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इस माफी के मायने क्या हैं!

जागरण मेहमान कोना
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Raj Kishoreएक फिल्म अभिनेता के रूप में ओमपुरी की अहमियत कितनी ज्यादा है यह मैं नहीं जानता, क्योंकि फिल्में मैं कम ही देखता हूं। इसके अलावा फिल्मी दुनिया के बारे में ज्यादा जानकारी हासिल करने की कोई हवस भी मेरे भीतर नहीं है। बावजदू इसके उनकी साफगोई का मैं कायल जरूर हूं। वह करीब दो महीना पहले महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में आए थे। यहां के एक कार्यक्रम में लगभग एक घंटा उन्हें बोलते हुए मैंने सुना। फिल्मी दुनिया और भारतीय राजनीति के यथार्थ पर उन्होंने अपने सुलझे हुए विचार जितने खरे ढंग से व्यक्त किए उससे मैं तुरंत उनका प्रशंसक हो गया। लगा इस आदमी में दम है। इसकी रीढ़ की हड्डी अभी सही-सलामत है और इस व्यक्ति में कुछ अलग है। हफ्ता भर पहले जब मैंने यह समाचार पढ़ा कि ओमपुरी ने सांसदों को अनपढ़ कहने के लिए संसद से माफी मांग ली है तो मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। ओमपुरी का व्याख्यान सुनते समय मुझे जरा भी अहसास नहीं हुआ था कि यह आदमी इतना कमजोर निकलेगा जिसे मैं अपने मन में इतना आदर दे रहा हूं और मजबूत मान रहा हूं।


ओमपुरी ने दिल्ली के रामलीला मैदान में अन्ना हजारे के सत्याग्रह के दौरान बयान देते हुए कहा था कि सांसदों का स्तर गिर गया है और ऐसी ही कई बातें उन्होंने कहे। उस समय वह बहुत जोश में दिख रहे थे और उनके मुंह से आग निकल रही थी। मैंने उनका यह भाषण टीवी पर सुना था और उनकी एक-एक बात से मैं सहमत था। आज भी सहमत हूं भले ही इसके लिए मुझे संसद के सामने पेश होना पड़े। संसद मुझे दंडित करे तो मैं उस दंड को खुशी-खुशी स्वीकार करूंगा, लेकिन संसद भी अपनी मानहानि के लिए चुनकर लोगों को बुलाती है। पर वह मुझ जैसे मामूली आदमी की बातों को संज्ञान में क्यों ले? वह ऐसा करना शुरू कर दे तो उसे शायद बारहों महीने इस सोच के स्त्री-पुरुषों को अपने कटघरे में लाना होगा। वैसे मेरा मानना है कि यह खुद संसद के लिए अच्छा होगा। संसद को पता होना चाहिए कि देश के लोग देश की इस सर्वोच्च संस्था के बारे में आखिर क्या सोचते हैं? यह जानकर सांसद अपने संसदीय आचरण पर पुनर्विचार करने को बाध्य होंगे जिससे उनका राजनीतिक व्यक्तित्व निखर सकता है। यह बात कहने वाला पहला आदमी मैं नहीं हूं। लोकसभा और राज्यसभा के कई अध्यक्ष समय-समय पर सांसदों के आचरण पर तीखी टिप्पणी कर चुके हैं।


शंकर दयाल शर्मा तो जो बाद में राष्ट्रपति भी बने राज्यसभा में एक बार तो रोने ही लगे थे। ऐसी स्थिति में मैं नहीं सोचता कि ओमपुरी को माफी मांगने की जरूरत थी। रामलीला मैदान के उसी कार्यक्रम में किरण बेदी ने भी आग उगलता हुआ व्याख्यान दिया था। बाद में उन्होंने भी माफी मांग ली और अपने को दंडित होने से बचा लिया। वह अन्ना के आंदोलन के प्रमुख आधार स्तंभों में हैं इसलिए मुझे और ज्यादा हैरत हुई थी। यह कैसा आंदोलन है जिसके संचालक जो कहते हैं उस पर टिकते नहीं हैं। यहां तक कि उसके लिए अवसर पड़ने पर वह माफी भी मांग लेते हैं। अगर किरण बेदी जैसा व्यक्तित्व अपनी जुबान पर काबू नहीं रख सकता या अपनी जुबान पर टिका नहीं रह सकता तो फिर हमारे सार्वजनिक जीवन के स्तर में सुधार कैसे आ सकता है? यही बात मैं ओमपुरी के लिए भी कहना चाहता हूं। क्या अपना माफीनामा पेश करके किरण बेदी और ओमपुरी ने संसद के प्रति अपना आदर व्यक्त किया है, मैं ऐसा नहीं सोचता। यदि वह अपने वक्तव्यों पर पश्चाताप का अनुभव कर रहे हैं तो वह अपनी ग्लानि मीडिया के जरिये भी लोगों के सामने रख सकते थे और इस बारे में देश के अन्य तमाम लोगों को भी चौकन्ना करने का काम कर सकते थे कि बाकी लोग भी संसद के बारे में आलोचनात्मक रुख रखना और उसके बारे में सार्वजनिक तौर अपने मत रखना छोड़ दें।


