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फिर बोतल से निकला बोफोर्स का जिन्न

जागरण मेहमान कोना
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Mahesh Parimalबोफोर्स कांड हमारे देश के लिए एक बदनुमा दाग है, लेकिन इस दाग को धोने की कभी कोई ईमानदार कोशिश नहीं हुई। देखा जाए तो बोफोर्स से बड़ा कांड तो उसे दबाने का है। राजीव गांधी सरकार की पूरी कोशिश रही कि इसमें धन किसने लिया है, उसका नाम कभी सामने न आने पाए। पूरी कवायद इस मामले को दबाने की ही रही है। इसीलिए यह मामला इतना संगीन था, लेकिन इस देश की कई पीढ़ी बोफोर्स के सही अपराधी का नाम नहीं जान पाएगी। यह भारतीय राजनीति का ऐसा दु:स्वप्न है, जिसे दोबारा देखना किसी हादसे से कम नहीं होगा। राजनेताओं की ढिलाई किस हद तक हो सकती है, यह इस मामले से जाना जा सकता है। सत्ता के दलाल अपना खेल खेल जाते हैं और प्रजातंत्र सिसकता रहता है। बोफोर्स कांड पहली बार 15 अप्रैल 1987 में सामने आया था। इस तरह से यह मामला एक बार फिर भारतीय राजनीति के परिदृश्य में छा गया है। मानो इस घटना की सिल्वर जुबली हुई हो। इस बार इसका खुलासा स्वीडन के भूतपूर्व पुलिस प्रमुख स्टेन लिंडस्ट्रोम के एक साक्षात्कार से हुआ है। अपने साक्षात्कार में लिंडस्ट्रोम ने बताया है कि इतालवी व्यापारी अट्टावियो क्वात्रोची की भूमिका पर पूरी तरह से पर्दा डालने के लिए उन पर भारत के बड़े नेताओं का दबाव था। उन्होंने दूसरी चौंकाने वाली बात यह कही कि इस मामले में राजीव गांधी के मित्र अमिताभ बच्चन के खिलाफ किसी भी तरह का सबूत न होने के बाद भी उन्हें फंसाने के लिए भी दबाव था।


बोफोर्स के जिन्न की वापसी


इस रहस्योद्घाटन से अमिताभ बच्चन को काफी राहत हुई है। उनके अनुसार दुख इस बात का है कि ऐसा उनके माता-पिता के रहते नहीं हो पाया। उन्हें निर्दोष साबित होने में 25 साल लग गए। यहां सवाल यह उठता है कि अमिताभ को फंसाने और क्वात्रोची को बचाने के लिए आखिर किस नेता ने दबाव बनाया था। इसका खुलासा क्यों नहीं हो पा रहा है? बोफोर्स कांड तो केवल 64 करोड़ रुपये का था। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के आगे तो यह राशि कुछ भी नहीं है। बोफोर्स कांड पिछले 25 सालों से देश की राजनीति में बार-बार सामने आता रहा है और हर बार गांधी परिवार को शर्मसार होना पड़ा है। इस कांड का मुख्य आरोपी कौन है, क्या भारतीय जनता कभी उसका नाम जान पाएगी? यह प्रश्न पिछले 25 सालों से देश को मथ रहा है। मामला दबाने की पूरी कोशिश हुई 15 अपै्रल 1987 को बोफोर्स कांड का धमाका स्वीडन रेडियो पर हुआ था। इस सौदे में 64 करोड़ रुपये की रिश्वत दी गई थी। तब राजीव गांधी सरकार हिल गई थी। इस रिश्वत को देने के लिए भारतीय राजनेताओं और दलालों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाने के लिए इटली के व्यापारी क्वात्रोची का इस्तेमाल किया गया था। क्वात्रोची गांधी परिवार का काफी करीबी था। इस कांड में शक की सुई सदैव राजीव गांधी पर ही जाकर टिकती थी। इसीलिए इसकी लीपापोती करने के लिए एक बड़ा ऑपरेशन किया गया। ऐसा ऑपरेशन भारतीय राजनीति में इसके पहले कभी नहीं देखा गया था। यह ऑपरेशन बोफोर्स से भी बड़ा कांड था। इसमें सीबीआइ और आइबी का भी खूब इस्तेमाल किया गया।


