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रूढि़वाद को चुनौती देने के लिए भड़काऊ हरकतें करना और यहां तक कि मूर्तिभंजन जैसे कामों को अंजाम देने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। हाल ही में हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय में कुछ छात्रों और राजनीतिक आग्रहों से प्रेरित विश्वविद्यालय के कुछ कर्मचारियों ने जिस तथाकथित गोमांस उत्सव का आयोजन किया उससे बचा जाना चाहिए था। यद्यपि यह भड़काऊ कार्रवाई कोई बड़ा बवाल खड़ा किए बगैर ही क्षेत्रीय कंपकपाहट के साथ निपट गई। बहादुरी की बचकानी अभिव्यक्ति अकसर बड़े पैमाने पर उपद्रवों का कारण बन जाती है। आजादी के बाद भारत में अनेक भयावह दंगों का मूल कारण अकसर छोटी-सी घटना रही है, जैसे होली पर कपड़ों पर रंगीन पानी डाल देना। इतिहास के जानकार उस्मानिया विश्वविद्यालय में मनाए गए इस उत्सव और 19वीं सदी में यंग बंगाल मूवमेंट के बीच समानता ढूंढ सकते हैं। यूरोपीय ज्ञानोदय से अभिप्रेरित होकर कोलकाता की कथित अगड़ी जातियों के कुछ उग्र छात्रों ने ईसाई पंथ को गले लगा लिया और बड़ी शान के साथ गोमांस का भक्षण किया।
खुद के शुद्धिकरण के उत्साह में वे अकसर यह मानते हुए गोमांस का सेवन करके हिंदुओं के साथ टकराव मोल लेते रहे कि ऐसा करने से लगने वाला सामाजिक कलंक हिंदुओं को हताशा में ईसाई बनने पर मजबूर करेगा, किंतु उन्हें निराश होना पड़ा। सामाजिक बहिष्कार और हिंसा की आशंका के कारण इन सवर्ण जातियों के ईसाइयों को बंगाल छोड़ना पड़ा। प्रेरणाश्चोत बनने के बजाय नौजवान बंगालियों का विद्रोहीपन मुख्यधारा के बंगाली समाज की हंसी का पात्र बन गया। बंगाली लेखक बंकिम चंद्र चटर्जी ने कहा था, मैं इन निरीह मानुषों के बारे में क्या कह सकता हूं। एक प्लेट गोमांस खाते हुए ये अर्द्धशिक्षित और बर्बर बंगाली बाबू खुद को इस तरह बधाई देते हैं जैसे यह पेटूपन एक सभ्य बुद्धिजीवी होने का पुख्ता सबूत है।
ईस्ट इंडिया कंपनी के सिपाहियों को चर्बी वाली गोलियों को मुंह से खोलने के लिए विवश करने के कारण भड़के 1857 के विद्रोह के बाद अन्य बातों के अलावा अंग्रेजों को यह भी सीख मिली कि खान-पान के रस्मो-रिवाजों को व्यक्तिगत पसंद का मुद्दा बताकर छोड़ा नहीं जा सकता। इनका सार्वजनिक जीवन पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। उस्मानिया उत्सव, जिसे दलितों के आत्म-उत्थान का नाम दिया गया, से मचे बवाल के बाद एक पत्रिका में प्रकाशित लेख में लिखा था, अगर कोई व्यक्ति गोमांस के सेवन का लुत्फ उठाना चाहता है तो इसमें किसी को दिक्कत नहीं होनी चाहिए। वे अपनी मर्जी से गोमांस का सेवन करते हैं, कोई उन्हें जबरन नहीं खिलाता। इस विचार को हजम करने में ही सहिष्णुता है कि गाय केवल दुहने के लिए ही नहीं, मांस के लिए भी होती हैं। इस अनावश्यक आहत करने वाली भाषा में व्यक्तिगत पसंदगी के सिद्धांत की अहमियत पर जोर दिया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि किसी भी व्यक्ति को अपनी पसंद के अनुसार खाना खाने का अधिकार है। समस्या तब खड़ी होती है जब इन राजनीतिक लाभ हासिल करने के लिए इन वरीयताओं का सार्वजनिक प्रदर्शन किया जाता है। यह भी सही है कि बहुत से दलित समुदायों को गोमांस या सुअर का मांस खाने में कोई गुरेज नहीं है।
विडंबना यह है कि धर्म आधारित खान-पान की आदतों को लेकर अपनी घृणा का प्रदर्शन करने में इन दलित जातियों और उस धनाढय वर्ग में काफी हद तक साम्य नजर आता है, जो अंतरराष्ट्रीय उड़ानों में हिंदू शाकाहारी भोजन करने वालों को हेय दृष्टि से देखता है। चाहे धार्मिक कारण हों या अन्य, अधिकांश भारतीय खान-पान की आदतों में एक साथ उदार और रूढि़वादी होते हैं। वे घर में खान-पान को लेकर सावधान रहते हैं, जबकि बाहर अपनी पसंद का खाना खाने में गुरेज नहीं करते। हम ऐसे बहुत से लोगों को जानते हैं जो रसोईघर में शाकाहारी भोजन ही बनाते हैं, किंतु किसी मित्र के यहां या फिर रेस्तरां में मांसाहारी भोजन का लुत्फ उठाते हैं। मैं ऐसे बहुत से लोगों को जानता हूं जो खुद को हिंदू मानते हुए घर में केवल चिकन या मटन खाते हैं, किंतु विदेश जाते ही गोमांस का सेवन करने लगते हैं। भारतीय काफी समझौतापरक होते हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि वे उन रीति-रिवाजों को लेकर सचेत हैं, जिनसे समुदाय संचालित होते हैं। जरूरी नहीं है कि वे उन रीति-रिवाजों से सहमत ही हों, किंतु वे हमेशा उनका सम्मान करते हैं। जिन सार्वजनिक उत्सवों में मांसाहार परोसा जाता है वहां एक अघोषित नियम होता है कि मांसाहार से आशय केवल मटन या चिकन से है।
गोमांस या सुअर के मांस के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। अतिवादियों के लिए यह भोजन फासीवाद के सामने घुटने टेकना और वंचित वर्गो की पसंद को दबाने का प्रयास है। व्यावहारिक लोगों के लिए यह अन्य समुदायों की भावनाओं का आदर करना है। उस्मानिया में गोमांस उत्सव के आयोजक यह भूल गए कि सामंजस्य एक गुण है। गोमांस का उत्सव मनाकर वे दूसरों की भावनाओं को आहत करते हैं। कट्टरवादियों को इस प्रकार के सार्वजनिक प्रदर्शन की पुनरावृत्ति नहीं करनी चाहिए, क्योंकि यह भोजन फासीवाद नहीं, बल्कि अच्छी सिविक सेंस है। भारत बहुलवादी समाज के रूप में खुद को इसलिए बचा पाया है, क्योंकि छूट में अंकुश पर बेहद ध्यान दिया जाता रहा है। जब भी अघोषित लक्ष्मण रेखा लांघी जाती है, सामाजिक सौहार्द्र खतरे में पड़ जाता है। इसीलिए हमें बेहद सावधानी बरतनी होगी ताकि उस्मानिया प्रकरण की पुनरावृत्ति न हो।
स्वप्न दासगुप्ता वरिष्ठ स्तंभकार हैं
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