्चर्य हो रहा है कि आखिरकार ऐसा हुआ कैसे? जो देश तीन दशक से उसके चंगुल में था वह भाग क्यों रहा है? दरअसल, अमेरिका मध्य-पूर्व और अफगानिस्तान में हुई किरकिरी से तंग आ चुका है। पूरे जगत में अमेरिका की आलोचना हो रही है। पाकिस्तान जिसे वह पुचकारता रहा वह भी अमेरिका विरोधी निकल गया। इससे तंग आकर ही अमेरिका ने 2014 तक अफगानिस्तान से बाहर निकलने की घोषणा कर दी। अब अमेरिका की प्राथमिकताएं बदल गई हैं। जिस कारण वह भारत के साथ मध्य-पूर्व और मध्य एशिया में सक्रिय भूमिका निभाना चाहता है।


लेखक सतीश कुमार स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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