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फिर हुई तारीफ, फिर हुआ इनकार

जागरण मेहमान कोना
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Awdheshe Kumarपिछले सप्ताह लोकसभा में भाजपा की नेता सुषमा स्वराज पर गलतबयानी का आरोप लगाने वाली जम्मू कश्मीर पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती अचानक खामोश हो गई हैं। हैरत इस बात पर है कि मीडिया ने भी उनकी खामोशी के साथ स्वयं को ऐसा एकाकार कर लिया है मानो पहले कुछ हुआ ही न हो। आखिर सुषमा स्वराज ने अहमदाबाद में महबूबा द्वारा राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में नरेंद्र मोदी की प्रशंसा का जो दावा किया और महबूबा ने उसे गलत तरीके से उद्धृत करने का जो आरोप लगाया, उसमें कौन सच और कौन झूठ है, यह तो देश के सामने आना चाहिए। पाखंड और अनैतिकता की राजनीति के वर्तमान माहौल में यह कई कारणों से आवश्यक हो गया है। सुषमा स्वराज ने 20 सितंबर को नरेंद्र मोदी के उपवास मंच से कहा था कि उनकी धुर विरोधी महबूबा मुफ्ती ने राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में कहा कि उनके एक मुसलमान कारोबारी मित्र ने उन्हें बताया कि उन्होंने मोदी को एक पत्र लिखकर गुजरात में निवेश करने तथा मिलने की इच्छा जताई। तत्काल स्वीकृति आ गई और जब वे वहां पहुंचे, उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि मोदी ने वहां संबंधित सारे अधिकारियों को भी बुला रखा था और जो प्रस्ताव मैंने दिया, वह वहीं आधे घंटे में स्वीकृत हो गया।


सुषमा स्वराज या भाजपा के हम विरोधी हैं या समर्थक, यह प्रश्न यहां नहीं है और इस नजरिए से इस प्रकरण पर विचार करना उचित नहीं। इतना तो अदना व्यक्ति भी समझ सकता है कि जिस बैठक में सभी दलों और अनेक समूहों के 154 प्रतिनिधि उपस्थित हों, उसमें किसी को गलत तरीके से उद्धृत नहीं किया जा सकता। अगर आप गलतबयानी करेंगे तो दूसरे लोग भी उसका खंडन कर देंगे। महबूबा के अलावा किसी ने भी इसका खंडन नहीं किया। कोई एक व्यक्ति भी अगर महबूबा के पक्ष में और सुषमा के विरुद्ध आता तो इस दावे पर संदेह होता। उल्टे जब महबूबा ने वैसा कहने से इनकार किया, जैसा सुषमा दावा कर रहीं थीं तो जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने ट्विटर पर लिखा कि मुझे इस बात पर आश्चर्य नहीं हुआ कि महबूबा ने मोदी की प्रशंसा की। वे जिसे पसंद करती हैं, उसकी प्रशंसा करनी चाहिए। लेकिन यह जानते हुए कि उन्होंने जो कहा वह दूसरों ने सुना, उसके खंडन पर उन्हें आश्चर्य अवश्य हुआ।


जब महबूबा ने उमर पर गुजरात दंगे के दौरान वाजपेयी की नेतृत्व वाली राजग सरकार में मंत्री होने की उलाहना की तो अब्दुल्ला ने जवाब में कहा कि महबूबा जी, मैं राजग का भाग था और इसे मुझे स्वीकार करने में हिचक नहीं है। मैंने अपनी गलती मानी और यह घोषणा की कि इसकी कभी पुनरावृत्ति नहीं करूंगा, पर आप में तो इतना भी साहस नहीं कि जो कुछ आपने कहा और जिसे सबने सुना, उसे आप स्वीकार कर सकें। उमर ने यह प्रश्न भी उठाया कि जो कुछ उन्होंने कहा, उसे विनम्रतापूर्वक स्वीकार क्यों नहीं करतीं। उमर का बयान केवल एक विरोधी नेता का बयान नहीं है। यह राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में उपस्थित एक मुख्यमंत्री का बयान है, जिसने महबूबा का भाषण सुना था। इन तीनों के अलावा वहां 151 लोग और उपस्थित थे और किसी ने सुषमा स्वराज के दावे का खंडन नहीं किया। सुषमा ने भी ट्विटर पर लिखा कि मैंने वही उद्धृत किया, जो उन्होंने सभा के दूसरे भाग में कहा था। देखा जाए तो यहीं से इस विवाद पर विराम लगने की शुरुआत हो गई। गृह सचिव आरके सिंह ने इस विवाद के बाद पत्रकारों से बातचीत में कहा कि परिषद की बैठक में जो कुछ भी बोला जाता है, वह रिकॉर्ड होता है और सभी सदस्यों को इसे भेजा जाएगा। जाहिर है, इसका लिखित रूपांतरण निकट भविष्य में हमारे सामने होगा और तब सब कुछ शत-प्रतिशत साफ हो जाएगा। किंतु गृहमंत्रालय के रिकॉर्ड से जो थोड़ा अंश छन कर आ रहा है, उसके अनुसार महबूबा ने कहा, मैं पिछले दिनों चेन्नई गई थी। वहां एक मुस्लिम व्यवसायी से मेरी मुलाकात हुई। उसने बताया कि वह हाल में गुजरात के मुख्यमंत्री से मिला तो बहुत प्रभावित हुआ। महबूबा ने आगे कहा, आज भी वाजपेयी की लोग प्रशंसा करते हैं, क्योंकि उन्होंने कश्मीरियों से संवाद किया था। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अब यह पहल नहीं की जा रही है।


