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आपरेशन ओसामा के एक साल बाद अफगानिस्तान के हालात पर निगाह डाल रहे हैं सी उदयभाष्कर
2 मई को अमेरिकी सील्स कमांडो की नाटकीय कार्रवाई में ओसामा बिन लादेन को मरे हुए एक साल पूरा हो जाएगा। जैसे-जैसे ऑपरेशन एबटाबाद की वर्षगांठ नजदीक आ रही है, वैसे-वैसे चिंता बढ़ती जा रही है कि इस मौके पर अल-कायदा और उससे जुड़े हुए आतंकी संगठन अमेरिकी और यूरोपीय सैनिकों, नागरिकों और संपत्तियों पर हमले कर सकते हैं, खासतौर से अफ-पाक क्षेत्र में। इसी बीच 27 अप्रैल को पाकिस्तान ने घोषणा की कि पाकिस्तान में रह रही बिन लादेन की विधवाएं और अन्य परिजनों को सऊदी अरब भेजा जा रहा है। उम्मीद की जा रही है कि इसी के साथ सितंबर 2001 में शुरू हुई ओसामा बिन लादेन की आतंक की गाथा का पटाक्षेप हो जाएगा। मई 2011 में एबटाबाद ऑपरेशन के बाद से दोहरा आचरण अपनाने के कारण पाकिस्तानी सेना खुद अपने देश की जनता की निगाह से गिर गई है। सेना के पाकिस्तान, अमेरिका और अफगानिस्तान के साथ संबंध तनावपूर्ण चल रहे हैं। यह भी संकेतात्मक है कि 27 अप्रैल को ही इन तीन देशों-अमेरिका, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के वरिष्ठ अधिकारियों की इस्लामाबाद में एक महत्वपूर्ण बैठक हुई। बैठक में विचार-विमर्श के बाद तीनों देश इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जो तालिबानी आतंकवादी अफगान में मुख्यधारा में शामिल होना चाहते हैं उन्हें सुरक्षित रास्ता दिया जाए। यह पहल 11 सितंबर के आतंकी हमले से शुरू हुई खूनी जंग को अंतिम परिणति तक पहुंचाने के प्रयासों का एक अंग थी।
यह तथ्य कि यह वार्ता 15 अप्रैल को काबुल पर तालिबानी हमले के बाद हुई थी, इस बात का संकेतक है कि राजनीतिक प्रक्रिया और अफ-पाक का खेल खत्म करने के प्रयास कितने कमजोर हैं। पंथिक दक्षिणपंथी तत्वों की ओर पाकिस्तान की सेना का झुकाव व समर्थन-आधार इस बात की कुंजी है कि अफगानिस्तान के आंतरिक हालात कैसे सुलझते हैं। फिलहाल लग रहा है कि जनरल कयानी के नेतृत्व में सेना अब भी यह मानती है कि अच्छे और बुरे आतंकी समूह मौजूद हैं। इसलिए रावलपिंडी स्थित सेना मुख्यालय से मान्यताप्राप्त हक्कानी और लश्करे-तैयबा का समर्थन किया जा सकता है, किंतु जनरल मुशर्रफ की जान लेने का प्रयास करने वाले, सांप्रदायिक हिंसा फैलाने वाले और आए दिन पाकिस्तानी सैनिकों व सत्ता प्रतिष्ठान पर हमला करने वाले पाकिस्तानी तालिबान का खात्मा करना जरूरी है। हालांकि यह रवैया इस बात का सूचक है कि आतंकवाद का विकल्प व्यावहारिक विकल्प नहीं है। एबटाबाद ऑपरेशन के बाद अमेरिका ने भी अंतत: इस सच्चाई को स्वीकार कर लिया है। क्या पाकिस्तानी सेना को हाफिज सईद के लश्करे-तैयबा और हक्कानी जैसे अच्छे आतंकी समूहों के साथ संबंधों को तोड़ने के लिए मजबूर किया जा सकता है, किंतु इस मुद्दे पर पाकिस्तान में गहरे मतभेद हैं। पाक प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी के खिलाफ हालिया अदालती आदेश पर जारी विवाद को पाकिस्तानी राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठान से सेना के टकराव के रूप में देखा जा रहा है।
