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समान शिक्षा का सवाल

जागरण मेहमान कोना
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Bharat Jhunjhunbalaआर्थिक-सामाजिक असमानता की हकीकत के बीच शिक्षा में सुधार की राह बता रहे हैं डॉ. भरत झुनझुनवाला


देखा जाता है कि पब्लिक स्कूलों से पास होने वाले छात्र तेजी से आगे बढ़ते हैं, जबकि हिंदी माध्यम वाले सरकारी स्कूलों के छात्र पीछे रह जाते हैं। इससे समाज में दो वर्गों के बीच खाई बढ़ रही है। ग्रामीण तथा प्रतिभावान बच्चे अपनी क्षमता के अनुकूल पद हासिल नहीं कर पा रहे हैं। इस बढ़ती खाई पर मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल ने चिंता जताई है। कई शिक्षाविदों का कहना है कि सभी छात्रों को समान शिक्षा दी जानी चाहिए।


वास्तव में यह विषय आर्थिक असमानता से जुड़ा हुआ है। किसी भी जाति के विकास के लिए एक स्तर की असमानता होना जरूरी है। सब मधुमक्खी में समानता स्थापित कर दी जाए तो कोई भी रानी मधुमक्खी नहीं बन पाएगी और वह प्रजाति ही नष्ट हो जाएगी। अथवा शेर जैसे पशुओं में नेता न बनाया जाए तो वे झुंड नहीं बना सकेंगे और सभी एकल शेरों पर दूसरे पशु वार कर सकेंगे, लेकिन एक स्तर के बाद असमानता हानिप्रद हो जाती है। जैसे शेरों का राजा सारा मांस स्वयं खा जाए और दूसरे शेरों के लिए न छोड़े तो दूसरे शेर मर जाएंगे और कालक्रम में अकेला राजा भी दूसरे पशुओं से मारा जाएगा। इसी प्रकार मनुष्यों में ऊपरी वर्ग सभी संसाधनों पर कब्जा कर ले तो उसके खाने के लिए अन्न उगाने वाले नहीं बचेंगे और वह स्वयं संकट में पड़ जाएगा। इसके विपरीत संसाधनों को सभी मनुष्यों में बराबर बांट दिया जाए तो हर मनुष्य अपने रोटी-कपड़े की व्यवस्था करने में ही थक जाएगा। अत: मानव जाति के विकास के लिए एक विशेष स्तर की आर्थिक असमानता आवश्यक है। यूं समझिए कि समाज पूर्ण बराबरी पर स्थिर है। इसके बाद असमानता बढ़ने पर आर्थिक विकास में गति आती है, परंतु एक सीमा के बाद असमानता बढ़ने से सामाजिक वैमनस्य बढ़ने लगता है और असमानता समाज तथा आर्थिक विकास के लिए हानिप्रद हो जाती है।


शिक्षा व्यवस्था की असमानता आर्थिक असमानता का प्रतिबिंब होती है। मानव जाति को अमुक संख्या के किसान, श्रमिक, व्यापारी, अध्यापक, इंजीनियर, डॉक्टर, नेता आदि की जरूरत है। तदानुसार मनुष्य ने शिक्षा व्यवस्था स्थापित की है। कुछ छात्रों को किसान और दूसरों को इंजीनियर बनाने की व्यवस्था की है।


असमानता के इस पदक्रम में हर छात्र के स्थान का निर्धारण जटिल प्रणाली से किया जाता है। भारतीय परंपरा में इन परिस्थितियों को प्रारब्ध, पुरुषार्थ तथा भाग्य में वगीकृत किया गया है। प्रारब्ध हुआ कि एक छात्र के पिता ने उसे पब्लिक स्कूल में पढ़ने के लिए शहर में भेजा। दूसरे छात्र को धन के अभाव में गाय चराने के लिए जंगल में भेज दिया गया। पुरुषार्थ हुआ कि एक छात्र ने गाय चराने के साथ-साथ सायंकाल अध्ययन किया और हाई स्कूल में उत्तीर्ण हुआ। दूसरे छात्र ने पब्लिक स्कूल में जाते हुए ड्रग्स का सेवन किया। वह फेल हुआ। ऐसे व्यक्तियों से मेरी भेंट हुई है जो हार्वर्ड विश्वविद्यालय में पढ़े हैं, किंतु आज सामान्य लेक्चरर का कार्य कर रहे हैं। तीसरी परिस्थिति भाग्य की है। एक छात्र का जन्म मुंबई के धारावी स्लम में हुआ। उसे भाग्यवश इंग्लिश स्कूल में दाखिला मिल गया। दूसरे छात्र का जन्म दूर गांव में हुआ जहां फिसड्डी सरकारी स्कूल के अलावा कोई दूसरा विद्यालय न था।


