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अंदरूनी कलह में उलझी भाजपा

जागरण मेहमान कोना
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Sanjay Dwivediभारतीय जनता पार्टी और विवादों का चोली-दामन का साथ है। अटल-आडवाणी युग खत्म होने के बाद पार्टी में आज ऐसी बदहवासी है कि हालात संभल ही नहीं रहे हैं। दो नए अध्यक्षों राजनाथ सिंह और नितिन गडकरी के प्रयास भी गाड़ी को पटरी पर नहीं ला पाए। तमाम राज्यों के छत्रप अधिक मजबूत होकर उभरे हैं और येद्दयुरप्पा जैसी कहानियां गले का फांस बन गई हैं। इसके चलते भारतीय जनता पार्टी को उम्मीद से देखने वाले आज हैरत में हैं। एक ऐसी पार्टी जिसके पीछे एक बड़े वैचारिक परिवार का संबल हो, विचारधारा की प्रेरणा से जीने वाले कार्यकर्ताओं की लंबी फौज हो उसे क्या एक या दो चुनावी पराजयों से हिल जाना चाहिए। भाजपा आज भी देश का दूसरा सबसे बड़ा राजनीतिक दल है। 1952 से लेकर आज तक की उसकी राजनीतिक यात्रा में ऐसी बदहवासी कभी नहीं देखी गई। जनसंघ और फिर भाजपा के रूप में उसकी यात्रा ने एक लंबा सफर तय किया है। चुनावों में जय-पराजय इस दल के लिए कोई नई बात नहीं है, लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव के परिणामों ने जिस तरह भाजपा के आत्मविश्वास को हिलाया है वह वह चकित करने वाली है। संकट पता है, समाधान नदारद इसके पहले वर्ष 2004 की पराजय ने भी पार्टी को ऐसे ही कोलाहल और आर्तनाद के बीच छोड़ा था। तबसे आज तक भाजपा में मचा हाहाकार कभी धीमे तो कभी तेज सुनाई देता रहता है।


शायद 2004 में पार्टी की पराजय के बाद लालकृष्ण आडवाणी ने इसीलिए कहा था कि हम एक अलग दल के रूप में पहचान रखते हैं, लेकिन जब कहा जाता कि हमारा कांग्रेसीकरण हो रहा तो यह अच्छी बात नहीं है। तब आडवाणी की पीड़ा जायज थी साथ ही इस तथ्य का स्वीकार भी कि पार्टी के नेतृत्व को अपनी कमियां पता हैं। किंतु 2004 से 2009 तक अपनी कमियां पता होने के बावजूद पार्टी ने क्या किया? उसे एक और शर्मनाक पराजय का सामना करना पड़ा। भाजपा के प्रति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की वर्तमान चिंताओं को भी इसी नजर से देखा जाना चाहिए। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या आरएसएस बीजेपी के इस संकट का समाधान तलाश पाएगा? दो संस्कृतियों का द्वंद्व भाजपा का द्वंद्व दरअसल दो राजनीतिक संस्कृतियों का द्वंद्व है। यह द्वंद्व भाजपा के कांग्रेसीकरण और जनसंघ बने रहने के बीच का है। जनसंघ यानी भाजपा का वैचारिक अधिष्ठान। एक ऐसा दल जिसने कांग्रेस के खिलाफ एक राजनीतिक आंदोलन का सूत्रपात किया जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से वैचारिक प्रेरणा पाता है। डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी, पं.दीनदयाल उपाध्याय, सुंदर सिंह भंडारी, बलराज मधोक, मौलिचंद शर्मा, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, कुशाभाऊ ठाकरे जैसे नेताओं ने अपने श्रम से जनसंघ को एक नैतिक धरातल प्रदान किया। राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय रहते हुए भी जनसंघ की अलग पहचान इसीलिए स्वीकृति पाता रहा, क्योंकि नेताओं के जीवन में शुचिता और पवित्रता बची हुई थी। संख्या में कम पर संकल्प की आभा से दमकते कार्यकर्ता जनसंघ की पहचान बन गए। राममंदिर आंदोलन के चलते भाजपा के सामाजिक और भौगोलिक विस्तार तथा लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व ने सारा कुछ बदलकर रख दिया। पहली बार भाजपा चार राज्यों मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और राजस्थान में अकेले दम पर सत्ता में आई। इस विजय ने भाजपा के भीतर दिल्ली के सपने जगा दिए।


