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बीसीसीआइ पर क्यों न हो सरकारी कंट्रोल

जागरण मेहमान कोना
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केंद्रीय खेल मंत्री अजय माकन के प्रस्तावित राष्ट्रीय खेल विकास विधेयक को कैबिनेट में मंजूरी नहीं मिली है। कैबिनेट ने उनसे बदलाव के साथ बिल को तैयार करने को कहा है। दरअसल, इस बिल के सहारे अजय माकन की पहली कोशिश यही रही होगी कि आम लोगों के बीच उनकी इमेज एक ईमानदार मंत्री की बने, जो हर खेल संघ में पारदर्शिता की बात कर रहा है। उनकी यह भावना अन्ना के जनलोकपाल बिल के दौरान उमड़े जन समर्थन को देखकर ही परवान चढ़ी होगी, लेकिन इसके चक्कर में वे भूल गए कि जिस कैबिनेट से इस बिल को पास कराना है, वहां उनकी भिड़ंत शरद पवार, प्रफुल्ल पटेल, ज्योतिरादित्य सिंधिया, विलासराव देशमुख, राजीव शुक्ला और फारुख अब्दुल्ला जैसे लोगों से होगी, जिनका एक पांव राजनीति और दूसरा पांव क्रिकेट के मैदान में है। इन लोगों के अलावा केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल और कमलनाथ ने भी प्रस्तावित बिल का विरोध किया। इससे साफ है कि अजय माकन का विरोध सिर्फ बीसीसीआइ के स्तर पर ही नहीं हो रहा है, बल्कि उनके दूसरे विरोधी भी सक्रिय हैं। इस खेल विधेयक के जरिए माकन खेल संघों के ढांचे में पारदर्शिता और खर्चो के हिसाब किताब को दुरुस्त बनाने की कोशिश कर रहे थे, जिसमें हर संघ को सरकार के प्रति जबावदेह बनाने का प्रयास भी शामिल था।


माकन ने थोड़ा साहस दिखाते हुए भारतीय क्रिकेट बोर्ड पर भी नकेल कसने की कोशिश की। उन्होंने बीसीसीआइ को भी आरटीआइ के दायरे में लाने की बात की। इससे क्रिकेट संघों पर काबिज प्रभावशाली नेता उखड़ गए। उनके विरोध के चलते ही यह बिल पहले ही कदम पर लुढ़क गया। इसके बाद यह खेल विधेयक कम, अजय माकन बनाम बीसीसीआइ की लड़ाई ज्यादा हो गया। मीडिया में भी इसे इसी तौर पर पेश करने की कोशिश हुई है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि जो बीसीसीआइ सरकार से हर तरह की छूट लेती है, स्टेडियम बनाने के लिए जमीन मुहैया कराने से लेकर मैचों के आयोजन के दौरान सुरक्षा व्यवस्था की मुफ्त तैनाती वाली सुविधाएं हासिल करने के बाद उसे सूचना के अधिकार के दायरे में क्यों नहीं लाना चाहिए। यह ठीक है कि खेल मंत्रालय से वह रकम नहीं लेती है, लेकिन सिर्फ इस आधार पर उसे बाकी के खेल संघों से अलग करके क्यों देखा जाना चाहिए। बेहतर तो यही होता कि खुद को प्रोफेशनल संस्थान बताने वाली बीसीसीआइ खुद आगे बढ़कर कहती कि पारदर्शिता और समीक्षा के लिए वह अपने यहां सूचना के अधिकार को लागू कर रही है, लेकिन उसके अधिकारी जिस तरह से बयानबाजी कर रहे हैं, उससे साफ है कि बीसीसीआइ दूध की धुली संस्था नहीं हैं। देश में क्रिकेट के बढ़ते जुनून के बल पर वह दुनिया का सबसे अमीर क्रिकेट बोर्ड बन गया है और इस गिरोह में शामिल हर कोई यही चाहता है कि उस पर किसी की नजर नहीं रखी जाए।


