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आडवाणी की इस रथयात्रा के मायने

जागरण मेहमान कोना
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भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी यों ही लौहपुरुष नहीं कहे जाते हैं। वे कमाल की रणनीतिक व्यूह रचना के स्वामी तो हैं ही, साथ ही वे पार्टी को शून्य से शिखर पर ले जाने का भी माद्दा रखते हैं। अगर 83 वर्ष की उम्र में एक बार फिर वे रथयात्रा निकालने का ऐलान कर रहे हैं तो निश्चित मानिए कि भविष्य के राजनीतिक परिदृश्य पर उनकी पैनी निगाह है। भाजपा जब भी संक्रमण के दौर से गुजरी है या उसके कार्यकर्ताओं में घोर निराशा के बीज पनपे हैं, आडवाणी की रथयात्रा ने संजीवनी का काम किया है। अब जब केंद्र की सत्तारूढ़ संप्रग सरकार महंगाई, भ्रष्टाचार, नक्सलवाद और आतंकवाद के आगे घुटने टेक चुकी है और हर रोज उसके काले कारनामे जनता को मुंह चिढ़ाने लगे हैं, ऐसे में आडवाणी का रथयात्रा के बहाने सरकार की रीढ़ पर हथौड़ा पीटने की तैयारी तनिक भी अचंभित नहीं करती है। राजनीतिक बदलाव के लिए रथयात्रा की सियासत आडवानी की राजनीतिक प्रयोगशाला का अद्भुत प्रोडक्ट रहा है। और वे हर बार विपरीत परिस्थितियों में इसे आजमाते रहे हैं। वे पहले भी कई बार रथयात्रा कर सत्तारूढ़ दलों को मुश्किल में डाल चुके हैं। सबसे पहले उन्होंने 1990 में सोमनाथ से लेकर अयोध्या तक की राम रथयात्रा निकाली। उनकी इस यात्रा को जहां देशव्यापी समर्थन मिला, वहीं विपक्षी दलों ने उन पर देश को बांटने का आरोप भी लगाया, लेकिन भारतीय जनता पार्टी को आडवाणी की रथयात्रा से जिस लक्ष्य को साधना था, वह उसमें सफल रही। इस राजनीतिक रथयात्रा ने उसे अन्य दलों से अलग एक राष्ट्रीय पहचान और चरित्र भी दिया, जिसके बूते वह आज तक आम जनता के बीच अपनी स्वीकार्यता को कमोबेश बनाए हुए है। लोगों का उस पर भरोसा बढ़ा और उसने कई राज्यों में सरकारें भी बनाई।


आडवाणी की रथयात्रा की सफलता ने भाजपा को केंद्रीय सत्ता तक पहुंचने की राह भी आसान कर दी। राम रथयात्रा से उत्साहित आडवाणी ने 1993 में जनादेश यात्रा निकाली। इस यात्रा में उनके साथ पार्टी के दिग्गज मुरली मनोहर जोशी, भैरो सिंह शेखावत और कल्याण सिंह मौजूद थे। इस यात्रा का भी व्यापक प्रभाव देखने को मिला। इसी तरह देश की आजादी के पचास साल पूरे होने पर आडवाणी ने 1997 में स्वर्ण जयंती रथयात्रा निकाली। इस यात्रा ने लोगों में देश प्रेम और राष्ट्रीय एकता के भाव को जगाने का काम किया, लेकिन 2004 में लोकसभा चुनाव से ठीक पहले आडवाणी की भारत उदय रथयात्रा लोगों को रास नहीं आई। राजग सरकार से आम जनता की बहुत अपेक्षाएं थीं, लेकिन वह कसौटी पर खरा नहीं उतर सकी। नतीजतन राजग सरकार को सत्ता से हाथ धोना पड़ा। 2006 में आडवाणी ने एक बार फिर राजनाथ सिंह के साथ मिलकर भारत सुरक्षा यात्रा निकाली, लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव में भारत सुरक्षा यात्रा का राजनीतिक फायदा भाजपा को नहीं मिल पाया। एक बार फिर सत्ता उसके हाथ आते-आते छिटक गई। अब जब कुछ दिनों के बाद ही उत्तर प्रदेश सहित देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव और 2014 में लोकसभा का चुनाव होने जा रहा है, उसे दृष्टिगत रखते हुए लालकृष्ण आडवाणी का रथयात्रा पर जाने का ऐलान करना रथयात्रा के व्यापक मर्म और उसके राजनीतिक निहितार्थ को संदर्भित करता है। आइए, इसे कुछ ऐसे समझें।


आज की तारीख में केंद्र सरकार की साख डूबती जा रही है। मसला चाहे महंगाई पर नियंत्रण लगाने का हो या भ्रष्टाचारियों पर शिकंजा कसने का, सरकार विफल साबित हो रही है। सरकार के कई मंत्री जेल में हैं। हर रोज नए-नए घोटाले सामने आ रहे हैं। सरकार भ्रष्टाचारियों के पक्ष में खड़ी दिख रही है। भ्रष्टाचार उजागर करने वाले लोग जेल में ठूंसे जा रहे हैं। अदालत हर रोज सरकार की कारस्तानी पर लताड़ लगा रही है। किसी भी सरकार के लिए इस तरह की नाकामी-बदनामी उसकी पतन की पटकथा लिखने के लिए पर्याप्त है। मुख्य विपक्षी दल होने के नाते भाजपा को लगने लगा है कि अगर वह सरकार की इन नाकामियों को जनता के बीच उठाकर ले जाती है तो राजनीतिक बयार उसके पक्ष में बह सकती है। और लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा इसमें रामबाण साबित हो सकती है। आमतौर पर भाजपा भ्रष्टाचार के खिलाफ एक अरसे से मुखर देखी जा रही है, लेकिन जिस स्तर पर उसे जनता का समर्थन मिलना चाहिए, वह दिख नहीं रहा है। कहीं न कहीं इसे लेकर भाजपा में बेचैनी है।


