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राजनीति और रियासत

जागरण मेहमान कोना
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गत सोमवार को देश इंदिरा गांधी का उनकी 27 पुण्यतिथि पर स्मरण कर रहा था। इस दिन लौह पुरुष सरदार पटेल की भी जयंती थी। और संयोग से सैफ अली खान के छोटे से बड़ा नवाब बनने की खबर भी इसी दिन आई। उन्होंने अपने वालिद और पूर्व टेस्ट क्रिकेटर मंसूर अली खान पटौदी के इंतकाल के बाद उनका स्थान ले लिया। पहली नजर में इंदिरा गांधी, सरदार पटेल और सैफ से जुड़ी खबरों में कोई रिश्ता नजर नहीं आता। पर इनमें करीबी रिश्ता है। करीब चालीस साल पहले इंदिरा गांधी ने संविधान में संशोधन कर राजे-रजवाड़ों को सरकार से मिलने वाली आर्थिक मदद बंद करवा दी थी। अंग्रेजों के देश छोड़ने के बाद करीब 555 राजे-रजवाड़ों को आर्थिक मदद मिलने लगी। उनकी पहले की हैसियत के अनुसार, तोपों की सलामी की भी व्यवस्था जारी रही। आजादी के बाद सरदार पटेल के अथक प्रयासों से तमाम रियासतों ने भारत में विलय का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था।


भारतीय संघ से मिलने की एवज में इन रजवाड़ों को सालाना 5 हजार रुपये से लेकर 10 लाख रुपये मिलने लगे। जाहिर है कि यह राशि 1947 के हिसाब से बहुत भारी-भरकम थी। 1969 में इंदिरा गांधी ने इस सुविधा को खत्म करने के संबंध में संसद में बिल पेश किया जो एक मत गिर गया। पर इंदिरा गांधी अपने इरादे पर अटल थीं। उन्होंने 26वें संविधान संशोधन के माध्यम से रजवाड़ों को मिलने वाली आर्थिक मदद खत्म करवा दी। इस कदम को उठाने के मूल में तर्क यह भी था कि देश में सभी नागरिक एक समान हैं और सरकार का वित्तीय घाटा भी कम करना है। इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्वकाल का समग्र मूल्यांकन करने वाले मानते हैं कि यह कदम इतना ही महत्वपूर्ण था, जितना कि पाकिस्तान को रणभूमि में धूल चटाना। अब फिर से सैफ अली खान पर लौटते हैं। नवाब बने सैफ के पिता मंसूर अली खान पटौदी को यह रास नहीं आया कि इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार उन्हें दी जानी वाली सुविधा को वापस ले ले। उन्होंने इंदिरा गांधी के फैसले को 1971 के लोकसभा चुनावों में मुद्दा बनाया।


गुड़गांव से विशाल हरियाणा पार्टी के टिकट पर उन्होंने चुनाव भी लड़ा। अपने प्रचार अभियान के दौरान उन्होंने जमकर इंदिरा गांधी के राजे-रजवाड़ों को मिलती आ रही सुविधाओं को खत्म करने के फैसले को अपनी सभाओं में उठाया। उन्हें उम्मीद थी कि उनकी प्रजा उनका साथ देगी। गुड़गांव लोकसभा क्षेत्र में ही उनकी रियासत पटौदी भी आती थी। लेकिन उन्हें चुनावों में करारी मात झेलनी पड़ी। मात्र पांच फीसदी लोगों ने उनके हक में वोट दिया। बहरहाल, उनके साहबजादे उस चुनावों के चालीस साल बाद फिर से नवाब बन गए। दरअसल, अब भी हमारे यहां कुछ लोग ऐसे हैं जो खुद को राजा या युवराज कहलाना पसंद करते हैं। उन्हें अब भी महल और किले के भीतर रहना पसंद है। इन लोगों को पड़ोसी देश भूटान के राज परिवार के किसी सदस्य की शादी की खबर बहुत प्रभावित करती है। हमारा मीडिया भी राज परिवार की अंदर की खबरों को अनावश्यक रूप से महत्व देता है। वह भूल जाता है कि अब इस देश में उनके लिए कोई गुंजाइश नहीं है।


अब तो वे ही जीवन की दौड़ में आगे जाएंगे जिनमें आगे बढ़ने की कुव्वत होगी। अब दौर है कर्नाटक के सुदूर क्षेत्र में रहने वाले अध्यापक पुत्र एन नारायममूर्ति का, रांची स्थित एक सरकारी उपक्रम में काम करने वाले सामान्य से कर्मचारी के पुत्र महेंद्र सिंह धौनी का, लुधियाना के एक राजनीतिक परिवार से संबंध रखने वाले सुनील भारती मित्तल जैसे उन ऊर्जावान लोगों का जो अपनी योग्यता के आधार पर आगे बढ़ रहे हैं और देश को भी आगे लेकर जा रहे हैं। ये वे लोग हैं, जिन्होंने किले और महल नहीं देखे। पर बेहतर शिक्षा लेने के बाद भी सैफ अली खान जैसे लोग पुरानी परंपराओं के हिसाब से चलने में कोई बुराई नहीं समझते। उनके नवाब बनने के कार्यक्रम में हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा भी मौजूद थे। अब उन्हें यह कौन बताए कि उनकी पार्टी की नेता ने ही चार दशक पहले राजशाही की परंपरा को धो डाला था।


लेखक राजनीति और रियासत स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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