बीसीसीआइ जिस तरह की दलील दे रही है, उसे देखते हुए क्या यह मान लेना चाहिए कि कल को कोई कॉरपोरेट घराना कहे कि उसने सरकार से कोई मदद नहीं ली है, लिहाजा वह देश में अपनी मर्जी से कारोबार करेगा, वह बाकी लोगों के लिए मान्य कारोबार संबंधी नियमों को नहीं मानेगा। बीसीसीआइ की यह दलील भी कि उनके यहां सबकुछ ठीक है, गले से नहीं उतरती। बहुत दिन नहीं हुए, जब आइपीएल में वित्तीय अनियमितताओं का नजारा लोगों ने देखा। इसलिए माकन की यह दलील एकदम ठीक है कि बीसीसीआइ को जनता के प्रति जिम्मेदार बनना होगा। ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट बोर्ड का उदाहरण सामने है। हर कमाई-खर्च का हिसाब उसकी वेबसाइट पर मिल जाएगा। इस विधेयक का विरोध दूसरे खेल संघ भी कर रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय खेल संघ की ओर से भी कहा गया है कि इससे सरकार का हस्तक्षेप बढ़ेगा। कुछ लोग तर्क दे रहे हैं कि नए खेल विधेयक के जरिए सरकार खेल संघों पर अंकुश लगाना चाहती है।


सरकारी दखलअंदाजी से खेल संघों में स्थिति और बदतर होगी, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि स्वायत्तता के नाम पर तमाम खेल संघों में न तो किसी तरह की पारदर्शिता है और न ही मौजूदा खेल संघों के मुखियाओं के नेतृत्व में भारत खेल की शक्ति बन सका। इन खेल संघों पर सालों साल से किसी खास व्यक्ति का कब्जा है और यह राष्ट्रीय स्तर से लेकर जिला स्तर तक कमोबेश एक समान लक्षित होता है। इन्हें चलाने वाले या तो हैवीवेट नेता हैं, जिनके पास अन्य जिम्मेदारियां भी काफी हैं या फिर जाने माने उद्योगपति, जिन्हें अपना कारोबार चमकाने से फुरसत नहीं मिलती। प्रस्तावित नियमों के मुताबिक खेल संघ में कोई शख्स 12 साल से ज्यादा समय तक अध्यक्ष नहीं बन पाएगा, जबकि खेल संघ के सचिव और कोषाध्यक्ष के लिए यह सीमा 8 साल की हो जाएगी। इन पदों के लिए अधिकतम उम्र सीमा भी 70 साल होगी, जो खेल संघ इसे लागू नहीं करेगा, उसे सरकार की ओर से कोई अनुदान नहीं मिलेगा और न ही उन्हें किसी तरह की राष्ट्रीय चैंपियनशिप के आयोजन का अधिकार होगा।


अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होने वाले मुकाबलों के लिए राष्ट्रीय टीम के चयन का अधिकार भी उनसे छिन जाएगा। इसके अलावा खेल विधेयक में और भी अच्छी बातें शामिल हैं। मसलन, सभी राष्ट्रीय खेल संघों को वाडा के प्रावधानों को लागू करना होगा, महिला खिलाडि़यों के यौन शोषण को रोकने के लिए सुप्रीमकोर्ट के दिशा-निर्देशों का पालन किया जाएगा और खिलाड़ी की आयु में किसी फर्जीवाड़े को रोकने के लिए सख्त कदम उठाए जाएंगे, लेकिन इस बिल में एक बुनियादी कमी जरूर दिखी।


देश के अंदर खिलाडि़यों को तैयार करने की कोई ठोस योजना का अभाव इसमें दिख रहा है, जबकि जरूरत इस बात की है कि युवा पीढ़ी को खेल से जोड़ने की कारगर योजना देश भर में लागू की जाए। तभी जाकर हमारे यहां खिलाडि़यों की पौध विकसित हो पाएगी। इस दिशा में खेल संघों के पास दिखाने के लिए कोई अहम कामयाबी भी नहीं है। सौ करोड़ से ज्यादा लोगों का देश होने के बावजूद हमारे यहां ओलंपिक पदक विजेता नहीं बनते। बावजूद इस कमी के पहली बार किसी खेल मंत्री ने देश के खेल संघों में पारदर्शिता लाने और पेशेवर रूप देने की कोशिश की है, जिसका स्वागत किया जाना चाहिए। हालांकि इससे रातोंरात किसी बड़े बदलाव की उम्मीद तो बेमानी होगी, लेकिन इससे निश्चित तौर पर खेल संघों में सालों साल से जमे और सड़े-गंधियाते कबाड़ को हटाने में मदद मिलेगी। कम से कम नए लोगों के आने से नई बयार और नई कोशिशों की उम्मीद तो बंधेगी ही, लेकिन हमें ध्यान रखना होगा कि इससे पहले मणिशंकर अय्यर और एमएस गिल की ऐसी कोशिशों का कोई नतीजा नहीं निकला था। माकन भी बिल को मंजूरी नहीं मिलने से दबाव में होंगे, लेकिन उन्होंने साफ किया है कि वे इस बिल को दोबारा लेकर आएंगे।


लेखक प्रदीप कुमार स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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