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दुष्चक्र के भंवर में भोजपुरी

जागरण मेहमान कोना
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हम रउवा सब के भावना समझतानी। तमिल भाषी और उच्च स्तरीय अंग्रेजी बोलने वाले गृहमंत्री पी चिदंबरम ने भोजपुरी की इस एक पंक्ति को बोलने के लिए कितना अभ्यास किया होगा। चिदंबरम ने हिंदी के लिए कभी अभ्यास नहीं किया। चिदंबरम की छवि या सियासी मंशा की विवेचना हो चुकी है। संसद में भोजपुरी बोलने वाले कितने सांसद हैं, लेकिन किसी ने भोजपुरी में कभी भाषण दिया होगा, इसका इल्म मुझे नहीं हैं। मैं अपने प्राइम टाइम शो में भोजपुरी के वाक्य बोल देता हूं। पंद्रह साल पहले नहीं बोल पाता। अब शायद इसलिए कि सदियों से विस्थापित होकर अपने श्रम से दाल रोटी कमाने वाला भोजपुरी समाज कहीं न कहीं बराबरी की स्थिति में आता जा रहा है। यह ठीक है कि भोजपुरी का साहित्य मराठी या बांग्ला की तुलना में कुछ भी नहीं है, लेकिन भोजपुरी पहचान बनने की भाषा बनने लगी है। श्रम की भाषा तो हमेशा से रही है। देश के पहले राष्ट्रपति देशरत्न राजेंद्र प्रसाद भोजपुरी बोलते थे। उनके ही प्रयास और प्रेरणा से भोजपुरी की पहली फिल्म गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो बनी थी। आज भोजपुरी फिल्मों का अपना बाजार है।


इस मान्यता से भोजपुरी का कितना भला होगा


दिल्ली में लाखों लोग भोजपुरी बोलते मिल जाएंगे। दौर ही कुछ ऐसा है। बाजार मिल जाता है तो सरकार पाने की चाहत होने लगती है। भोजपुरीभाषी राजनीतिक समाज जातिगत पहचान को सर्वोच्च मानता रहा है। अब कहीं न कहीं वह भोजपुरी को भी इस पहचान में जोड़ना चाहता है। हिंदी के समानांतर पहचान की चाहत नजर आने लगी है। अब जब वह महानगरों में अपनी आर्थिक घुसपैठ से राजनीतिक घुसपैठ की दिशा में बढ़ने लगा है, उसकी मांगे कुलीन होने लगी हैं। भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग कुलीन मांग है। इससे भाषा समाज को व्यापक फायदा नहीं होता, लेकिन राजनीतिक पूंजी जरूर बन जाती है। पी चिदंबरम उसी राजनीतिक पूंजी को हासिल करने के लिए भोजपुरी प्रेम का प्रदर्शन कर रहे थे।


भोजपुरी भाषी भी तो यही चाहते हैं। दिल्ली से लेकर मुंबई तक में उनकी भाषा की ताकत स्वीकार की जाए। जिन इलाकों में भोजपुरी बोली जाती है, वहीं भोजपुरी की क्या हालत है? कान्वेंट स्कूलों की चाहत क्या भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में डालने से कम हो जाएगी? क्या भोजपुरी के गानों में जो अश्लीलता और लंपट तत्वों की भरमार है, वह दूर हो पाएगी? भोजपुरी के पास क्लासिकल संगीत का खजाना है। उसे हिंदी और अंग्रेजी का कुलीन तबका पाल रहा है। क्या हम चौपाई, ठुमरी और कजरी को भोजपुरी में फिर से स्थापित कर पाएंगे? सरकार या प्रवेश परीक्षा में भाषा को शामिल कराकर उछलने से पहले सोचना होगा कि जब हिंदी ही अंग्रेजी होते इस समाज में सरकती जा रही है तो भोजपुरी कैसे टिकेगी। मेरा मतलब भाषा के वजूद के मिटने से नहीं है। मेरा सवाल है कि क्या आठवीं अनुसूची में किसी भाषा को शामिल करने से यथार्थ की चुनौतियां मिट जाती हैं? क्या यह सिर्फ भोजपुरी समाज के भीतर पैदा हुए कुलीन तबके की चाह नहीं है, जिसे वह महफिलों में शान से बता सके कि हमारी भोजपुरी भी कम नहीं है। महफिलों में भोजपुरी बोलने से कौन रोक रहा है। मुंबई की फिल्मों में हमारी शारदा सिन्हा जी उच्च स्तरीय भोजपुरी गीत गाकर चली आती हैं। अश्लील गाने से मना कर देती हैं।


भोजपुरी के सम्मान के लिए जो लोग इस तरह से संघर्ष कर रहे हैं, उन्हें आठवीं अनुसूची के सहारे की जरूरत नहीं है। देखना होगा कि भोजपुरी जातिगत वोट बैंक का दूसरा नाम तो नहीं है। अगर ऐसा है तो हासिल कुछ नहीं होने वाला। यह और बात है कि चिदंबरम को भोजपुरी बोलते सुना तो मैं भी उछलने लगा। कौन नहीं चाहेगा कि उसकी बोली, उसकी भाषा सत्ता और समाज की हर देहरी और शिखर पर बोली जाए। लेकिन यह मौका भोजपुरी को संकीर्णता के दायरे में धकेलने का नहीं है। हिंदी का साम्राज्य बढ़ेगा तो दरकेगा भी। कोई भी साम्राज्य जब बहुत फैल जाता है, तब टूटन होने लगती है। मैथिली और भोजपुरी की मांग को उसी दिशा में देखा जाना चाहिए। फिर भी हिंदी का वर्चस्व रहेगा। आज सत्ता प्रतिष्ठान अंग्रेजीमुखी चुके हैं। मध्य प्रदेश में उद्योगपतियों ने मांग की है कि अधिकारियों को अंग्रेजी आनी चाहिए, तभी वे निवेश कर सकेंगे। इस हालत में जब हिंदी के लिए लड़ने वाला नहीं है तो भोजपुरी के लिए कौन लड़ेगा। जैसे-जैसे हम हिंदी और बोलियों को अलग करेंगे, हम हर लड़ाई हारेंगे। छोटी लड़ाई की जीत, बड़े युद्ध में मिली हार से कभी बेहतर नहीं हो सकती।


लेखक रवीश कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं

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