चुनाव जीतकर आने वालों की तलाश बढ़ गई। साधन, पैसे, ताकत, जाति के सारे मंत्र आजमाए जाने लगे। अलग पहचान का दम भरने वाला दल परंपरागत राजनीति के उन्हीं चौखटों में बंधकर रह गया जिनके खिलाफ वह लगातार बोलता आया था। दिल्ली में पहले 13 दिन फिर 13 महीने फिर छह साल चलने वाली सरकार बनी। गठबंधन की राजनीति और जमीनी राजनीति से टूटते रिश्तों ने भाजपा के पैरों के नीचे की जमीन खिसका दी। एक बड़ी राजनीतिक शक्ति होने के बावजूद उसमें आत्मविश्वास, नैतिक आभा, संकट में एकजुट होकर लड़ने की शक्ति का अभाव दिखता है तो यह उसके द्वंद्वों के कारण ही है। भाजपा की गर्भनाल उस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ी है जो उसके मनचाहे आचरण पर एक नैतिक नियंत्रण रखता है। इस कारण भाजपा न पूरी तरह कांग्रेस हो पा रही है और न ही उसमें जनसंघ की नैतिक शक्ति दिखती है। वामपंथियों की तरह काडरबेस पार्टी का दावा करने के बावजूद भाजपा का काडर अपने दल की सरकार आने पर सबसे ज्यादा उपेक्षित महसूस करता है। भाजपा का संकट भाजपा का सबसे बड़ा संकट उसके नेताओं के व्यक्तिगत जीवन और विचारों के बीच बढ़ी दूरी है। कांग्रेस और भाजपा के चरित्र में यही अंतर दोनों को अलग करता है।


कांग्रेस में भ्रष्टाचार को स्वीकृति है। वे अपने सत्ताकेंद्रित कार्यव्यवहार में अपने काडर को भी शामिल करते हैं। राजनीतिक स्तर पर भ्रष्टाचार के सवाल पर सहज रहने के कारण कांग्रेस में यह मुद्दा कभी आपसी विग्रह का कारण नहीं बनता, बल्कि नेता और कार्यकर्ता के बीच रिश्तों को मधुर बनाता है। अरसे से सत्ता में रहने के कारण कांग्रेस में सत्ता में रहने का एक अभ्यास विकसित हो गया है। सत्ता उन्हें एकजुट भी रखती है जबकि भ्रष्टाचार तो भाजपा में भी है किंतु उसे मान्यता नहीं है। इस कारण भाजपा का नेता भ्रष्टाचार करते हुए दिखना नहीं चाहता। नैतिक आवरण ओढ़ने की जुगत में वह अपने काडर से दूर होता चला जाता है, क्योंकि उसकी कोशिश यही होती है कि किस तरह वह अपने कार्यकर्ताओं तथा संघ परिवार व तमाम अन्य संगठनों की नजर में पाक साफ रहे। नेताओं के पास सत्ता आते ही अंदरखाने में दलालों की पैठ बन जाती है। धन का मोह काडर से दूर कर देता है और अंतत: परिवार सी दिखती पार्टी में घमासान शुरू हो जाता है। राजनीतिक तौर पर प्रशिक्षित न होने के कारण ये काडर भावनात्मक आधार पर काम करते हैं और व्यवहार में जरा सा बदलाव या अहंकारजन्य प्रस्तुति देखकर ये अपने नेताओं से नाराज होकर घर बैठ जाते हैं। सत्ता जहां कांग्रेस के काडर की एकजुटता व जीवनशक्ति बनती है वहीं भाजपा के लिए सत्ता पारिवारिक कलह का कारण बन जाती है।


आरएसएस से उम्मीद आज की भाजपा न तो जनसंघ है न ही कांग्रेस। वह एक ऐसा दल बन गई है जिसके आडंबरवाद ने उसे बेहाल कर दिया है। आडंबर का सच जब उसके काडर के सामने खुलता है तो वे ठगे रह जाते हैं। विचारधारा से समझौतों, निजी जीवन में स्खलित होते आदर्श और पैसे की पिपासा ने भाजपा को एक अंतहीन मार्ग पर छोड़ दिया है। भाजपा के संकट का समाधान फिर वही आरएसएस कर सकता है जिससे मुक्ति की कामना कुछ नेता कर रहे हैं। अपने वैचारिक आग्रहों से हटे बिना भाजपा को एक रास्ता तो तय करना ही होगा। उसे तय करना होगा कि वह सत्ता की पार्टी बनना चाहती है या बदलाव की पार्टी। उसे राजनीतिक सफलता चाहिए या अपना वैचारिक अधिष्ठान भी। वह वामपंथियों की तरह पुख्ता वैचारिक आधार पर पके पकाए कार्यकर्ता चाहती है या कांग्रेस की तरह एक मध्यमार्गी दल बनना चाहती है जिसके पैरों में सिद्वांतों की बेडि़यां नहीं हैं। अब जबकि भाजपा सत्ता की ओर बढ़ती दिखना चाहती है यही द्वंद्व फिर उसके सामने खड़े हैं। सवाल नेतृत्व का और भावी प्रधानमंत्री का भी है। आडवाणी की रथयात्रा इस कलह को बढ़ाने वाली साबित हुई है किंतु इतिहास की इस घड़ी में भाजपा को अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाने के लिए तैयार होना चाहिए।


लेखक संजय द्विवेदी राजनीतिक विश्लेषक हैं


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