Menu
blogid : 5736 postid : 3425

भारत रत्न: सचिन की राह में खड़े सवाल

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
  • 1877 Posts
  • 341 Comments

Satyendra Ranjanजेआरडी टाटा को 1992 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया। यह घोषणा होने के बाद टाटा ने एक अंग्रेजी अखबार को दिए इंटरव्यू में एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की, जो आज भारत रत्न के मुद्दे पर चल रही बहस के संदर्भ में अहम है। टाटा ने कहा था, यह सम्मान मिलने पर मुझे आश्चर्य हुआ। मैं यही जानता था कि यह सम्मान उन लोगों को मिलता है, जो देश के लिए कुर्बानी देते हैं। मैंने आज तक जो कुछ किया है, मुनाफे को ध्यान में रखकर किया है। तब इस टिप्पणी ने यह सवाल उठाया था कि आखिर देश का यह सर्वोच्च सम्मान किसे मिलना चाहिए? देश या समाज हित में बलिदान, त्याग या सेवा कार्य करने वालों को या उन लोगों को, जिनके नाम पर बड़ी उपलब्धियां हैं? उद्योग क्षेत्र में टाटा की उपलब्धियां निस्संदेह जोरदार थीं, लेकिन उदात्त उद्देश्यों के लिए उन्होंने बलिदान या सेवा कार्य नहीं किया। यह बात उन्होंने खुद स्वीकार की थी। ताजा बहस इसलिए शुरू हुई है, क्योंकि बीते दिनों सरकार ने भारत रत्न से सम्मानित होने के लिए योग्यता की कसौटी में परिवर्तन किया। उसके बाद अब कला, साहित्य, विज्ञान और सार्वजनिक सेवाओं के अलावा मानव यत्न के किसी भी अन्य क्षेत्र में उच्चस्तरीय प्रदर्शन के लिए यह सम्मान दिया जा सकेगा। चूंकि काफी लंबे समय से मुख्यधारा मीडिया में सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न देने की मांग उठती रही है, इसलिए यह माना गया कि ताजा कदम इसके लिए रास्ता साफ करके ही उठाया गया है। इस संभावना के मद्देनजर खासकर भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कडेय काटजू ने यह बयान देकर विवाद को आगे बढ़ा दिया कि क्रिकेटरों और फिल्म सितारों की कोई सामाजिक प्रासंगिकता नहीं हैं। इसलिए उन्हें यह सम्मान देना भारत रत्न का मजाक उड़ाना है। उसके साथ ही जस्टिस काटजू ने मिर्जा गालिब, सुब्रमण्यम भारती या शरतचंद्र चट्टोपाध्याय को इस पुरस्कार से सम्मानित करने की मांग उठाई, जो कम से कम इंटरनेट पर एक अभियान का रूप ले चुकी है।


बहरहाल, सरकार और उपरोक्त महान साहित्यकारों के लिए अभियान चला रहे लोगों ने उपलब्धि या प्रतिभा को भारत रत्न पाने की योग्यता के रूप में स्वीकार किया हुआ है। अतीत में उद्योग, कला और संगीत के क्षेत्र की मशहूर हस्तियों को यह सम्मान मिल चुका है, जो योग्यता की इसी कसौटी की पुष्टि करता है। जहां तक साहित्यकारों का प्रश्न है तो वे भी अपनी उत्कृष्ट प्रतिभा से रचना ही करते हैं। यह कोई आवश्यक नहीं है कि जिन्हें हम महान साहित्यकार या कवि मानते हों, उन्होंने सामाजिक उद्देश्य के लिए कोई त्याग या सेवा कार्य भी किया हो। तो बात अब यहां पर आकर टिक गई है कि किसी के रचनात्मक कार्य से समाज को क्या मिला। मार्कडेय काटजू कहते हैं, हमें ऐसे व्यक्तियों की जरूरत है, जो देश को दिशा दे सकें और इसे आगे ले जा सकें। ऐसे ही लोगों को भारत रत्न दिया जाना चाहिए। भले अब वे जीवित नहीं हों। जब त्याग या सेवाभाव एकमात्र कसौटी नहीं रही हो तो फिर राष्ट्र या समाज निर्माण में जीवन के किस क्षेत्र या व्यक्ति या उनकी उपलब्धियों की कितनी भूमिका है, इसे मापने की कोई सर्वमान्य कसौटी शायद नहीं हो सकती। इस बारे में लोगों का रुख काफी कुछ उनकी अपनी समझ और दिलचस्पियों से तय होगा। खेल के समाजशास्त्र को समझने वाले अनेक विद्वान विभिन्न समाजों के निर्माण एवं उनके मनोविज्ञान को ढालने में खेल की भूमिका का गंभीर चित्रण कर चुके हैं।


