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तंत्र की नाकामी का अंजाम

जागरण मेहमान कोना
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Rahees Singhआंध्र प्रदेश की राजधानी हैदराबाद के दिलसुख नगर इलाके में ब्लास्ट के बाद एक बार फिर ग्लानि का अनुभव हुआ। फिर वही सवाल उठे कि क्या भारत और हमारे अबोध लोगों की यही नियति है, जिसे हमारी नाकामियां लिख रही हैं? क्या यह सिलसिला कहीं रुकेगा भी? क्या भारत सरकार और उसकी एजेंसियां घटना हो जाने के बाद घटना के पोस्टमार्टम की परंपरा को त्याग कर प्रोएक्टिव भी हो पाएंगी? हो सकता है कि इन हमलों के लिए इंडियन मुजाहिद्दीन या सिमी जैसे संगठनों का इस्तेमाल हुआ हो, लेकिन इसके असली सूत्रधार कहां हैं, क्या इस पर गंभीरता से गौर किया जाएगा? दूसरा सवाल यह कि यह किसकी असफलता मानी जाए? खुफिया और लॉ इनफोर्समेंट एजेंसियों की या सरकार की? हैदराबाद में सिलसिलेवार दो बम धमाकों के बाद पूरे देश में हाई अलर्ट जारी हुआ और इलाहाबाद कुंभ मेला परिसर या अन्य महत्वपूर्ण स्थानों पर पुलिस का ऑपरेशन स्वीप भी शुरू हो गया, लेकिन यह सब तो घटना को अंजाम देने के बाद की सक्रियता है, इससे अब क्या लाभ होने वाला है। आतंकियों ने तो अपने काम को अंजाम देने में सफलता प्राप्त ही कर ली। भारतीय खुफिया एजेंसियों द्वारा शक जाहिर कर दिया कि इसके पीछे इंडियन मुजाहिदीन का हाथ हो सकता है, क्योंकि इस घटना में साइक्लोटोल विस्फोटक इस्तेमाल हुआ है, जिसका प्रयोग ये करते हैं।


प्रधानमंत्री ने लोगों से शांति बनाए रखने की अपील कर दी, लेकिन जिन लोगों की जानें गई, वे अब वापस तो आनने वाली नहीं। अब वक्त आ गया है कि सरकार कुछ करे या फिर लोगों के सामने अपनी नाकामी को स्वीकार करे। इसका कारण यह है कि लगभग चार माह पहले पकड़े गए कुछ आतंकियों ने हमारी एजेंसियों को ये संकेत दिए थे कि कुछ जगहों पर बम विस्फोट किए जा सकते हैं। दो दिन पहले तो गृह मंत्रालय के पास भी इसकी खुफिया सूचना आ गई थी और संभवत: हैदराबाद उनके टारगेट में से एक था। फिर आखिर इस घटना को रोका क्यों नहीं जा सका? हमारे प्रधानमंत्री ने ट्विट किया कि आतंकियों की कायरना हरकत है। यह शब्दावली अब बहुत घिसी-पिटी हो चुकी है। यह उनकी कायरना हरकत नहीं, बल्कि यह उस छद्म युद्ध का एक हिस्सा है, जिसे हमारा पड़ोसी देश पाकिस्तान लंबे समय से भारत के खिलाफ लड़ रहा है।


वर्ष 2006 से लेकर 21 फरवरी 2013 तक लगभग 23 या 24 आतंकी घटनाएं हो चुकी हैं, जिसमें 900 के आसपास लोग मारे गए और लगभग इसके दो गुने लोग घायल हुए। इन घायलों में से बाद में कितनों की मौत हुई होगी, इसकी स्पष्ट जानकारी नहीं है। इन आतंकी घटनाओं में 21 फरवरी 2013 को हैदराबाद में हुए विस्फोट के अलावा जुलाई 2006 में मुंबई में लोकल ट्रेन में श्रृंखलाबद्ध धमाके, जिनमें 180 से ज्यादा लोगों की मौत हुई। इसी साल सितंबर में मालेगांव में सिलेसिलेवार धमाके में 32 लोग मारे गए थे। वर्ष 2007 में समझौता एक्सप्रेस में बम धमाके में 66 लोग मारे गए थे। 2008 में जयपुर और बेंगलूर में सात धमाके, इसी साल अक्टूबर में असम में एक साथ 18 जगहों पर बम धमाके और 26/11 को मुंबई पर हुए आतंकी हमले सहित तमाम आतंकी घटनाएं हुई हैं, जो देश के सुरक्षा तंत्र के लिए एक बड़ी चुनौती साबित हुई। लेकिन इन सबसे कोई सबक नहीं सीखा गया। अब हमारे रणनीतिकार यह कह सकते हैं कि वे सुरक्षा के मामले में चाक चौबंद थे, लेकिन वास्तविकता यह नहीं है। अगर ऐसा होता तो हमें लगातार शिकार होना न पड़ता। दरअसल, जब तक आतंकवाद की नर्सरी और इसके आकाओं का खत्मा नहीं होगा, बेहतर परिणाम की उम्मीद नहीं कर सकते। सभी जानते हैं कि आतंकियों के आका पाकिस्तान में हैं, लेकिन उनकी तमाम हरकतों के बाद भी हम पर दबाव बनाया जाता है या फिर हम स्वयं इस दबाव में होते हैं कि पाकिस्तान से सामान्य रिश्ते बनाने हैं। इस देश में जो अलगाववादी गतिविधियां चला रहे हैं, उनके पाकिस्तान जाने का बंदोबस्त किया जाता है और वे वहां उस आतंकी के साथ मंच साझा करते हैं, जो भारत में संपन्न होने वाली आतंकी गतिविधियों का मास्टर माइंड है।


