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सामूहिक चेतना का निम्न स्तर

जागरण मेहमान कोना
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N k Singhबेंगलूर के एक अस्पताल में तीन माह की उस बच्ची ने दम तोड़ दिया जो अपने ही पिता के वहशीपन का शिकार हुई। बेटे की चाहत रखने वाले उस व्यक्ति ने अपनी बेटी को न केवल दीवार पर पटक दिया था, बल्कि उसके शरीर को सिगरेट से जलाया भी था। इसके पहले इससे मिलता-जुलता एक मामला दिल्ली में भी सामने आ चुका है। अब कुछ अन्य घटनाओं पर गौर करें। बिहार के जहानाबाद में स्थानीय जनता ने एक व्यक्ति की पीट-पीट कर हत्या कर दी। उनका मानना था कि इसी व्यक्ति ने गांव के एक अन्य व्यक्ति की हत्या की है। दिल्ली में एक डॉक्टर दंपती के घर से एक बच्ची बरामद की गई। इस बच्ची को डॉक्टर दंपती मारते थे, बाल नोचते थे, खाने के नाम पर सूखी रोटी और नमक देते थे। राज तब खुला जब यह डॉक्टर दपंती स्वयं घूमने के लिए विदेश चले गए और बच्ची को एक कमरे में बंद करके महज इतना ही राशन छोड़ गए जिससे तीन-चार दिन तक वह बच्ची पेट भर सकती थी। भूख से तड़पते हुए जब उसने फ्लैट की बालकनी पर जोर से रोना शुरू किया तब लोगों को इस घटना की जानकारी हुई।


बेबी फलक केस का सच


पुलिस की तहकीकात के बाद पता चला कि इस लड़की को जन्म देने वाले माता-पिता को यह भी नहीं मालूम कि लड़की कहां है, क्योंकि उन्होंने किसी परिचित के हाथ इस लड़की को सौंप दिया था। अब एक तीसरी घटना लें। सेनाध्यक्ष को लगभग दो साल पहले एक लेफ्टिनेंट जनरल ने टाट्रा ट्रक की खरीद के लिए 14 करोड़ घूस देने की पेशकश की। सेनाध्यक्ष ने रक्षा मंत्री से यह बात बताई। न तो रक्षा मंत्री ने इस मामले में कोई कार्रवाई की और न ही जनरल ने। उपरोक्त घटनाओं में एक साझा बात दिखाई देती है। कानून एवं व्यवस्था पर अविश्वास या उसके प्रति भय न होना। भीड़ उन्मादी होती है, जहानाबाद के एक गांव की भीड़ की सामूहिक चेतना या गरीब मां-बाप का अपनी 11 साल की बेटी के प्रति ममत्व वैसा ही नहीं होता जैसा कि करोड़पति पढ़े-लिखे डॉक्टर दंपती का या राज्य की शक्तियों के पालने में झूलने वाले एक जनरल का या एक रक्षा मंत्री का।