अन्ना हजारे के जनलोकपाल बिल के सवाल पर आज देश उनके साथ खड़ा है। उनके एक आह्वान पर दिल्ली के रामलीला मैदान में लाखों की भीड़ जुट गई। वहीं, भाजपा केंद्र सरकार की जबरदस्त नाकामियों के बावजूद सड़क पर व्यापक आंदोलन पैदा नहीं कर सकी। सच तो यह है कि जिन मसलों को मुख्य विपक्षी दल होने के नाते भाजपा को उठाकर जनता को गोलबंद करना चाहिए, उस काम को योग गुरु बाबा रामदेव और अन्ना हजारे कर रहे हैं। इसे भाजपा की नाकामी नहीं तो और क्या समझा जाए? भाजपा के लिए संतोष की बात बस इतनी है कि उसने पिछले दिनों अन्ना हजारे के जनलोकपाल बिल के सवाल पर उन्हें समर्थन देकर अपने प्रति जनता के आक्रोश को कुछ कम किया। अन्यथा, देश की जनता यही समझ रही थी कि कांग्रेस और भाजपा दोनों भ्रष्टाचार पर मिले हुए हैं। अब भाजपा को लगने लगा है कि अगर शीघ्र ही सरकार की नाकामियों पर धावा नहीं बोला गया तो आने वाले दिनों में उसकी स्थिति भी सरकार जैसी अप्रासंगिक होते देर नहीं लगेगी। ऐसे में लालकृष्ण आडवाणी का रथ पर सवार होना भाजपा की व्यग्रता को ही उद्घाटित करता है। संयोग की बात है कि अन्ना और भाजपा दोनों ही भ्रष्टाचार के खिलाफ मुखर हैं।


भाजपा को लग रहा है कि अगर वह अन्ना के समानांतर बने रहकर सरकार के खिलाफ आंदोलन चलाती है तो आने वाले दिनों में उसे राजनीतिक फायदा मिल सकता है। अभी पिछले दिनों एक खबरिया चैनल के सर्वेक्षण में भाजपा को राजनीतिक बढ़त बनाते हुए दिखाया गया है। भाजपा इस सर्वेक्षण से उत्साहित है। उसे लगने लगा है कि अन्ना और रामदेव के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के कंधे पर सवार होकर वह संप्रग की सरकार को जड़ से उखाड़ सकती है। अभी तक भाजपा संसद में ही सरकार की बांह मरोड़ रही थी, लेकिन अब उसे समझ में आ गया है कि लोकतंत्र में महासंग्राम का निर्णायक संघर्ष सड़क पर ही होता है। और वर्तमान दौर इसके लिए सबसे मुफीद है। इसके अलावा भी आडवाणी की रथयात्रा निकालने के बहुतेरे कारण हैं। मसलन, भाजपा के अंत:पुर में सब कुछ ठीक-ठाक घटित नहीं हो रहा है। शीर्ष नेताओं की आपसी सिर-फुटव्वल सतह पर आ गई है। भ्रष्टाचार के सवाल पर कांग्रेस की तरह उसका भी दामन कम काला नहीं है। कर्नाटक के मुख्यमंत्री को भाजपा ने किस तरह कुर्सी से हटाया, यह देश को पता है।


रेड्डी बंधुओं को लेकर भारतीय जनता पार्टी की फजीहत जारी है। भ्रष्टाचार के छींटे अब शीर्ष को भी दागदार करने लगे हैं। साफ-सुथरा दामन बनाए रखने के लिए उत्तराखंड के मुख्यमंत्री निशंक की बलि चढ़ानी पड़ी है। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में पार्टी की दुगर्ति किसी से छिपी नहीं है। कार्यकर्ताओं का हौसला पस्त है। इन परिस्थितियों में लालकृष्ण आडवाणी का रथयात्रा निकालना अस्वाभाविक नहीं लगता है। पार्टी मुतमईन हो चुकी है कि आडवाणी की रथयात्रा से वह न केवल अपने पुराने तेवर में लौटेगी, बल्कि उनके कार्यकर्ताओं का हौसला बुलंद होगा और पार्टी की अंतरकलह पर भी विराम लगेगा। वैसे भी सियासी कुरुक्षेत्र का मैदान खाली पड़ा है। सत्तारूढ़ दल भ्रष्टाचार में लिप्त है। वामपंथ दलों की ताकत लगातार सिकुड़ती जा रही है। क्षेत्रीय दल अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। ऐसे में चुनावी बिसात पर आडवाणी की रथयात्रा का पहिया कितनी जोर से घूमेगा, यह आने वाला वक्त बताएगा। लेकिन एक बात तय है कि आडवाणी की रथयात्रा को जितनी बाहर से चुनौती मिलेगी, उतना ही अंदर से भी। इसलिए कि सियासत की माया बड़ी विचित्र होती है।


अरविंद जयतिलक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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