आखिर यह उदारता या फिर कायरता क्यों? बता दें कि आजादी के तीन माह के अंदर मेजर जनरल अकबर खान जिसका सपना पाकिस्तान की सेना का पहला कमांडर इन चीफ बनना था, की कमांड में कबाइलियों ने जम्मू-कश्मीर पर हमले की योजना बनाई थी। हालांकि अकबर खान कश्मीर को भारतीय सुरक्षा बलों की मजबूत पकड़ से मुक्त नहीं करा पाया, लेकिन कबाइली हमलों के अनुभव के आधार पर संगठित गैर पारंपरिक युद्ध नीति द्वारा कश्मीर को आजाद कराने के तरीकों पर एक थीसिस विचारार्थ प्रस्तुत की, जिसका सिद्धांत था कश्मीर पर कब्जा करने के लिए पारंपरिक युद्ध की जरूरत नहीं है। गैर पारंपरिक युद्ध में यदि भारत बदले में आक्रमण करता है तो विश्वमत पाकिस्तान के पक्ष में होगा। भारत में आतंकवाद भी इसी रणनीति का हिस्सा है। पाकिस्तान का दूसरा प्रयोग था ऑपरेशन जिब्राल्टर, जो 1965 में कश्मीर में भारत के खिलाफ शुरू हुआ। पाकिस्तान के तत्कालीन आइएसआइ प्रमुख ब्रिगेडियर रियाज ने इसकी जिम्मेदारी उठाई। अस्सी के दशक में पाकिस्तान की आइएसआइ को अफगानिस्तान में बीयर ट्रैप रणनीति में उल्लेखनीय सफलता मिल चुकी थी। लिहाजा, जम्मू-कश्मीर में भी यह प्रयोग लाभदायक हो सकता था। वर्ष 1989 में सोवियत संघ ने अफगानिस्तान को छोड़ दिया और उसी साल आइएसआइ ने जम्मू-कश्मीर में छाया युद्ध शुरू कर दिया।


हालांकि बीयर ट्रैप की नीति यहां सफल नहीं हुई, क्योंकि भारतीय सुरक्षा बल उत्तर-पूर्व के अनुभवों के कारण विद्रोह दबाने में दक्ष थे और कश्मीरियों ने भी पूर्ण रूप से जेहाद में भाग नहीं लिया था। इसके बाद पाकिस्तान ने आतंकवाद की नर्सरी उगाई, जिसका मकसद था भारत के विभिन्न भागों में आतंकी गतिविधियों को अंजाम देना। इसके उपकरण बने मरकज-दवा-उल-इरशाद और उसका लड़ाकू गुट है लश्करे तैयबा, जमायत-उल-उलेमा, हरकत-उल-मुजाहिदीन, जैश-ए-मोहम्मद आदि। इन संगठनों ने एक-एक कर या फिर संयुक्त रूप से भारत की भूमि पर अपनी हरकतों को अंजाम दिया और लश्करे तैयबा जैसे संगठन ने मूल मंत्र बनाया, हम फिदाइन हैं और अल्लाह के नाम पर हम तब तक मारना और मरना जारी रखेंगे, जब तक हम भारत में काफिरों को नष्ट नहीं कर देते और भारत पर विजय नहीं पा लेते। यहां इस विषय पर भी ध्यान देना जरूरी होगा कि 2014 तक अफगानिस्तान से नाटो फौजें वापस चली जाएंगी और आतंकी संगठन पुन: 1989 की पुनरावृत्ति करेंगे। नाटो फौजों के विदा होने के बाद पाकिस्तान से संचालित आतंकी संगठनों को अफगान मोर्चे पर लड़ने के लिए तो कुछ शेष रह नहीं जाएगा। इस स्थिति में उन्हें भारत की ओर हमले तेज करने का अवसर मिलेगा। यदि वे ऐसा नहीं करेंगे तो मुफलिसी का शिकार बनेंगे। इसलिए बहुत आशंकाएं हैं कि उन्होंने जिस तरीके से अफगानिस्तान से सोवियत सेनाओं के जाने के बाद कश्मीर में छाया युद्ध शुरू किया था, उसी तरह की गतिविधियां वे अमेरिकी सेना के जाने के बाद भी अपनाएं। इस स्थिति में भारत को अपनी आतंरिक और बाह्य सुरक्षा पर एक साथ ध्यान देने की जरूरत होगी।


इस आलेख के लेखक रहीस सिंहस्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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