तब फिर दोनों का व्यवहार एक ही तरह क्यों? आखिर डॉक्टर दंपती का वहशियाना व्यवहार वैसा ही क्यों जैसा कि एक गांव की उन्मादी भीड़ का? हम मान सकते हैं कि इस भीड़ से आप तथाकथित हत्यारे को संगसार करवा सकते हैं, दंगे करवा सकते हैं, लेकिन जब डॉक्टर दंपती 11 साल की बच्ची से घरेलू काम करवाता है, उसके मुंह में कपड़ा ठूंस कर मारता है तब शंका यह होती है कि शिक्षा-संपन्नता का वहशीपन से विलोम संबंध नहीं है। केवल इतना ही अंतर है कि डॉक्टर दंपती यह काम नौकरानी के मुंह में कपड़ा ठूंस कर करते हैं, जबकि गांव का एक समूह खुले में सैकड़ों आदमियों के सामने दरिंदगी दिखाता है। भारतीय समाज की अपूर्णता चीख-चीख कर अपने को बता रही है। खास करके नवउदारवादी व्यवस्था में यह रोग व्यापक तौर पर विकसित हो गया है। गरीब मां-बाप बच्चों को पैदा तो कर रहे हैं, क्योंकि उनकी चेतना वहां तक नहीं आई है कि आर्थिक-साम‌र्थ्य न हो तब गर्भ-निरोध के उपाय का ध्यान रखें। लिहाजा बच्चे पैदा करने के बाद खिलाना मुश्किल होता है तब किसी भी ऐसे गैर के हाथ बच्चों को सौंप देते हैं, पैसा लेकर या यह सोच कर कि खाने का पैसा बचा। उधर देश में ऐसे पाशविक वृत्ति के लोगों की कमी नहीं है जो ऐसे बच्चों को किस बाजार में बेच दें, इसका भरोसा नहीं। उतनी ही दरिंदगी से मनोविकार से ग्रस्त एक पैसे वाला सौदागर के रूप में खड़ा रहता है। उत्तर प्रदेश की राजधानी से महज 30 किलोमीटर दूर बाराबंकी जिले में सैकड़ों ब्रांाणों ने सामूहिक फैसले के तहत एक दलित मुन्ना गौतम को वैदिक रीति-रिवाज और हिंदू विद्वानों के बीच मंदिर का मुख्य पुजारी नियुक्त किया। सामूहिक चेतना का इतना बेहतरीन उदाहरण भारत में शायद ही कहीं मिले। ठीक इसके विपरीत इसी राज्य के बिजनौर जिले में सवर्ण अपने गांव में लगे हैंडपंप से दलितों को पानी नहीं भरने देते। सामूहिक चेतना का शायद इससे विद्रूप चेहरा कोई और नहीं हो सकता।


बेहतर समाज के लिए तथ्यों को परोसना मीडिया का काम होता है, लेकिन भारतीय मीडिया में शायद ही इन दोनों घटनाओं का जिक्र आया हो। मूल्य बनने की प्रक्रिया की एक शर्त होती है और वह यह कि पब्लिक-स्पेयर में इस तरह की घटनाओं पर व्यापक चर्चा हो। इन चर्चाओं के बाद एक तो तर्कशक्ति बढ़ती है और दूसरा, सामूहिक रूप से यह फर्क करने की तमीज आती है कि पहली घटना हमें बेहतर समाज देगी, जबकि दूसरी घटना से समाज को अधोगति प्राप्त होगी। भारतीय मीडिया ने जिस घटना को प्रमुखता दी वह थी जनरल का रहस्योद्घाटन। अगर खबर बनी तो यह कि टाट्रा ट्रक में घूस का मामला क्या था? सही खबर तो यह थी कि किस मानसिकता के तहत एक जनरल भी दो साल तक अपने को घूस दिए जाने का मामला सीने में दबाए रिटायर होने जा रहे थे। सही खबर यह भी थी कि क्या रक्षा-मंत्री भी इस तरह के संगीन आरोप पर हाथ पर हाथ धर कर बैठे रह सकते हैं। इन सभी घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में मुश्किल यह है कि लोकपाल बनाकर जनरल और रक्षामंत्री को तो सिस्टम के प्रति निष्ठा रखते हुए भ्रष्टाचार के संदर्भ में शून्य सहिष्णुता रखने को मजबूर किया जा सकता है, लेकिन इससे न तो डॉक्टर दंपती की पाशविक प्रवृति बदल सकती है, न ही जहानाबाद की सामूहिक-चेतना की लंपटता पर अंकुश लगाया जा सकता है। कानून या संस्थाएं बनाकर हम घृणा, क्रोध, लालसा या शोषण की सामूहिक अभिव्यक्ति पर नियंत्रण नहीं कर सकते। इसके लिए जरूरी होगा कि बाराबंकी में दलित पुजारी को ही नहीं, बल्कि वहां की सवर्ण-चेतना को भी महिमामंडित करें।


एनके सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं


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