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पुरुषों पर चढ़ता सौंदर्य का बुखार

जागरण मेहमान कोना
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Raj Kishoreअभी तक माना जाता था कि पुरुष के लिए पुरुष होना ही काफी है और खूबसूरत होना या खूबसूरत दिखाई पड़ना स्ति्रयों की समस्या है। हालांकि इस मान्यता में रुढि़वादिता की बू आती है। स्ति्रयों पर सारे कौशल अपना लेने के बाद प्रसाधन निर्माताओं की नजर अब पुरुषों पर आ गड़ी है। वे चाहते हैं कि पुरुष भी अब कार्यस्थलों पर और सार्वजनिक जीवन में रोज जारी रहने वाली सौंदर्य प्रतियोगिता में भाग लें। उनकी इस नई आवश्यकता को उभारने के लिए नई-नई तरह के उत्पाद बाजार में उतारे जा रहे हैं। चूंकि पुरुषों की क्रय क्षमता बढ़ रही है और आबादी के एक हिस्से में तो व्यक्तिगत स्तर पर बहुत ही खुशगवार ढंग से और राष्ट्रीय स्तर पर उतने ही शर्मनाक ढंग सें बढ़ रही है, इसलिए पुरुषों की जेब में एक नई तरह से डाका डालने की कोशिश की जा रही है। पुरुषों को तरह-तरह से बताया जा रहा है कि वे थोड़ा सा खर्च करने को तैयार हो जाएं तो सुडौल ही नहीं, बल्कि सुंदर भी दिखाई पड़ सकते हैं। स्त्री कोमल हो और पुरुष स्वस्थ, यह पुराना समीकरण अब प्रासंगिक नहीं रहा। स्वास्थ्य का मतलब हो गया है मांसपेशियों में असाधारण बल। शरीर के भीतर निवास करने वाली आत्मा भले ही दिन-प्रतिदिन खोखली होती जाए पर बांहों के तालाब में मछलियां नहीं तैरीं तो मर्द होने का मतलब ही क्या रह गया? आज का हीरो देव आनंद या शशि कपूर टाइप नहीं है, वह धर्मेद्र का विकसित संस्करण है।


रोल भले ही रोमांटिक हो, पर देह तो छरहरे पहलवान जैसी ही होनी चाहिए। जाहिर है, इसके पीछे पितृसत्ता का नया संस्कार है। पुरुष वह है जो स्त्री की रक्षा कर सके। फिल्मों की तरह वास्तविक जिंदगी में भी उसमें इतना शारीरिक बल होना चाहिए कि दस गुंडे भी आ धमकें तो वह अपनी प्रेमिका या पत्नी का बचाव कर सके। पुरुष से नई मांग यह है कि वह मजबूत ही नहीं, बल्कि नयनाभिराम भी हो। अगर उसका रंग सांवला है तो उसे गोरेपन की क्रीम का इस्तेमाल करना चाहिए। उसकी सांस-सांस से सुगंध आनी चाहिए। उसके दांत चमकते रहने चाहिए। बालों को अच्छी तरह सेट करना सुबह उठने के बाद की उसकी पहली जिम्मेदारी बनती जा रही है। जिन सौंदर्य प्रसाधनों का इस्तेमाल स्ति्रयां करती हैं वे अब पुरुषों के लिए बहुत उपयुक्त नहीं रहे। पुरुषों को उन प्रसाधनों का इस्तेमाल करना चाहिए जो खासतौर से उनके लिए बनाए गए हैं। यह उत्पादों का एक नया वर्गीकरण है। स्ति्रयों द्वारा प्रयुक्त होने वाली सामग्री का इस्तेमाल करते समय पुरुष को संकोच हो सकता है। उसे ऐसा लग सकता है कि वह स्त्रैण होने की दिशा में कदम बढ़ा रहा है। अब वह उन्हीं चीजों का इस्तेमाल गर्व से कर सकता है, क्योंकि वे खास तौर से उसी के लिए बनाई गई हैं। नतीजा भले ही एक जैसा हो, पर उपभोग के मनोविज्ञान में फर्क है। बाजार इस फर्क को रेखांकित करने में लगा हुआ है। अभी तक उसकी खोज नई स्त्री पर केंद्रित रही है, अब वह एक नया पुरुष गढ़ रहा है। जो इस परिभाषा को स्वीकार करने से झिझकेगा उसे अपने बुरे दिनों का इंतजार करना शुरू कर देना चाहिए। क्या यह बात हंसी की है अथवा क्या पुरुष का यह नया सौंदर्य प्रेम व्यंग्य का विषय है? कम से कम मैं ऐसा नहीं सोचता।