वाजपेयी ने न तो कश्मीर पाकिस्तान को दे दिया और न ही कश्मीरियों को आजादी दी। उन्होंने कश्मीर के भारत से रिश्तों पर कहा था कि सुरक्षाबलों के कारण कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं है। वास्तविकता यह है कि भारत के साथ कश्मीर का आध्यात्मिक रिश्ता है। स्पष्ट है कि महबूबा ने आरंभ में अवश्य सुषमा स्वराज को गलत साबित करने के लिए टेलीविजन साउंड बाइट्स का इस्तेमाल किया हो, लेकिन उन्हें भी पता है कि उनका पूरा भाषण रिकॉर्ड पर है और वह सामने आने लगा है। यह तो माना जा सकता है कि उनके ऐसा कहने का तात्पर्य नरेंद्र मोदी की प्रशंसा या उनका समर्थन नहीं हो सकता। उनका उद्देश्य केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा करना रहा होगा और उन्होंने यह बताया होगा कि जिस नरेंद्र मोदी को मुसलमानों का दुश्मन माना जाता है, उसने भी मुसलमानों के साथ अच्छा बर्ताव किया। लेकिन ऐसी पंक्तियों का निहितार्थ हर कोई अपने तरीके से निकालने के लिए स्वतंत्र है। किंतु यहां मूल प्रश्न यह है कि आखिर मोदी के बारे में दिए गए बयान के सार्वजनिक होने मात्र से महबूबा को इतनी परेशानी क्यों हो गई कि उन्हें यहां तक कहना पड़ा कि गुजरात या मोदी की प्रशंसा करने से बेहतर वह मर जाना पसंद करेंगी? वास्तव में यह हमारी राजनीति और सार्वजनिक जीवन का आत्मघाती पाखंड है।

इस समय की राजनीति में देश के समक्ष चुनौतियों, समस्याओं पर विवेक और संतुलन से विचार करने की स्वाभाविक अवस्था का तो लोप हो ही गया है, किसी के बारे में ईमानदार और तटस्थ नजरिया व्यक्त करने की सहज स्थिति भी समाप्तप्राय हो गई है। दुर्भाग्य यह कि कोई ऐसा कर दे तो उस पर इतना बड़ा तूफान खड़ा कर दिया जाता है कि सार्वजनिक स्तर पर उसे अपने द्वारा अभिव्यक्त सच का खंडन करना पड़ता है। पहले पूरी भाजपा को ही देश की सेक्युलर संस्कृति को लीलकर बहुसंख्यकवाद की स्थापना करने वाला राक्षस साबित करने की कोशिश चलती रही और 2002 के दंगों के बाद से नरेंद्र मोदी उस काल्पनिक राक्षस के साकार रूप हो चुके हैं।


भाजपा और मोदी अनेक मायनों में गलत हो सकते हैं, पर यह जो माहौल बनाने की कोशिश हुई है कि मोदी नामक राक्षस कोई अच्छा काम कर ही नहीं सकता, वह तो कभी अल्पसंख्यकों के हित में कदम उठा ही नहीं सकता आदि आदि, यह सच नहीं है। लेकिन राजनीति से लेकर एनजीओ में ऐसे तत्व सशक्त हो चुके हैं, जिनके लिए सच्चाई और ईमानदार तटस्थता अवगुण सदृश हैं। 1990 के दशक से सेक्युलर बनाम गैर सेक्युलर खेमे में राजनीति को विभाजित करने का जो सिलसिला चला, वह ठोस और ईमानदार नींव के बिना हर कुछ समय पर चरमराता रहा, लेकिन दर्शन और दृष्टिकोण के मामले में कंगाल हमारी राजनीति और समाजसेवा के नाम पर सरकारी या अन्य मान्य देसी-विदेशी संस्थाओं से धन लेकर अपनी सक्रियता बनाए रखने वाले एनजीओ इस निहायत ही अनैतिक, अप्राकृतिक एवं विफल विचार का झंडा उठाए रखने की कोशिश करते हैं। वातावरण ऐसा बनाने की कोशिश कायम है कि आपने मोदी का पक्ष लिया तो आप मुसलमान विरोधी, सेक्युलर विरोधी, और अगर आपने भाजपा का समर्थन किया तो आप भी गैर सेक्युलर अछूत हो गए। मजे की बात देखिए कि समय-समय पर ये अपना चरित्र बदलते हैं। एक समय की तथाकथित सेक्युलर पार्टियां भाजपा नेतृत्व वाली सरकार का अंग बनीं। वाजेपयी एवं अन्य कई नेताओं की प्रशंसा भरे इनके भाषण और बयान भरे पड़े हैं।


उमर अब्दुल्ला के पिता फारुख अब्दुल्ला ने स्वयं एक भाषण में कहा था कि अल्लाह वाजपेयी को जिंदा और स्वस्थ रखे, क्योंकि वह कश्मीर और मुसलमानों के भले के लिए जितना संभव है, कर रहे हैं। आज इसे उद्धृत कर दीजिए तो फारुख अब्दुल्ला इस पर स्पष्टीकरण देने लगेंगे। इसलिए महबूबा के रवैये पर हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। जब राजनीति सहित संपूर्ण सार्वजनिक जीवन पाखंड का पर्याय हो जाए तो इसके अलावा आप बेहतर उम्मीद नहीं कर सकते। हां, पूरी पृष्ठभूमि का ध्यान रखते हुए हमें अपने विवेक से यह समझना होगा कि सच क्या है। निस्संदेह यह देश के लिए बुरा संकेत है, पर यही आज का यथार्थ है और इसे समझकर हमें अपनी भूमिका निर्धारित करनी होगी।


लेखक अवधेश कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं


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