भारतीय संदर्भ में कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक समान अहसास, प्रसन्नता या दुख-बोध और साझा नायक देने में हॉकी और क्रिकेट की भूमिका पर गंभीर अध्ययन आज मौजूद हैं। इसी तरह पूरे देश को एक समान लोकप्रिय संस्कृति देने में फिल्मों की भूमिका अप्रतिम है। आजादी के बाद विभिन्नताओं एवं बहुलताओं से भरे इस देश को एकजुट रखने में निस्संदेह अर्थव्यवस्था की जरूरतों एवं लोकतांत्रिक राजनीति की सबसे बड़ी भूमिका है, लेकिन इस मकसद को सुगम बनाने में उस लोकप्रिय संस्कृति के योगदान को कम करके नहीं आंका जा सकता, जिसे फिल्मों और क्रिकेट ने गढ़ा है। इसलिए इन क्षेत्रों की बड़ी हस्तियां भारत रत्न से सम्मानित होने के लायक नहीं हैं, यह कहना आधुनिक भारत के विकासक्रम के एक महत्वपूर्ण पहलू की उपेक्षा करना है। वैसे भी खेल की दुनिया में उपलब्धियां हासिल करना कतई आसान नहीं है। यहां मुकाबला दुनिया की बेहतरीन प्रतिभाओं से होता है, और उसके बीच वही सफलता की सीढि़यां चढ़ पाता है, जिसमें कुदरती प्रतिभा के साथ-साथ लगन, अनुशासन, धैर्य और कुछ कर दिखाने का माद्दा होता है। इन तमाम कसौटियों पर निश्चित रूप से सचिन तेंदुलकर खरे उतरते हैं। लेकिन यहां दरअसल, एक दूसरी बहस जरूर सचिन को तुरंत भारत रत्न दिए जाने के रास्ते में एक बड़ा सवाल बनकर खड़ी है। सबसे पहले सचिन ही क्यों, यह एक वाजिब सवाल है।


आखिर मेजर ध्यानचंद, विश्वनाथन आनंद या अभिनव बिंद्रा क्यों नहीं? या फिर अगर क्रिकेट की ही बात करें तो मंसूर अली खान पटौदी, सुनील गावस्कर या कपिल देव क्यों नहीं? प्रश्न यह है कि आखिर किसी खिलाड़ी को देश का सर्वोच्च सम्मान देने का मानदंड क्या होना चाहिए? यह उसकी अपने खेल में उपलब्धि या किसी खेल के प्रति समग्रता में उसके योगदान से तय होना चाहिए या फिर बाजार की ताकत से? सचिन तेंदुलकर का नाम आज इसीलिए सबसे ज्यादा चर्चा में है, क्योंकि उनके पीछे बाजार की ताकत है। वह एक ऐसे खेल के बड़े खिलाड़ी हैं, जिस पर उद्योग जगत, विज्ञापन बाजार और टीवी (या पूरे मीडिया) के कारोबार के बहुत बड़ा दांव लगा हुआ है। इन सबकी साझा ताकत से ही सचिन की उपलब्धियां बहुत परिव‌िर्द्धत होकर दिखती हैं, जिससे उनकी कामयाबियां हिमालय से भी ऊंची नजर आने लगती हैं। लेकिन अगर बाजार और कारोबार के इस मैग्निफाइंग ग्लास को हटा दें तो ध्यानचंद, विश्वनाथन आनंद या अभिनव बिंद्रा की उपलब्धियां उनसे बड़ी नहीं तो कम से कम छोटी भी नजर नहीं आएंगी। अगर क्रिकेट की ही बात करें तो पटौदी ने जिस तरह एक सुस्त खेल को राजा-महाराजाओं की सामंती जकड़न से निकालकर उसे आमजन का खेल बनने का रास्ता तैयार किया या जिन परिस्थितियों में सुनील गावस्कर ने बल्लेबाजी के कीर्तिमान खड़े किए या कपिल देव ने जिस तरह अप्रत्याशित सफलता के साथ टीम को विश्व विजयी बनाकर भारत में क्रिकेट को जन-जन का खेल बनाने में योगदान दिया, उन तमाम उपलब्धियों को सचिन से पहले स्वीकार और सम्मानित न करना किसी भी रूप में तार्किक नहीं हो सकता।


दरअसल, अगर सचिन आज इतने बड़े खिलाड़ी दिखते हैं तो इसमें काफी कुछ उस मंच का भी योगदान है, जो उनकी पहले की पीढ़ी के खिलाडि़यों ने तैयार किया। अब सरकार के सामने यह सवाल है कि वह किसी खिलाड़ी को भारत रत्न देने का फैसला बाजार के दबाव और सस्ती लोकप्रियता पाने के लालच के वश में आकर करती है या इसके लिए कोई वस्तुगत और विवेकपूर्ण मानदंड अपनाती है। खिलाडि़यों के योगदान और उपलब्धियों को सम्मानित किया जाए, इसमें आपत्ति की कोई बात नहीं है। अगर संगीत और कला के क्षेत्र की प्रतिभाएं देश की रत्न हैं तो स्वाभाविक रूप से खेल की प्रतिभाएं भी हैं। परंतु प्रतिभा को मापने और खिलाड़ी के योगदान की कोई ठोस कसौटी अपनाई जानी चाहिए। ऐसा करने के बजाय अगर निर्णय का आधार मीडिया का शोर और बाजार का भाव बना तो निस्संदेह यह दुखद होगा और इस पर कई हलकों से भौहें तनेंगी।


लेखक सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं


Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh