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लोकसभा के आगामी चुनाव में जीत-हार की संभावनाओं की भविष्यवाणी आजकल अनेक सर्वेक्षणों द्वारा की जा रही है। सभी सर्वेक्षणों के निष्कर्ष प्राय: समान ही हैं। अर्थात कांग्रेस का बेड़ा डूबेगा, भाजपा का उभार होगा, लेकिन इतना नहीं कि वह सरकार बना सके और अन्य दल जिन्हें क्षेत्रीय कहा जाता है, सबसे बड़ी संख्या में स्थान बनाएंगे। क्षेत्रीय दल खुद मिलकर सरकार बनाएंगे या कांग्रेस अथवा भाजपा को समर्थन देंगे, इसका आकलन अभी नहीं किया जा रहा है। जहां तक कांग्रेस का सवाल है तो जैसी देश की स्थिति है उसमें उसका बेड़ा डूबने में कांग्रेसियों को भी संदेह नहीं है। नरेंद्र मोदी को देश के प्रधानमंत्री पद के लिए सर्वाधिक उपयुक्त मानने के पक्ष में बहुमत होने के बावजूद अभी तक यह विश्वास नहीं उभरा है कि भाजपा अपने बलबूते पर सरकार बना सकेगी या उसे कौन-कौन से क्षेत्रीय दल सहयोग दे सकेंगे।
इसका एक बड़ा कारण तो यह है कि सभी गैर-भाजपाई दल यह मानकर चल रहे हैं कि चुनाव परिणामों की संभावना मुस्लिम मतदाताओं के रुख पर निर्भर करती है। 15 अगस्त को प्रधानमंत्री के भाषण के जवाब में नरेंद्र मोदी के भाषण में उठाए गए मुद्दों से सहमत होते हुए भी ‘उचित अवसर नहीं था’ की समझदार लोगों की अभिव्यक्तियों को नकारते हुए सत्तर प्रतिशत लोगों ने मोदी का समर्थन किया है। दूसरी ओर मुस्लिम मतों को अपने पाले में लाने की बेताबी इतनी है कि दिग्विजय सिंह ने दंगों के लिए सिर्फ भाजपा को दोषी ही नहीं ठहराया, बल्कि यह भी रहस्योद्घाटन कर डाला कि जहां भी गैर-भाजपा सरकारें हैं उन सभी राज्यों में भाजपा दंगे की साजिश रच रही है। यह आश्चर्यजनक है कि उन्होंने उत्तर प्रदेश में तीस से अधिक दंगों के लिए भाजपा को दोषी क्यों नहीं ठहराया? जो दल मुस्लिम मतों के लिए विलगाव की भावना उभार रहे हैं उन्हें विश्वास है कि जाति, संप्रदाय और क्षेत्रीयता में हिंदू समाज इतना बंट चुका है कि उसमें एकजुटता की प्रतिक्रिया नहीं होगी। यह तो लोग मानकर चल रहे हैं कि कांग्रेस सत्ता में नहीं लौट पाएगी, लेकिन नरेंद्र मोदी के प्रति देश की आकांक्षाओं के बाद भी भाजपा के बारे में संदेह क्यों बना हुआ है? इसको समझने के लिए उत्तर प्रदेश में भाजपा की स्थिति पर गौर करने की जरूरत है। क्यों उत्तर प्रदेश में भाजपा के पास एक भी ऐसा नेता नहीं है जिसको बसपा या सपा के नेतृत्व के समकक्ष अवाम में मान्यता मिल सके। राष्ट्रीय स्तर के पदों पर राज्य के तमाम भाजपा नेता बैठे हैं, लेकिन उनमें से एक की भी पहचान उत्तर प्रदेश के नेता के रूप में क्यों नहीं बन पाई?
उत्तर प्रदेश में जनसंघ या भाजपा की पहचान बने नेताओं में कल्याण सिंह के अलावा अब कोई अन्य नहीं रहा, लेकिन क्या कल्याण सिंह अब पहचान बन सकते हैं? उन्होंने स्वयं ही अपनी पहचान मिटा दी और अपने पुत्र को राजनीति में स्थापित करने के लिए भाजपा में लौट आए हैं। उत्तर प्रदेश भाजपा में स्वाभाविक रूप से नेतृत्व उभार की राह बंदकर परिक्रमा पराक्रम से महत्वपूर्ण बनने वालों का बोलाबाला है।1उत्तर प्रदेश और बिहार को मिलाकर लोकसभा के लिए 120 सदस्य चुने जाते हैं। यदि इसमें उत्तराखंड और झारखंड को मिला दिया जाए तो यह संख्या 136 हो जाती है। इनमें से भाजपा के पास कुल 23 सदस्य हैं। ये वे क्षेत्र हैं जो गुजरात, राजस्थान या मध्यप्रदेश के समान ही महत्वपूर्ण हैं। जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने थे तब उत्तर प्रदेश से भाजपा के 59 सदस्य लोकसभा के लिए चुने गए थे। आज यह संख्या घटकर दस रह गई है। जो सर्वेक्षण प्रकाशित हो रहे हैं उसके अनुसार उत्तर प्रदेश में भाजपा को 12 से 25 सीटें तक मिल सकती है।
भाजपा के अपने पदाधिकारी तीस सीटें जीतने का सार्वजनिक दावा कर चुके हैं। तो क्या इस स्थिति में भाजपा की सरकार बन पाएगी? नरेंद्र मोदी की उत्तर प्रदेश में लोकप्रियता से सभी राजनीतिक दल भयभीत हैं, लेकिन भाजपा की स्थिति के कारण निश्चिंत भी हैं। इसी कारण संभवत: सभी सर्वेक्षण मुख्य संघर्ष सपा और बसपा के बीच मान रहे हैं। 1यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि जहां सपा-बसपा अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर और आकलन के आधार पर फेरबदल भी कर रही हैं वहीं भाजपा में इस पर कोई विचार नहीं हो रहा है। अंतिम क्षण में घोषित उम्मीदवार परिस्थितियों से तालमेल नहीं कर पाता। ऐसे में अपने समर्थकों को भी भाजपा उत्साहित नहीं कर पाती। इस स्थिति को संभालने के लिए दूरगामी उपाय तो अनेक हैं, लेकिन तात्कालिक रूप से जनभावनाओं को वोट में तब्दील करने का एकमात्र विकल्प है नरेंद्र मोदी को लखनऊ से लोकसभा का उम्मीदवार बनाना। उनके पक्ष में चल रही लहर का फायदा तभी मिल सकता है जब वह लखनऊ से चुनाव लड़ें। यदि ऐसा हो तो जनता का मूड देखते हुए यह कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा अपनी जीत का पुराना रिकार्ड तोड़ने में सक्षम हो सकती है और उसे इन चारों राज्यों की 136 सीटों में से लगभग सौ सीटें मिल सकती है। अटल बिहारी वाजपेयी ने बहुत सोच समझकर लखनऊ को चुना था। जो माहौल 1971 के चुनाव में इंदिरा गांधी के लिए था आज वही मोदी के लिए है। जैसे उस समय लोग इंदिरा गांधी को वोट देने की बात करते थे वैसे ही आज नरेंद्र मोदी के लिए अभिव्यक्ति होती है। भाजपा को इस तथ्य को समझकर अपनी चुनावी रणनीति तैयार करनी चाहिए।
इस आलेख के लेखक राजनाथ सिंह सूर्य हैं
Web Title: BJP Election Strategy
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