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गडकरी के साथ क्यों खड़ी है पार्टी

जागरण मेहमान कोना
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Ravishankarचौतरफा हमलों से घिरे भारतीय जनता पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी को आखिरकार जीवनदान मिलता नजर आ रहा है। राम जेठमलानी के दबाववश लगता था कि भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष पद से गडकरी की विदाई हो ही जाएगी। जेठमलानी के बेटे और वकील महेश जेठमलानी ने गडकरी के नेतृत्व में काम करने से इन्कार करते हुए भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी से इस्तीफा दे भी दिया है। भ्रष्टाचार को देशव्यापी मुहिम बनाने की कोशिशों और इसके जरिए केंद्रीय सत्ता पर काबिज होने का सपना देख रही भाजपा के अध्यक्ष लगातार भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरते जाएं और उसे लेकर उसके अपने ही नेता दबाव बनाने लगें तो खबरों का बाजार गरमाना जाहिर है। एक वर्ग को गडकरी की विदाई नजर आने भी लगी, लेकिन लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने उनके समर्थन में बयान देकर इन खबरों पर थोड़ा विराम लगाया। हालांकि गडकरी ने भी अपने बचाव में तमाम प्रयास किए, लेकिन वे कमतर ही साबित हुए। साथ की दो बड़ी वजहें विवेकानंद की दाऊद से तुलना करने वाले अपने बयान पर देर से ही सही, मगर गडकरी ने माफी मांगते हुए मामले को दबाने की कोशिश की थी। यह अलग बात है कि उन्हें इसमें सफलता नहीं मिली। इसके बावजूद गडकरी के पक्ष में सबसे बड़ी बात यह है कि जिस संघ में भाजपा की गर्भनाल जुड़ी हुई है, वह अभी गडकरी पर भरोसा जता रहा है।


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गडकरी के पक्ष में खुलकर सबसे पहले आ चुके पार्टी के पितृ पुरुष लालकृष्ण आडवाणी अब भी गडकरी के ही साथ हैं। आडवाणी भले ही नाराज चल रहे हों, लेकिन सुषमा स्वराज और राजनाथ सिंह का गडकरी के साथ बने रहना मामूली बात नहीं है। जिन गडकरी ने कई फैसले आडवाणी की मर्जी के खिलाफ लिए, भरी प्रेस कॉन्फ्रेंस में सुषमा स्वराज के रुख के खिलाफ फैसले का एलान किया, इन सबके बावजूद अगर उनके साथ पार्टी के शिखर नेतृत्व की दो हस्तियां खड़ी नजर आ रही हैं तो इसकी बड़ी वजह पार्टी की साख है। उससे भी बड़ी वजह यह है कि पार्टी के अंदर मंथन चल रहा है कि अध्यक्ष पद पर कौन बैठेगा? ऐसे फैसले वे लोग करेंगे, जो पार्टी के अपने कैडर से नहीं हैं और जिनका पार्टी से इतर फैसले लेने का इतिहास रहा है। राम जेठमलानी की जगह पार्टी कैडर के किसी दूसरे कद्दावर नेता ने यदि गडकरी के खिलाफ बिगुल फूंका होता तो शायद पार्टी में हलचल मच जाती, लेकिन जेठमलानी का खुद का इतिहास पार्टी के रुख के खिलाफ कदम उठाने वाला रहा है। इंदिरा गांधी की हत्या के आरोपी सतवंत सिंह और बेअंत सिंह का मुकदमा उन्होंने भाजपा की मर्जी के खिलाफ लड़ा था, जिसके लिए उन्हें पार्टी से निकाला भी गया था। 2004 में तो उन्होंने उन्हींअटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ चुनाव लड़ने का एलान कर पार्टी की किरकिरी कर दी थी, जिनके मंत्रिमंडल में वे कानून मंत्री थे और तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश आनंद कुमार सेन के खिलाफ मोर्चा खोल चुके थे। जेठमलानी बेशक बड़े वकील हैं। उनके कानूनी दांव-पेचों से बड़े-बड़े कानूनविद लोहा मानते हैं, लेकिन अदालती मुकाबले वाले दांव-पेचों का इस्तेमाल वे गाहे-बगाहे अपनी ही पार्टी में खुलेआम करते रहे हैं।