शिक्षा प्रणाली का प्रभाव ‘भाग्य’ तक सीमित है। समान शिक्षा स्थापित हो जाए तो छात्र के भाग्य में परिवर्तन होगा। गरीब का भाग्य सुधरेगा, क्योंकि उसे अच्छी शिक्षा मिलेगी। अमीर का भाग्य टूटेगा, क्योंकि उसे प्राइवेट शिक्षा नहीं मिलेगी, परंतु दोनों के प्रारब्ध और पुरुषार्थ पूर्ववत रहेंगे। स्पष्ट है कि इससे दोनों के बीच असमानता बनी रहेगी। इसके अलावा समान शिक्षा से भाग्य में पूरी समानता स्थापित नहीं होती है। भाग्य के दूसरे हिस्से जैसे रोजगार गारंटी से पिता को पर्याप्त आय हो जाना, अच्छे बैंक मैनेजर द्वारा शिक्षा लोन का स्वीकार किया जाना इत्यादि में अंतर बना रहता है। अत: व्यक्ति के स्थान को तय करने में भाग्य का हिस्सा 33 प्रतिशत मानें और इसमें शिक्षा का हिस्सा आधा मानें तो कुल में 17 प्रतिशत प्रभाव शिक्षा व्यवस्था का पड़ेगा। सामाजिक असमानता बनी रहेगी, क्योंकि 83 प्रतिशत परिस्थितियां असमानता को पोषित करेंगी।


इस आकलन के कई प्रमाण उपलब्ध हैं। समाजशास्त्र के एंसाइक्लोपीडिया में बताया गया है कि शिक्षा की उपलब्धि तय करने में शिक्षा व्यवस्था की भूमिका न्यून रहती है। ‘शिक्षा के बराबर अवसर’ नामक रपट में पाया गया कि अमेरिका में सरकारी स्कूलों के अंतर का छात्रों की उपलब्धि पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है। बाहरी परिस्थितियों का शैक्षणिक उपलब्धि पर न्यून प्रभाव पड़ता है और परिवार की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति का छात्र की उपलब्धि पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। आगे बताया गया है कि अमेरिका में 19वीं तथा 20वीं शताब्दी में शिक्षा के विशाल फैलाव का छात्र की सामाजिक असमानता पर न्यून प्रभाव पड़ा है। कई कमजोर वर्गो का शैक्षणिक स्तर अवश्य सुधरा है, परंतु ऊपरी वगरें के शैक्षणिक स्तर में कहीं ज्यादा सुधार हुआ जिससे असमानता बढ़ी है।


प्रारब्ध और पुरुषार्थ का शैक्षणिक उपलब्धि पर कई प्रकार से प्रभाव पड़ता है। उच्च वर्ग के परिवारों में निवेश करने की प्रवृत्ति अधिक होती है। इसी से वे समृद्ध होते हैं। अत: उनके बच्चे अपने यौवन को शिक्षा में निवेश करने को तत्पर रहते हैं, जबकि कमजोर वर्ग के तमाम लोग बताते हैं कि पिता के कहने के बावजूद उन्होंने शिक्षा पर ध्यान नहीं दिया था। उच्च वर्ग के लोगों का पारिवारिक माहौल लिखने-पढ़ने के अनुकूल रहता है। घर में अखबार, मैगजीन आदि उपलब्ध रहती हैं। माता-पिता कहानियां पढ़ कर सुनाते हैं। कमजोर वर्ग के परिवारों में अशांति, हिंसा का माहौल अधिक रहता है। इन अलग-अलग प्रारब्ध और पुरुषार्थ के छात्रों को शिक्षा का समान भाग्य मिल जाए तो भी शैक्षिक उपलब्धता में भारी अंतर बना रहता है।


हम कुछ भी करें सामाजिक और आर्थिक असमानता बढ़ेगी, क्योंकि यह मानव जाति के विकास के लिए जरूरी है। तदानुसार शैक्षिक असमानता भी बढ़ेगी ही। यदि शैक्षिक समानता स्थापित की गई तो भी शैक्षिक उपलब्धि में अंतर बना रहेगा, क्योंकि प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रभावी रहते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में शिक्षा के निजीकरण को स्वीकार करना चाहिए। सामाजिक असमानता की यह छाया मात्र है। छाया को मारने से व्यक्ति नहीं मरता। इसी तरह से प्राइवेट शिक्षा को मारने से असमानता नहीं मरेगी। विषय बचता है कमजोर वगरें के प्रखर छात्रों का। इन्हें आगे बढ़ने के लिए अवसर अवश्य उपलब्ध होने चाहिए। अत: शिक्षा के निजीकरण के साथ-साथ कमजोर वगरें के प्रखर छात्रों के प्रवेश के लिए पर्याप्त खिड़की-दरवाजे खोले जाएं।


लेखक डॉ. भरत झुनझुनवाला आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं


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