राजीव गांधी ने जिस तरह से बोफोर्स कांड पर पर्दा डालने के लिए जांच एजेंसियों का गलत इस्तेमाल किया था, ठीक उसी तरह वीपी सिंह सरकार ने इस मामले में राजीव गांधी की भूमिका को पर्दाफाश करने के लिए इन संस्थाओं का दुरुपयोग किया। वीपी सिंह के सचिव भूरे लाल के अनुसार दिवंगत प्रधानमंत्री राजीव गांधी के आर्थिक व्यवहार की जांच के लिए यूरोप की एक निजी जांच एजेंसी की सेवाएं ली गई थीं। इस एजेंसी ने जो कुछ भी जानकारी हासिल की, उसे कुछ पत्रकारों को देकर राजीव गांधी की छवि को धूमिल करने पूरी कोशिश की गई। उस समय राजीवन गांधी विपक्ष के नेता थे। वीपी सिंह के तमाम प्रयासों के बाद भी बोफोर्स कांड का सच बाहर नहीं आ पाया। स्टेन ने ही दिए थे चित्रा को कागजात बोफोर्स के बारे में जो कुछ हम जानते हैं, उसमें एक अंग्रेजी अखबार की पत्रकार चित्रा सुब्रमण्यम की अहम भूमिका है। 1987 में जब यह कांड बाहर आया, तब वह जिनेवा में पदस्थ थीं। उस समय स्वीडन के पुलिस प्रमुख स्टेन लिंडस्ट्रोम थे। उन्हीं ने चित्रा को बोफोर्स के गुप्त कागजात सौंपे थे। भारत में जब इस कांड ने तहलका मचाया, तब प्रजा के विरोध के चलते जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति का गठन किया गया। इसकी रिपोर्ट दो वर्ष बाद आई। आश्चर्य की बात यह है कि 1987 के अगस्त में यह मामला बाहर आया, लेकिन सीबीआइ ने 1989 तक इसकी एफआइआर नहीं लिखी थी। मतलब यही कि जब तक राजीव गांधी प्रधानमंत्री रहे, एफआइआर लिखी ही नहीं गई। वर्ष 1989 में जब लोकसभा के चुनाव हुए, तब कांगे्रस को बहुमत नहीं मिला। लिहाजा, वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने। इसके बाद जनवरी 1990 में इस मामले की एफआइआर सीबीआइ ने लिखी। 1991 के मई माह में राजीव गांधी की हत्या हो गई। लोकसभा चुनाव हुए और नरसिंह राव प्रधानमंत्री बने। तब बोफोर्स मामले की जांच सीबीआइ ने ढीली कर दी। आश्चर्य की बात यह है कि उस समय क्वात्रोची भारत में ही था। वह तो जुलाई 1993 में भारत से चला गया।


सीबीआइ की वर्षो की मेहनत से यह सामने आया कि स्विस सरकार ने 1997 में अपने बैंक के गुप्त खातों की जानकारी दी, जिसमें बोफोर्स कांड की रिश्वत जमा होने की जानकारी दी गई। क्वात्रोची को क्लीनचिट क्यों सीबीआइ ने 1997 के अंत में बोफोर्स मामले में जो चार्जशीट फाइल की, उसमें राजीव गांधी के अलावा क्वात्रोची, बोफोर्स कंपनी के भूतपूर्व प्रमुख मार्टिन आर्डबो, बोफोर्स के भारत के एजेंट विन चड्ढा, तत्कालीन रक्षा सचिव एसके भटनागर आदि का नाम था। जब ये आरोप पत्र फाइल किए गए, तब क्वात्रोची मलेशिया में था। उसकी धर-पकड़ के लिए वर्ष 2000 में भारत सरकार ने मलेशिया सरकार को पत्र भी लिखा था। उस समय राजग सरकार थी और प्रधानमंत्री थे अटल बिहारी वाजपेयी। किसी कारणवश बोफोर्स कांड की जांच धीमी पड़ गई और इसका लाभ क्वात्रोची ने भरपूर उठाया। मलेशिया सरकार ने उसे जमानत पर रिहा कर दिया। 2001 में चड्ढा और भटनागर का निधन हो गया। वर्ष 2004 में दिल्ली हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया कि बोफोर्स कांड में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की भूमिका के कोई सबूत नहीं मिले हैं। इस मामले का आरोपी क्वात्रोची ही था। इस पर सीबीआइ के अनुरोध के चलते क्वात्रोची की गिरफ्तारी के लिए इंटरपोल ने रेड कॉर्नर नोटिस जारी किया था। इस नोटिस के अनुसार अर्जेटीना की पुलिस ने 2007 में क्वात्रोची की धर दबोचा था। उस समय उसे भारत लाकर उस पर मुकदमा चलाया जा सकता था, पर ऐसा नहीं हो पाया।


भारत सरकार ने अर्जेटीना सरकार को जरूरी कागजात नहीं दिए, लिहाजा क्वात्रोची एक बार फिर छूट गया। मार्च 2011 में सीबीआइ ने क्वात्रोची को सारे आरोपों से मुक्त कर निर्दोष साबित कर दिया। आज की तारीख में भारत में क्वात्रोची के खिलाफ कोई मामला नहीं है। अब वह इज्जत के साथ भारत आ सकता है। इस मामले में अब तक के परिश्रम से यही बाहर आया है कि स्वीडिश कंपनी द्वारा 64 करोड़ रुपये की रिश्वत दी गई थी। पर यह रिश्वत किसे मिली, यह किसी को नहीं पता। स्वीडन के पुलिस प्रमुख के रहस्योद्घाटन से यही पता चलता है कि यह रिश्वत जिसे दी गई, उसकी पहचान छिपाने के लिए राजीव गांधी ने खूब मेहनत की थी। उसकी पहचान छिपाने के पीछे उनका इरादा क्या था, इसकी जानकारी शायद हमें कभी नहीं मिल पाएगी।


लेखक महेश परिमल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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