इन कदमों के बावजूद भाजपा में अगर उनका सम्मान रहा है तो इसकी बड़ी वजह उनकी कानूनी जानकारियां ही रही हैं। अटल और आडवाणी के साथ उनकी दोस्ती भी मशहूर रही है। इसके बावजूद पार्टी विरोधी कदम उठाने में वे पीछे नहीं रहे हैं। संघ की तिकड़ी से दूरी रह-रहकर पार्टी विरोधी क्रियाकलापों की वजह से ही पार्टी में जेठमलानी की वह साख वैसी नहीं रही है, जैसी शिखर नेतृत्व को लेकर उम्मीद की जाती रही है। इसीलिए गडकरी मसले पर संघ परिवार ने उनके साथ हां में हां नहीं मिलाई और अब गडकरी को बचाने के लिए ऐसे फैसले की खोज शुरू हो गई है, जो सर्वमान्य हो और उससे लाठी ना टूटे और सांप भी मर जाए। राम जेठमलानी ने अपने साथ शत्रुघ्न सिन्हा, यशवंत सिन्हा और जसवंत सिंह के संपर्क में होने का एलान भी किया था। बेशक ये तीनों नेता गडकरी के खिलाफ होंगे, लेकिन तीनों की ही राजनीतिक नाल संघ से नहीं जुड़ी है। फिर तीनों पार्टी नेतृत्व के खिलाफ सार्वजनिक नाराजगी भी जाहिर करते रहे हैं। इसीलिए न तो संघ और न ही पार्टी ने इन नेताओं को तवज्जो देने का फैसला किया। हालांकि जेठमलानी ने अभी अपना रुख नरम नहीं किया है, लेकिन पार्टी ने उन्हें चेताने में भी देर नहीं लगाई है। पार्टी के महासचिव जयप्रकाश नड्ढा का कहना कि पार्टी नेतृत्व को आंख दिखाने वाले नेताओं का कड़ा संज्ञान लिया जाएगा, यह चेतावनी भर ही है। नितिन गडकरी के खिलाफ एक के बाद एक मामले खुलने और उसे तूल दिए जाने को लेकर पार्टी कार्यकर्ताओं में निराशा की बजाय गुस्सा ज्यादा है। इस गुस्से की वजह यह है कि पार्टी के अंदरूनी हलके में माना जा रहा है कि अंदर के एक-दो ताकतवर नेताओं की शह पर ही गडकरी के खिलाफ मामलों का न सिर्फ खुलासा हो रहा है, बल्कि उन्हें तूल दिया जा रहा है।


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पार्टी के कार्यकर्ता दबी जुबान से यह भी कहने लगे हैं कि हिमाचल प्रदेश के चुनावों में कांग्रेस की तरफ से मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी वीरभद्र सिंह के खिलाफ दो करोड़ अस्सी लाख रुपये रिश्वत लेने का आरोप लगाने के पीछे गडकरी को बैकफुट पर लाना था। हालांकि इसका कोई पुख्ता सबूत तो पार्टी कार्यकर्ता नहीं दे पा रहे हैं, लेकिन तर्कशास्त्र के कार्य-कारण सिद्धांत के मुताबिक यह मानने में गुरेज नहीं होना चाहिए कि जहां आग होती है, धुआं वहीं होता है। अगर शिखर नेतृत्व की तरफ से ऐसी हरकत भाजपा में हो रही है तो यह ज्यादा चिंतनीय बात है। चाल, चरित्र और चेहरे में दूसरे दलों से खुद को अलग साबित करने वाली पार्टी के शिखर पर अगर ऐसी गुटबाजी हो तो हालात सही नहीं कहे जाएंगे। इसी गुटबाजी को किनारे लगाने के लिए मोहन राव भागवत ने नितिन गडकरी को नागपुर से उठाकर दिल्ली की कमान दिला दी थी। गडकरी प्रकरण से एक तथ्य और साफ हो रहा है कि संघ प्रमुख को परमपूज्य कहने वाले लोग भी असलियत में उनके फैसलों को मानने से इन्कार कर रहे हैं। अगर यह संदेश संघ और उसके दूसरे सहयोगी संगठनों के निचले स्तर तक के कार्यकर्ताओं के बीच चला जाएगा तो 2014 में केंद्र की सत्ता पर काबिज होने का सपना देख रही भाजपा की राह मुश्किल हो जाएगी। महंगाई और भ्रष्टाचार को लेकर बने व्यवस्था विरोधी माहौल का फायदा उठाना तो दूर की बात होगी। यही वह तथ्य है, जिसे भाजपा का शिखर नेतृत्व नहीं समझ रहा है। यही वजह है कि गडकरी के साथ पार्टी खड़ी नजर आ रही है।


लेखक रविशंकर स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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