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लंबे भाषणों में खो गया असल मुद्दा

जागरण मेहमान कोना
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जब समाजवादी पार्टी के नेता रामगोपाल यादव ने खुलकर कह दिया था कि उनकी पार्टी लोकपाल विधेयक का समर्थन नहीं कर सकती और बसपा व तृणमूल कांग्रेस ने भी अपनी जिद नहीं छोड़ी थी तो स्पष्ट हो गया था कि कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार विधेयक पर राज्यसभा में मतदान कराने की स्थिति में नहीं थी। खासतौर से इसलिए भी, क्योंकि इस सदन में वह अल्पमत में है। बावजूद इसके 29 दिसंबर की रात को राज्यसभा में जो सुनियोजित नाटक हुआ, उसके लिए सभी पक्षों की तरफ से आरोप-प्रत्यारोपों का सिलसिला जारी है। अगर इस घटनाक्रम की समीक्षा सुप्रीम कोर्ट के फैसले और कानून के तहत की जाए तो सभी पक्ष हमाम में नंगे नजर आएंगे। अन्ना हजारे के आंदोलन को मद्देनजर रखते हुए लोकपाल विधेयक को पारित कराने के लिए संसद का शीतकालीन अधिवेश 27-29 दिसंबर 2011 तक के लिए बढ़ाया गया था। डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार ने जोड़-तोड़ करके लोकसभा में तो इस विधेयक को पारित करा लिया, लेकिन राज्यसभा में पहुंचते ही गाड़ी अटक गई। इसके लिए जहां विपक्ष ने सरकार को दोषी ठहराया, वहीं सरकार का कहना था कि विपक्ष ने विधेयक में 187 संशोधन लाकर यह सुनिश्चित कर दिया कि विधेयक पारित न हो सके।


बहस इतनी देर रात तक चली कि राज्यसभा अध्यक्ष हामिद अंसारी को सदन की कार्यवाही समय पूरा हो जाने के कारण स्थगित करनी पड़ी। इसलिए सवाल उठता है कि क्या सदन के कामकाज को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता था? जबकि अनेक सदस्य चाहते थे कि शीतकालीन अधिवेशन को और बढ़ा दिया जाए। राज्यसभा की कार्यवाही को अगर और आगे बढ़ा दिया जाता तो यह कोई अनोखी बात न होती। पहले भी ऐसा किया जा चुका है और इस सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट की भी रूलिंग मौजूद है। मसलन, 2003 में संसद का शीतकालीन अधिवेशन 2 दिसंबर को शुरू हुआ और 23 दिसंबर को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित हो गया। सदन की कार्यवाही 29 जनवरी 2004 को पुन: शुरू की गई। इस सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि किसी भी युक्ति से यह नहीं कहा जा सकता कि सदन का नया सत्र शुरू हुआ है। लेकिन 29 दिसंबर 2011 की रात संसदीय मामलों के मंत्री पवन कुमार बंसल ने राज्यसभा को बताया कि सदन की कार्यवाही आगे जारी नहीं रह सकती, क्योंकि उसे सिर्फ तीन दिन के लिए बुलाया गया था और इसे एक दिन के लिए भी आगे बढ़ाने या नए साल में ले जाने का अर्थ असंवैधनिक होगा, लेकिन जैसा तर्क सही नहीं है। पूर्व में ऐसी कई मिसालें मिलती हैं, जब अधिवेशन की निर्धारित अवधि समाप्त होने के बाद भी सदन की कार्यवाही को आगे बढ़ाया गया और सुप्रीम कोर्ट ने भी इसका समर्थन किया। इसलिए यह बात यकीन से कही जा सकती है कि राजनीतिक स्वार्थो की पूर्ति के अधिवेशन को आगे नहीं बढ़ाया गया।


विपक्ष 29 दिसंबर की रात निरंतर राज्यसभा के सभापति हामिद अंसारी से यह मांग करता रहा कि वे सत्र की अवधि के बारे में बताएं कि कब समाप्त होगी, लेकिन इसका कोई स्पष्ट जवाब नहीं मिला। क्योंकि कांगे्रस अंकों को मद्देनजर रखते हुए हारना नहीं चाहती थी और विपक्ष विधेयक को पारित करने के मूड में नहीं था। इसलिए दोनों ही तरफ से लंबे-लंबे भाषणों का नाटक तो होता रहा, लेकिन किसी भी पक्ष ने यह नहीं कहा कि विधेयक पर बहस की बजाए वोटिंग करा लेनी चाहिए। संविधान इससे बिल्कुल नहीं रोकता है कि सदन की कार्यवाही निर्धारित अवधि से आगे न बढ़ाई जाए। यह फैसला सदन को करना होता है कि वह आधी रात के बाद सदन की कार्यवाही सुबह तक बढ़ाना चाहता है या नहीं। नियमों के अनुसार सभापति को यह अधिकार है कि मुद्दे के महत्व को देखते हुए वह कार्यवाही पूरी करने के लिए अधिक समय प्रदान कर दें। यह नियम संसदीय कार्यवाही से संबंधित नियमावली 11, 12 व 13 में दर्ज है। लेकिन लगता है कि राज्यसभा के सभापति ने पहले से ही मन बना रखा था कि सदन की कार्यवाही आगे नहीं बढ़ाई जाएगी। इसलिए जैसे ही घड़ी में 12 बजे, वैसे ही उन्होंने वंदे मातरम बजाने का आदेश दे दिया और नतीजतन सदस्यों के पास कोई विकल्प ही मौजूद न रहा।


दरअसल, लोकपाल विधेयक पर जो नाटक राज्यसभा में खेला गया और उस पर जो फजीहत हुई, उसके लिए किसी भी स्थिति में कानून की आड़ लेकर बचा नहीं जा सकता है। वास्तविकता यह है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी किसी भी किस्म का लोकपाल कानून चाहती नहीं है। यही कारण है कि पिछले चार दशक से इस मुद्दे पर कोई कानून नहीं बन सका है।


इस आलेख के लेखक शाहिद ए चौधरी हैं


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