सच यह है कि स्त्री की तरह पुरुष भी आदिकाल से ही सजता-संवरता रहा है। बेशक स्त्री से कुछ क्या काफी कम, क्योंकि स्त्री की तो नियति ही उसके सुंदर होने या न होने से परिभाषित होती रही है। जब कि पुरुष के गौरव की रेखाएं खींचने का काम उसकी सत्ता, उसका वैभव, उसकी उम्र आदि करते रहे हैं। यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है कि दुनिया की अधिकांश पुरुष आबादी जीविका के लिए कठोर श्रम करती रही है। किसान का जीवन ऐसा नहीं था कि उसके पास श्रृंगार करने का साधन या समय हो। मजदूरी करने वाली जातियां तो इस बारे में सोच भी नहीं सकती थीं, लेकिन राजा-महाराजा और सेठ-साहूकार जरूर अपने शरीर की सेवा किया करते थे। प्रत्येक व्यक्ति में सौंदर्य की चेतना जन्मजात होती है। यह परिस्थितियां तय करती हैं कि कौन इसके लिए कितना खर्च कर सकता है या समय निकाल सकता है। इस दृष्टि से आज के मध्यवर्गीय पुरुष के लिए मजे के दिन आ गए हैं। बेशक उसके पास समय का अभाव रहता है, कार्यस्थल का तनाव उसके चेहरे पर बोलता रहता है, फिर भी उसके पास इतना पैसा है कि उसे वह खर्च करे तो कहां करे। इसी प्रयोजन के लिए नई-नई चीजें पैदा की जा रही हैं और नए-नए प्रलोभन दिए जा रहे हैं, लेकिन मामला यहीं तक सीमित नहीं है। आज की दुनिया प्रतिभा या परिश्रम से नहीं, नेटवर्किग से चल रही है। नेटवर्किग में सफलता पाने के लिए एक आवश्यक कसौटी यह है कि आपके शरीर की भाषा कैसी है? दरअसल अब यह माना जा रहा है कि सुंदर चेहरे की भाषा कुछ ज्यादा सुंदर हो सकती है वैसे लोगों की अपेक्षा जो थोड़े कम सुंदर है, क्योंकि यह एक स्थापना है कि पहली छाप आखिरी छाप बन सकती है। इसलिए जरूरी है कि पुरुष का व्यक्तित्व अधिका प्रभावकारी हो।


प्रत्येक स्त्री सहज संवेग से यह जानती है कि प्रजेंटेबल हुए बिना इस क्रूर समाज में गुजारा नहीं होने वाला है। यह उसके अस्तित्व की एक अनिवार्य शर्त है। यह चेतना आधुनिक परिस्थिति के दबाव से अब पुरुष में भी पैदा हो रही है और उससे ज्यादा पैदा की जा रही है। जैसे स्त्री को बताया जा रहा है कि आज के बाजार में सिर्फ सुंदर अथवा आकर्षक होना या दिखाई पड़ना उसके लिए काफी नहीं है, उसके पास कोई अच्छी-सी डिग्री होनी चाहिए, कुछ उच्च कोटि का हुनर होना चाहिए आदि-आदि वैसे ही पुरुष को समझाया जा रहा है कि उसके पास डिग्री, हुनर और दक्षता तो हो ही, पर इनका अधिकतम लाभ तभी मिलेगा जब उसका व्यक्तित्व आकर्षक भी हो। शारीरिक रूप से आकर्षक होना व्यक्तित्व के आकर्षण का एक अनिवार्य तत्व करार दिया गया है। समस्या यह है कि स्त्री कैसी दिखेगी या पुरुष कैसा दिखेगा, यह उनका अपना मनोविज्ञान तय करेगा या बाजार? अच्छा दिखना दूसरों के प्रति हमारा एक कर्तव्य भी है, लेकिन जब यह एक जीविकाजन्य जिम्मेदारी के रूप में लाद दिया जाता है तब आदमी गिनीपिग बनने लगता है। जरा उस आदमी की मुसीबत के बारे में सोचिए जिसे हर पल अहसास कराया जा रहा हो कि बच्चू तुम घर में या समाज में नहीं, बाजार में खड़े हो और ग्राहकों से घिरे हुए हो, प्रतिद्वंद्वियों से तुम्हारी अनवरत मुठभेड़ है। इस मुठभेड़ में जरा सी चूक हुई तो गए काम से। मुझे पूरी उम्मीद है, यह नया कार्यक्रम पुरुषों में कुछ वैसी ही ग्रंथियां पैदा करेगा जैसी ग्रंथियां सुंदरता के तकाजों ने स्ति्रयों में शताब्दियों से पैदा कर रखी हैं।


लेखक राजकिशोर वरिष्ठ स्तंभकार हैं


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