स्मरण रहे कि पाकिस्तानी राजदूत हुसैन हक्कानी से जुड़ा मीमोगेट स्कैंडल से स्पष्ट हो जाता है कि इस्लामाबाद में सरकार कैसे आधिपत्य बनाए रख सकती है और पाक सेना पर कैसे अंकुश लगा सकती है। इस मुद्दे का अभी तक कोई हल नहीं निकला है, किंतु जरदारी-गिलानी टीम के खिलाफ पाक सेना और न्यायपालिका के बीच गठजोड़ का कयास लगाया जा रहा है। विडंबना है कि पाकिस्तान में एक और न्यायिक जांच चल रही है, जिसे मेहरानगेट कहा जा रहा है। रिटायर्ड एयर मार्शल असगर खान ने 1996 में मामला दर्ज कराया था कि पाक सेना के प्रमुख जनरल मिर्जा असलम बेग ने 1990 के चुनाव में बेनजीर भुट्टो की पीपीपी पार्टी को हराने के लिए पंथिक दक्षिणपंथी पार्टी आइजीआइ (इस्लामी जम्हूरी इत्तेहाद) को आर्थिक सहायता दी थी। शर्मसार करने वाली घटनाओं के बीच पूर्व आइएसआइ प्रमुख लेफ्टिनेंस असद दुर्रानी ने शपथपूर्वक स्वीकार किया कि उन्होंने 1990 के चुनाव से पहले कुछ राजनेताओं को धनराशि दी थी, जिसका आदेश उनके बॉस पाक सेना प्रमुख ने दिया था। कई तरह से मेहरानगेट कांड संस्थागत विसंगतियों का प्रतीक है। ये संस्थागत विसंगतियां ऐसा नासूर बन चुकी हैं जो पाकिस्तान से संक्रमित होकर अफगानिस्तान तक फैल गया है। पाक सेना और इसकी खुफिया इकाई आइएसआइ पाकिस्तान और संभवत: अफगानिस्तान में सत्ता प्रतिष्ठान को काबू में करने के लिए धनबल, बाहुबल और मदरसों का खुलकर इस्तेमाल करता है।
अमेरिका पिछले पचास सालों से पाक सेना को समर्थन देता आ रहा है। इस प्रकार अमेरिका ने पाकिस्तान के राजनीतिक ढांचे को अंदरूनी चोट पहुंचाई है। यही काम वह अफगानिस्तान में भी कर रहा है। भारत-अमेरिका के बीच वाशिंगटन में होने वाली सामरिक वार्ता की तैयारी के लिए 7-8 मई को भारत दौरे पर आने वाली अमेरिकी विदेशमंत्री हिलेरी क्लिंटन के साथ भारतीय विदेशमंत्री एसएम कृष्णा की बातचीत में हम अमेरिका को अपनी चिंताओं से अवगत करा सकते हैं। ईरान और अफगानिस्तान विमर्श के अहम मुद्दे होंगे। 2014 तक अपनी सेनाओं की अफगानिस्तान से वापसी की अमेरिकी घोषणा के अनेक निहितार्थ हैं। ओसामा बिन लादेन को शारीरिक रूप से खत्म करने के एक साल बाद भी उसकी विचारधारा के रूप में उसकी उपस्थिति अफ-पाक क्षेत्र में साफ नजर आ रही है। इस विचारधारा का सामना करना आसान काम नहीं है। इसके लिए जरूरी है भारत सतर्कता बरते। नई दिल्ली को जटिल समीकरणों और विरोधाभासी अंतरधाराओं का सटीक अनुमान लगाना होगा। तभी वह अपने हितों की रक्षा कर पाएगी।
लेखक सी उदयभाष्कर सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं
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