हालांकि उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया है, इसलिए कोई भी व्यक्ति यह सोचने को स्वतंत्र है कि उनके द्वारा माफी मांग लेना एक तकनीकी मामला है जिसके द्वारा उन्होंने अपनी खाल बचा ली है। मेरा विचार है अगर वे दिल्ली के रामलीला मैदान में अपने दिए गए बयानों पर टिके रहते और उसका बचाव करते हुए अपने तर्क देते तो देशभर में एक स्वस्थ बहस की शुरुआत हो सकती थी। यह मान लेना ठीक नहीं होगा कि बहस का मंच केवल और केवल संसद ही और बाकी जगह ऐसा नहीं हो सकता। संसद के अलावा समाज भी व्यापक बहस का मंच है, जहां देश के हर नागरिक को अपनी बात स्वतंत्र रूप से रखने का अधिकार है। संसदीय लोकतंत्र का सांचा-ढांचा ही इसी विचार पर आधारित होता है। इसीलिए इसके बारे में बार-बार कहा जाता है कि वह बहस और विचार-विमर्श से चलता है, लेकिन ओमपुरी और किरण बेदी द्वारा मांगे गए माफीनामों ने इस महत्वपूर्ण अवसर को गंवा दिया है। किरण बेदी और ओमपुरी अगर संसद के बारे में अपने-अपने बयान पर टिके रहते तो ज्यादा से ज्यादा क्या होता? संसद उनकी जान तो नहीं ले लेती। अधिक से अधिक यही होता कि संसद दोनों को कुछ दिनों के लिए जेल भेज देती। जब आप व्यवस्था का विरोध करते हैं और प्रतिपक्ष की सदस्यता ग्रहण करते हैं तो आपको जेल जाने से क्यों डरना चाहिए? सच बोलने का साहस और जेल जाने से डर, ये दोनों चीजें साथ-साथ नहीं चल सकतीं। मैं यह नहीं कहूंगा कि किरण बेदी और ओमपुरी जैसे लोग कायर हैं। मेरे विचार में ये आज भी काफी हिम्मती लोग हैं, लेकिन इनके साथ समस्या यह है कि ये किसी तरह की असुविधा सहन करना नहीं चाहते।


जिसे झंझट कहते हैं वह मोल लेना इनकी साम‌र्थ्य के बाहर है। उनकी इच्छा होती है कि वे विरोध भी करते रहें और सब कुछ आराम से चलता भी रहे। यहां यह सवाल स्वाभाविक तौर पर उठता है कि क्या ऐसा कहीं होता है? जब आप व्यवस्था पर आक्रमण करेंगे तो वह पलट कर आप पर आक्रमण अवश्य करेगी। इसलिए जो भी विरोध में खड़े होने की भूमिका चुनता है उसे अप्रिय परिणामों के लिए भी तैयार रहना चाहिए। यदि ऐसा नहीं है और सब कुछ आराम से पाने की चाहत है तो मेरा मानना है कि फिर विरोध करने का अधिकार भी ऐसे लोगों को नहीं हो सकता। आजकल दिल्ली की तिहाड़ जेल में अनेक नामी-गिरामी लोग बंद हैं। इन सब पर भ्रष्टाचार का मुकदमा चल रहा है। इस सराय में जब कोई नया मुसाफिर ले आया जाता है तो सभी को खुशी होती है कि चलो ये भी नप गए, लेकिन इस पहलू पर आपने कभी विचार किया है कि इनमें कुछ भले और ईमानदार लोग क्यों नहीं हैं? जब देश में वर्तमान शासन तंत्र के प्रति इतना गहरा और व्यापक असंतोष हो तब इस असंतोष को व्यक्त करने वाले हजारों नहीं तो सैकड़ों व्यक्तियों को जेल में होना चाहिएया नहीं? आजादी की लड़ाई के दिनों में ब्रिटिश भारत की जेलों में अपराधी होते थे तो स्वतंत्रता सेनानी भी जो पराधीनता के विरुद्ध संघर्ष करते हुए बड़े गर्व से जेल जाते थे। आज यह स्थिति क्यों नहीं बन पा रही है? यहां तक कि जेल भरो आंदोलन में हिस्सा लेने वाले आंदोलनकारी भी एक-दो दिन बाद छूटकर जेल से बाहर नजर आते हैं। इस समय माओवादियों को छोड़कर कौन से राजनीतिज्ञ जेलों में कैद हैं। माओवादियों पर भी सरकार विरोध का आरोप नहीं है। उन पर आरोप हिंसक कार्यो में लिप्त होने का है। अहिंसक विरोध करने वाले अगर जेल की यात्रा नहीं करेंगे तो क्या इससे हिंसा की राजनीति को बढ़ावा नहीं मिलेगा।


लेखक राजकिशोर वरिष्ठ स्तंभकार हैं


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